पुरूषोत्तम कुईया
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सीहोर। पत्रकारो की दौ पीढ़ी के साथ काम करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अंबादत्त भारतीय जिले की पत्रकारिता के चलते फिरते शिक्षक थे। शुक्रवार आधी रात को उनका निधन हो गया। बाबा भारतीय से पहचान स्थापित करने वाले बाबा दो माह से काफी अस्वस्थ थे, सीहोर में भर्ती रहने के बाद दस दिन पूर्व ही अपने पेतृक गांव हाथ रस उत्तर प्रदेश स्वस्थ होने के लिए गये थे, लेकिन बाबा शुक्रवार को हाथरस में ही हमेशा के लिए प्रभू चरणों में चले गए।
सीहोर की पत्रकारिता में पिछले पांच दशकों तक उनका नाम हर छोटे बड़े की जुबान पर बना रहा। भोपाल से प्रकाशित समाचार पत्रों में कार्य करने के साथ ही स्वयं भी संपादन करते रहे। उनकी कलम को कभी विराम नही मिला। जिस किसी ने भी सुना कि अब बाबा नही रहे वह सभी स्तब्ध रह गए। पत्रकारिता के साथ साहित्य जगत ओर इतिहास जगत में अपनी मजबूत पकड़ के साथ वह सभी के प्ररेणा स्त्रोत बन कर जिए।
बाबा को कभी पत्रकारिता पुरूस्कार की चाह नही रही फिर भी उन्हे कई बार सम्मानित और पुरूस्कृत किया गया। बाबा का कहना था कि पत्रकार अच्छा लिखेगा तो वह तो दूसरे दिन ही जनता से पुरूस्कृत हो जाता है और यही पुरूस्कार सबसे बड़ा होता है। खबरों से कभी समझोता ना करने वाले बाबा को हर बार प्रशासन से परेशानी भी उठानी पड़ी तो अनेक बार प्रशासन के निकट भी रहे। यही कारण रहा कि प्रशासन के मुखियां भी उन्हें बाबा कह कर ही संबोधन देते थे।
भारतीय जी अपने माता-पिता के साथ सीहोर आए और शेक्षणिक कार्य में लगे रहे, महाविद्यालय से कई स्नात्तकोत्तर कक्षाए पास करने के बाद भी शिक्षा से वह उनका नाता नहीं तोड़ पाते थे। महाविद्यालयीन राजनीति में उनका एक नाम रजन भारती भी हो गया। जो लंबे समय तक राजनीति मे चलता रहा। उनके जीवन में कई उतार चढ़ाव भी आते रहे। परिवार से बिछुड़ कर अकेले रहे भारतीय मधुमेह के रोगी हो गए। इस रोग के चलते भी कभी उन्होने अपना जीवन व्यवस्थित नही किया। सीहोर से गहरा मोह होने के कारण यहां से गए नहीं और हमेशा यहीं के रह गए।
बड़ा चेहरा चोड़ा ललाट सिर पर अस्त व्यस्त बड़े बाल ओर लंबी खिचड़ी दाड़ी के साथ ही कुर्ते पजामें की अपनी पोशाक से उन्होंने सीहोर में अपनी नई पहचान बना ली थी। मधुमेह के पुराने रोगी होने के कारण अनेक बार अस्पताल में भर्ती हुए और ठीक होकर अपनी वहीं दिनचर्या में आ जाते। डाक्टर उन्हें सलाह देते कि इस रोग को देखते हुए वह अपनी दिनचर्या ठीक कर लें, लेकिन बाबा का ना तो खाने का ठिकाना था ना पहनने का ना सोने का। इस कारण बीमारी हावी होती रही और बाबा कमजोर होते रहे। पिछले साल से उनकी आंखे भी उनका साथ छोड़ गई थी। आवाज और निकटता से बह लोगों को पहचानते थे। हमेशा खुश मिजाज रहने वाले बाबा काम के भी इतने धुनी थे कि जिस काम में लग जाते उसे पूरा करके ही दम लेते। पत्रकारो की नई पीढ़ी को प्रशिक्षण देने और कार्यशाला लगवाने की पहली पहल उनकी ही थी।
इस बार उनकी तबियत ज्यादा बिगड़ी, मित्रों साथियों ने सहयोग किया, लेकिन इलाज के साथ देखभाल ज्यादा जरूरी थी, सो उन्होनें अपनी कर्म स्थली छोड़कर अपने छोटे भाई भजन के साथ जाना मुनासिब समझा और वह अपनी जीवन यात्रा के अंतिम समय में अपने पैतृक शहर हाथरस चले गए और शुक्रवार की आधी रात साढ़े तीन बजे उन्होंने अपनी जीवन की अंतिम सांस ली। सीहोर जिले की पत्रकारिता में बाबा ने जो आयाम स्थापित किए वह युगो युगो तक जिले की आने वाली पत्रकारों की पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन का काम तो करेंगे ही और बाबा भले ही आज इस संसार में नहीं हैं लेकिन उनका लेखन, उनकी दबंगता और उनकी सोच हमैशा के लिए अमिट रहेगी।
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