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फ़िल्म सिटी, नोएडा की उस गली में नीम ख़ामोशी थी, बोलते हुए लोगों के मुंह से निकल रही आवाज़ बिखरकर हवा में कहीं गुम हो जा रही थी। कोई रो रहा था, तो कोई दिलासा पा रहा था, कोई नई योजना पर विचार कर रहा था तो कोई सिगरेट के सुट्टे के साथ अपने टेंशन को हवा में कहीं दूर उड़ा देना चाहता था। लेकिन ग़ुस्सा कहीं नहीं था। मजबूरी चारों तरफ़ थी। बेचारगी का भाव था सबके चेहरे पर। निस्सहाय ढंग से दुनिया देखी जा रही थी। चारों तरफ़ जो लोग आ-जा रहे थे वो वही थे जो दूसरे उद्योगों के मुद्दे पर टीवी में ख़बर चलाते हैं। लेकिन उस दिन हर कोई जानता था कि किसी टीवी चैनल पर यह ख़बर नहीं चलने वाली।
कोई मीडिया समूह अपने दर्शकों/पाठकों को ये नहीं बताएगा कि लगभग 350 पत्रकारों को झटके में एक ही समूह के दो बड़े टीवी चैनलों ने जबरन 'त्यागपत्र' दिलवा कर नौकरी से निकाल दिया। लेकिन जिनको निकाला गया उनके मुंह से प्रतिरोध का एक शब्द नहीं निकला। सैंकड़ों पत्रकारों में से किसी ने भी मैनेजमेंट के बनाए गए त्यागपत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार नहीं किया! वजह क्या है? किस चीज़ का डर है? दैनिक भास्कर ने हाल ही में दिल्ली की एक पूरी टीम को निकालने का फ़ैसला लिया। ठीक इसी तरह उसमें भी त्यागपत्र तैयार किया गया था। 16 में से दो पत्रकारों, जितेन्द्र कुमार और सुमन परमार, ने उस पर हस्ताक्षर नहीं किए। भास्कर ने उन दोनों को 'निकाल' दिया। फ़र्क सिर्फ़ इतना रहा कि उन दोनों को बाक़ी पत्रकारों की तरह अगले कुछ महीनों का अग्रिम वेतन नहीं मिल सका, जो कि उस हस्ताक्षर से मिल सकता था। अब इन दोनों ने मामले को कोर्ट में खींचा है। शायद, टीवी-18 के इन दोनों चैनलों के पत्रकारों को 'त्यागपत्र देने' और 'निकाले जाने' का ये नज़ीर मालूम हो।
मीडिया उद्योग में प्रबंधन के ऐसे किसी भी फ़ैसले पर न तो भुक्तभोगी पत्रकार और न ही उस फ़ैसले से बच गए ईमानदार पत्रकार (बॉस के यसमैनों और प्रो-मैनेजमेंट पत्रकारों को छोड़कर) अपनी ज़ुबान खोलने की स्थिति में दिखते हैं। कारण साफ़ है। बीते कुछ वर्षों में, ख़ासकर टीवी न्यूज़ चैनलों के उगने के बाद से, मीडिया हाऊस के भीतर प्रबंधन के ख़िलाफ़ किसी भी तरह की आवाज़ को बर्दास्त करने का चलन ख़त्म हो गया है। अपनी तमाम खूबियों और क्षमताओं के बावजूद मीडिया हाऊस में टिकने की गारंटी बॉस की गुडबुक में नाम लिखा देना ही होता है। किसी भी तरह की यूनियन की सुगबुगाहट को मीडिया के भीतर तकरीबन अपराध जैसा घोषित कर दिया गया है। यूनियन को ख़त्म करने की प्रबंधन की चाह को ऊपर के पदों पर बैठे पत्रकारों/संपादकों का भी लगातार समर्थन हासिल हुआ है।
जिस दिन आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन के पत्रकारों ने सुबह-सुबह लालक़िले से प्रधानमंत्री के रस्मी संबोधन और ठीक उसके बाद गुजरात से नरेंद्र मोदी के 'ओवर-रेटेड' भाषण के साथ भारत की स्वाधीनता की सालगिरह मनाई, तो उनमें से कई लोगों को मालूम नहीं था कि इस स्वाधीनता के ठीक बाद का अगला दिन, यानी 16 अगस्त 2013, भारतीय टीवी उद्योग के काले दिनों की सूची में शामिल होने वाला है। उनको ये नहीं मालूम था कि उनके 'त्यागपत्र' की चिट्ठी कुछ इस तरह तैयार हो चुकी है कि उस पर उसी दिन हस्ताक्षर करके झटके में सड़क पर आ जाना है। ईएमआई पर जो गाड़ी ख़रीदी थी उसकी क़िस्त के पैसे का स्रोत इस तरह अचानक बिला जाएगा, ये शायद उसने नहीं सोचा था। और वो, जो गर्भवती थीं और अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लगातार डॉक्टर के संपर्क में थीं, उनको नहीं मालूम था एक ट्रॉमा जैसी स्थिति की शुरुआत उसी दिन हो जाएगी।दूसरी बात ये कि न्यूज़रूम के भीतर चापलूसी की संस्कृति लगातार पसरती गई और प्रबंधन से रिसकर आने वाले लाभ में हिस्सेदारी के लिए क्रमश: ऊपर से लेकर नीचे के लोग कोशिश करने में जुट गए। ऐसे हालात में जाहिर तौर पर पत्रकारों के भीतर से मज़दूर चेतना लगभग ग़ायब हो गई। नहीं तो, मानेसर में मारुति-सुज़ुकी के मज़दूरों की तरह आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन के भी पत्रकार तंबू डालकर बाहर धरने पर बैठ जाते!
लेकिन मामला इतना सपाट भी नहीं है। मसला ये है कि जिस तरह पिछले सितंबर में एनडीटीवी से निकाले गए 50 से ज़्यादा पत्रकार, दैनिक भास्कर से 16 पत्रकारों, आउटलुक समूह की तीन पत्रिकाओं (मैरी क्लेयर, पीपुल इंडिया और जियो) के बंद होने से पीड़ित 42 पत्रकार झटके में बेरोज़गार हुए, वो अपनी बाक़ी की ज़िंदगी कहां गुजारेंगे? क्या वो पत्रकारिता को अलविदा कह देंगे? शायद नहीं। वो एक ग्रुप से दूसरे ग्रुप का रुख करेंगे। वो उस समूह में कोशिश करेंगे, जहां उन्हें लगेगा कि नौकरी की गुंजाइश शेष है। बस यहीं पर दोतरफ़ा मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। पहला, अगर दूसरे समूह में नौकरी करनी है तो उसके प्रबंधन को लड़ाकू पृष्ठभूमि वाले पत्रकार की डिग्री आपके रिज़्यूमे के साथ नहीं चाहिए। सो अपने रिज़्यूमे को दुरुस्त रखने के लिए आपको ऐसे किसी भी प्रतिरोध से ख़ुद को हर संभव अवसर तक बचाए रखना ज़रूरी है। दूसरा, जिसे आप 'दूसरा समूह' समझ रहे हैं, असल में उनमें से कई 'दूसरा' है ही नहीं।
मीडिया कॉनसॉलिडेशन, मर्जर और क्रॉस मीडिया ओनरशिप का जो पैटर्न भारत में है उसमें निवेशकों को ये छूट मिली हुई है कि वो एक साथ कई चैनलों, अख़बारों, पत्रिकाओं, पोर्टलों, रेडियो और डीटीएच में पैसा लगा सके। मुकेश अंबानी जैसे बड़े निवेशकों ने तो मीडिया में गुमनाम तरीके से निवेश का नया अध्याय शुरू किया है, जिसमें वो अपने दूसरे भागीदारों के मार्फ़त पैसा लगाते हैं। जिन दो चैनलों में निकाले गए पत्रकारों से बात शुरू की गई थी, उसमें भी अंबानी के निवेश का क़िस्सा दिलचस्प है। 2007-08 में जब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी की नीतियों के दबाव में अमेरिकी कंपनी ब्लैकस्टोन ने इनाडु समूह की फादर कंपनी उषोदया इंटरप्राइजेज में से अपने 26 फ़ीसदी शेयर खींच लिए, तो इस कंपनी की हालत बेहद पतली हो गई थी। तभी जे एम फायनेंसियल के अध्यक्ष नीमेश कंपानी ने ई टीवी चलाने वाली उषोदया इंटरप्राइजेज में 2,600 करोड़ रुपए लगातर कंपनी को डूबने के बचा लिया। बाद में पता चला कि कंपानी के मार्फ़त यह निवेश असल में अंबानी का है। दरअसल मुकेश के साथ नीमेश कंपानी का पुराना संबंध है।
रिलायंस के बंटवारे के बाद जब पेट्रोलियम ट्रस्ट बनाया गया तो नीमेश कंपनी और विष्णुभाई बी. हरिभक्ति उसके ट्रस्टी थे। नागार्जुन फायनेंस घोटाले के बाद जब नीमेश कंपानी को ग़ैर-जमानती वारंट निकलने के कारण देश छोड़कर भागना पड़ा, तब जाकर मालिक के तौर पर अंबानी का नाम खुलकर सामने आया। बाद में टीवी-18 के मालिक राघव बहल ने मुकेश अंबानी से उस ईटीवी समूह को ख़रीद लिया। इस ख़रीद पर 2,100 करोड़ रुपए ख़र्च करने के बाद बहल पर आर्थिक बोझ इतना ज़्यादा हो गया कि उनके पुराने चैनल, आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन सहित सीएनबीसी आवाज़ को चलाने में दिक़्क़त आने लगी। जब इस बोझ ने राघव बहल को पस्त कर दिया, ठीक तभी मुकेश अंबानी ने एक बार फिर एंट्री मारी और इसमें 1,600 करोड़ रुपए लगाकर समूह को बचा लिया। यानी पहले अंबानी ने ईटीवी ख़रीदा फिर उसे राघव बहल को बेच दिया और राघव बहल को जब टीवी-18 को चलाने में मुश्किलें आने लगीं तो उसमें फिर पैसे लगा दिए! इसके बाद राघव बहल ने सार्वजनिक तौर पर दावा किया था कि अब उनका समूह बुलंद स्थिति में पहुंच गया है। पूरी घटना को महज डेढ़ साल हुए हैं। इस डेढ़ साल में ही टीवी-18 समूह ने कटौती के नाम पर पत्रकारों को निकाल दिया!
अब सवाल है कि पत्रकारों के निकाले जाने के कारण क्या हैं? जो दावे छनकर लोगों तक पहुंच रहे हैं उनमें कुछ निम्नलिखित हैं-
टीवी-18 समूह घाटे में है और कंपनी इससे उबरना चाहती हैं।
ट्राई ने अक्टूबर 2013 से एक घंटे में अधिकतम 10 मिनट व्यावसायिक और 2 मिनट प्रोमोशनल विज्ञापन दिखाने का दिशा-निर्देश दिया है। लिहाजा टीवी चैनल का राजस्व कम हो जाएगा।
हिंदी और अंग्रेज़ी में एक ही जगह पर रिपोर्टिंग के लिए अलग-अलग पत्रकारों (संसाधनों) को भेजने से लागत पर फ़र्क़ पड़ता है जबकि कंटेंट में कोई ख़ास बढ़ोतरी नहीं होती।
सच्चाई ये है कि ये तीनों ही झूठे और खोखले हैं। टीवी-18 की बैलेंस शीट पहले दावे को झुठलाती है। वित्त वर्ष 2012-2013 में टीवी-18 समूह को 165 करोड़ रुपए का सकल लाभ हुआ है। बीते साल यही आंकड़ा 75.9 करोड़ रुपए का था। यानी एक साल में इस समूह ने अपना मुनाफ़ा दोगुना कर लिया है। 1999 में जब सिर्फ़ सीएनबीसी-18 और सीएनबीसी आवाज़ चैनल थे तो इस समूह का कुल राजस्व महज 15 करोड़ रुपए का था। 2005 में आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन की शुरुआत के समय इसका कुल राजस्व 106 करोड़ रुपए का था। यानी 10 साल पहले इस समूह का जितना राजस्व था उससे ज़्यादा मुनाफ़ा इसने अकेले बीते साल कमाया है।
यह तर्क अपने-आप में खोखला है कि इन दोनों चैनलों पर लागत कम करने की ज़रूरत कंपनी को महसूस हो रही है। 2005 में 106 करोड़ रुपए वाली कंपनी का राजस्व इस समय 2400.8 करोड़ रुपए है। 24 गुना विस्तार पाने के बाद अगर मालिक (मैनेजमेंट) की तरफ़ से घाटे और कटौती की बात आ रही है तो झूठ और ठगी के अलावा इसे और क्या कहा जा सकता है? दिलचस्प ये है कि ये सारे आंकड़े खुद अपनी बैलेंस शीट में टीवी-18 समूह ने सार्वजनिक किए हैं। जहां तक ऑपरेटिंग लॉस की बात है, तो वो भी पिछले साल के 296 करोड़ के आंकड़े से घटकर 39 करोड़ रुपए पर आ ठहरा है। यानी लागत में और ज़्यादा कटौती की कोई दरकार काग़ज़ पर नज़र नहीं आती। अगर हम इस समूह के मनोरंजन चैनलों को हटा दें और सिर्फ़ सीएनबीसी टीवी18, सीएनबीसी आवाज़, सीएनएन-आईबीएन और आईबीएन-7 की बात करे, तो भी आंकड़े मैनेजमेंट की दलील से मेल नहीं खाते। वित्त वर्ष 2011-12 में इन चारों चैनलों को टैक्स चुकाने के बाद 9.2 करोड़ रुपए का मुनाफ़ा हुआ था जबकि यही आंकड़ा 2012-13 में घटने की बजाय बढ़कर 10.2 करोड़ रुपए जा पहुंचा। कहां है घाटा? कहां है कटौती की दरकार?
अब आते हैं दूसरे दावे पर। ट्राई ने जब चैनलों को विज्ञापन प्रसारित करने के संबंध में दिशा-निर्देश जारी किया तो उसमें ये साफ़ कहा गया था कि यह कोई नया क़ानून नहीं है, बल्कि केबल टेलीविज़न नेटवर्क्स रूल्स 1994 के तहत ही वो चैनलों को ये हिदायत दे रहा है। इससे महत्वपूर्ण यह है कि ट्राई ने साल भर पहले ही सारे चैनलों को ये चेतावनी दे दी थी कि वो यह बाध्यता लाने जा रहा है। अक्टूबर 2013 से ट्राई ने इसे किसी भी हालत में लागू करने की बात कही थी। लेकिन चैनलों की संस्थाओं की तरफ़ से सूचना प्रसारण मंत्रालय में लगातार संपर्क साधा गया और ताज़ा स्थिति ये है कि मंत्रालय सिद्धांत रूप से इस बात पर तैयार हो गया है कि इसे अक्टूबर 2013 से टालकर दिसंबर 2014 कर दिया जाए। इस समय न्यूज़ चैनलों में एक घंटे में औसतन 20-25 मिनट तक विज्ञापन दिखाए जाते हैं। अब सवाल ये है कि चैनलों को इस पर आपत्ति क्या है? पहली आपत्ति ये है कि चूंकि भारतीय टेलीविज़न इंडस्ट्री का रेवेन्यू मॉडल कुछ इस तरह का है कि इसकी 90 फ़ीसदी आमदनी का स्रोत विज्ञापन है। सिर्फ़ 10 प्रतिशत आमदनी सब्सक्रिप्शन से आ पाती है।
इस व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए डिजिटाइजेशन का विकल्प लाया गया। इसमें तकरीबन हर टीवी चैनल की स्वीकृति हासिल थी। डिजिटाइजेशन का एक चरण पूरा हो चुका है और दूसरे चरण का काम दिसंबर 2014 तक ख़त्म करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। डिजिटाइजेशन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद आमदनी के लिए चैनलों की निर्भरता विज्ञापन पर कम हो जाएगी और सब्सक्रिप्शन से होने वाली आय ज़्यादा हो जाएगी। शायद डिजिटाइजेशन पूरी नहीं होने की वजह से ही मंत्रालय ने दिसंबर 2014 तक ट्राई के फैसले को टालने की बात कही है, क्योंकि यही डिजिटाइजेशन की भी डेडलाइन है। अब अगर विज्ञापन में 12 मिनट की कड़ाई का नियम अगले डेढ़ साल के लिए टल जाता है तो इसको आधार बनाकर पत्रकारों को निकाला जाना सराकर बेईमानी और धोखा है। दूसरी बात, विज्ञापन की समय-सीमा कम होने से विज्ञापन की दर में भी उछाल आएगा और इस तरह 25 मिनट में जितने पैसे वसूले जाते हैं कम-से-कम उसका 70 फ़ीसदी पैसा तो 10 मिनट के विज्ञापन में वसूले ही जा सकते हैं।
अब तीसरा तर्क। पत्रकारिता के लिहाज से यह ऊपर के दोनों तर्कों के बराबर और कई मायनों में उससे ज़्यादा विकृत तर्क है। यह एक बड़ी आबादी का निषेध करता हुआ तर्क है जोकि द्विभाषिया नहीं है। यह भाषा को माध्यम के बदले ज्ञान करार दिए जाने का तर्क है। यह एक ऐसा तर्क है जिसका एक्सटेंशन प्रिंट में नवभारत टाइम्स का हुआ। हिंदी और अंग्रेज़ी में अलग-अलग पत्रकारों के बदले एक ही पत्रकारों से दोनों की रिपोर्टिंग और पैकेजिंग कराने की बात असल में उस भाषाई संस्कार और जातीयता को सिरे से दबा जाती है। भाषाई खिचड़ी का जो तेवर टीवी चैनलों ने अबतक हमारे सामने पेश किया है उसे और ज़्यादा गड्ड-मड्ड करने की कोशिश है ये। नवभारत टाइम्स का सर्कुलेशन इस प्रयोग से बढ़ने की बजाय घटा है। तो ऐसा नहीं है कि इससे लागत कम हो जाएगी। और इस मुद्दे पर तो कम-से-कम भाषाई विमर्श तक खुद को महदूद कर लेने वाले बड़े पत्रकारों/संपादकों को मुंह खोलना ही चाहिए। सीएनएन-आईबीएन और आईबीएन-7 की ये परिपाटी अगर बाज़ार में और ज़्यादा फॉलो की गई तो इसी तर्ज पर आज-तक और हेडलाइंस टुडे भी छंटनी कर सकता है।
मुकेश अंबानी या राघव बहल किसी भी तरह के घाटे में नहीं है। मीडिया अगर उनके लिए घाटे का सौदा होता तो मुकेश अंबानी अभी एपिक टीवी में 25.8 प्रतिशत शेयर नहीं ख़रीदे होते। इस नए चैनल में मुकेश के बराबर ही आनंद महिंद्रा ने भी 25.8 प्रतिशत शेयर ख़रीदे हैं। चार साल तक डिज़्नी इंडिया के हेड रहने वाले महेश सामंत इसकी कमान संभालने वाले हैं। सामंत साहब इससे पहले जॉनसन एंड जॉनसन कंपनी में लंबी पारी खेल चुके हैं। जाहिर है पत्रकारिता से उनका कोई वास्ता नहीं है। उनके लिए कंटेंट कैसे महत्वपूर्ण हो सकता है? पत्रकारों की चिंता उन्हें क्यों होगी? और ग़ौरतलब यह है कि भारतीय मीडिया उद्योग के लिए ऐसी मालिकाना संरचना कोई नई परिघटना नहीं है। 1950 के दशक में पहले प्रेस आयोग ने अपनी सिफ़ारिश में लिखा था, "अख़बारों का आचरण अब न तो मिशन और न ही प्रोफेशन जैसा रह गया है, यह पूरी तरह उद्योग में तब्दील हो चुका है। इसका मालिकाना हक़ अब उन लोगों के हाथों में आ गया है जिन्हें पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है, यहां तक कि कोई पृष्ठभूमि भी नहीं है। इसलिए उनका आग्रह अब किसी भी तरह की बौद्धिक चीज़ों में नहीं है, बल्कि वो ज़्यादा-से-ज़्यादा मुनाफ़ा बटोरना चाहते हैं।" (अध्याय-12, पेज 230)
जाहिर है ये मालिकानों की नीयत में आया बदलाव नहीं है। उनका ध्येय बिल्कुल साफ़ है। वो किसी भी हद तक जाकर अपना मुनाफ़ा बढ़ाना चाहते हैं। अब आख़िरी सवाल। जिन पत्रकारों की छंटनी हुई है उनकी चुप्पी का संदेश क्या है? एक कारण शुरू में ही बताया गया है कि मीडिया में प्रतिरोधी आवाज़ का मतलब बाकी मीडिया घरानों में भी अपनी संभावित नौकरी से हाथ गंवाना है। लेकिन, उनमें से कुछ फेयरवेल पार्टी के बाद सुख-दुख के भाव को तय नहीं कर पा रहे। बड़े पदों पर रहे लोगों को एकमुश्त 5-10 लाख रुपए मिल गए। इस स्थिति को कुछ लोग 'ठीक है' की शक्ल में टालना चाहते हैं। बाकी कुछ ऐसे लोग हैं जो चाहते हैं कि उनको लेकर विरोध तो दर्ज़ हो, लेकिन उसमें उनके हस्ताक्षर न हो। अपना पूरा जीवन मज़दूर विरोधी ख़बरों को लिखने-दिखाने में लगाने वाले ऐसे लोगों के साथ कोई हमदर्दी भी मुश्किल से दिखाई जा सकती है जोकि रैली या आंदोलन को 'जाम' के फ्लेवर में टीवी स्क्रीन पर परोसने में आनंद पाते हों। लेकिन इन सबके बावज़ूद अगर व्यापक चुप्पी बाहर वालों की तरफ़ से भी बरकरार रही तो ये साफ़ हो जाएगा कि पत्रकारों से ज़्यादा कमज़ोर, लोलुप और असुरक्षित क़ौम शायद इस देश में कोई नहीं है।
(दिलीप खान दखल की दुनिया ब्लाग के सह मॉडरेटर और पत्रकार हैं।)
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