Monday, August 12, 2013

गिरता चरित्र बढ़ती निर्लज्जता

डॉ. शशि तिवारी
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‘‘मन चंगा तो कठोती में गंगा’’ दुनिया में सारा खेल मन से ही चलता है। मन से ही दुनिया, मन से हो रंग, मन जो न कराए थोडा ही है वैसे भी मन चंचल होता है पल में माशा तो पल में तोला बदलने  में देर नहीं लगती है। मन को काबू में रखने के लिए कृष्ण से महावीर एक महावीर से सन्तों ने मन को वश में करने के ढेरों उपाए बताए हैं लेकिन मन है कि मानता ही नहीं। हकीकत में देखा जाए तो मन जीता ही है इच्छाओं से, जब इच्छाएं ही नहीं रही तो मन भी चलता बनता है। मन पर नियंत्रण कठिन जरूर है लेकिन असंभव नहीं है। 

यह कार्य महावीर ने वर के दिखाया जहां इच्छा मन की दुश्मन है वही प्रीति मन की दोस्त सुमार्ग पर चाहने का पत्र हैं जिसमें सेवा भाव साध्य प्राप्त करने का केवल साधन मात्र हैं। दिक्कत तब शुरू होती है जब हम साधन को ही साध्य समझ बैठते है। आज सेवा के नाम पर बढता अनैतिक आचरण न केवल सेवा को कलंकित कर रहा है बल्कि साध्य को भी दूषित कर रहा है। आज वर्तमान में कुछ ऐसा ही हमारे आसपास दिन प्रतिदिन घटित हो रहा है। फिर बात चाहे राजनीति की हो या अन्य की। सेवा के नाम पर दाम वसूलते हैं। हमसे इतना नैतिक पतन हो गया है कि अच्छे-बुरे की समझ ही जाती रही। यहां मैं केवल राजनीति की ही बात बदली। राज की नीति के मार्ग पर चढाने के लिए जनता के द्वारा जनता का प्रतिनिधि की संकल्पना के पीछे जनता के मनोभाव मनःस्थिति के बेहतर समझ नीति के अनुरूप कार्य एवं विकास की मूल भावना शायद रही हो। निःसंदेह प्रारंभ में राजनीति में निःस्वार्थ भावना की सेवा रही थी लेकिन कालांतर में अब ये स्वार्थ सेवा में बदल एवं कार्पोरेट कल्चर का रूप ले मोटी-मोटी पगार, पेंशन ले जनता के खजाने पर न केवल डाका डाल रहे है बल्कि अनैतिक कार्यों से जनता को ही चूस रहे हैं। एंकर को सामंती समझने की समझ पिछले 30 वर्षों में न केवल विकसित फर्म है बल्कि इस कुमान सिमता की अर्विचार एवं कृ संस्कृति भी स्थापित हुई हैं।

                संविधान एवं जनता की दुहाई देने वाले जनप्रतिनिधियों ने जिस संविधान का अपमान किया है शायद ही किसी अन्य का किया हो। जो कार्य संसद, विधान सभाओं में सांसद-विधायकों को करना चाहिए वह काम आज न्याय का मंदिर अर्थात् सुप्रीम कोर्ट कर रही। फिर बात चाहे सुशासन के लिए सूचना के अधिकार की बात हो या दागियों को संसद के पवित्र मंदिर से दूर रखने की बात हो। यहां यक्ष प्रश्न यह उठता है आखिर में पैबल क्यों आई? क्या जन प्रतिनिधि अपने पथ से भ्रष्ट हो गए हैं? क्या मेें अपने को संविधान एवं कानून से ऊपर समझने लगते है। क्या सरकारी खजाना इनका अपना है? आखिर कैसे लूट, हत्या, बलात्कार के दागी। संविधान के मंदिर में पहुंचे? आखिर क्यों राजनीतिक पार्टियों ने इन दागियों को बढावा दिया। क्या ये भी इस पात्र में बराबर के भागीदार नहीं हैं? अब देखना यह है कि सुपी्रट कोर्ट के आदेश ले कितने बेशर्म और हो सकते हैं। कितना दुस्ससाहस और कर सकते हैं।

                जिन बातों की वर्जमाएं भारत के संविधान में हैं उन्हें तोड़ने एक करने की सभी राजनीतिक पार्टियों में एक होड सी लगी हुई हैं फिर बात चाहे, समान अवसर की हो, जाति, धर्म, लिंग के आधार पर भेद न करने की हो।

                न्याय के मंदिर के हालिया दो निर्णय अदालत से दोषी ठहराये गए। सांसद विधायक को अगर दो वर्ष से ज्यादा की सजा हो गई तो वे अयोग्य हो जायेंगे एवं उनकी सीट खाली घोषित हो जाएगी जो दोषी सांसद विधायक जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) के कारण बचे हुए थे अब उनका भी बोरिया बिस्तर बांधने का समय आ गया। दूसरा जाति धर्म आधारित के आधार पर लोगों को बांटने के लिए तरह-तरह के अपनाते हथकण्डे रैली सभाओें पर प्रतिबंध। राजनीति के इतिहास में समिति का पत्थर साबित होगा।

                अब वक्त आ गया है कि राजनीतिक पार्टियों को धन कर्म छोड़ सुनीति के लिए न केवल स्वयं समुद्र मंथन वरल होगा बल्कि विष निकलने पर विषपान भी करना होगा। यही प्रकृतिक का भी एवं धर्म का भी नियम हैं।

                वर्तमान में 4807 सांसद/विधायकों में से 1460 के खिलाफ आपराधिक प्रकरण चल रहे है इस तरह 24 प्रतिशत सांसद एवं 31 प्रतिशत विधायक बागी है जिन पर गंभीर अपराध दर्ज हैं। सभी राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरूद्ध लामबद्ध हो दागियों के समर्थन में खड़े हो अब नियमों में शीघ्र बदलाव करने में जुट गए हैं जो लोकतंत्र के मंदिर में अलोकतांत्रिक गतिविधियों को बढाने की मनमानी का लोकतंत्र के इतिहास पे यह सबसे निकृष्ट कृत्सित प्रयास सिद्ध होगा। जब सुप्रीम कोर्ट को मानना ही नहीं हैं तो सीधे-सीधे अपने को नियम कानून से परे होने का बिल ही क्यों पास नहीं करा लेते। आखिर जनतंत्र एवं मालिक अर्थात् जनता को यह पता तो चले कि उसके सेवक कितने पावरफुल एवं स्वार्थी हैं। नियम मालिक अर्थात् जनता एवं नौकरशाही के लिये होते है लोकशाही के लिए नहीं।

                अब जब राजनीतिक पार्टियों को यह पूरा विश्वास हो गया है कि लोकतंत्र दागियों के बिना चलाना संभव नही है तो क्यों नहीं भाईयों और डॉन लोगों के मुकदमें वापस ले लोकतंत्र के मंदिर को उनके हवाले कर दिया जायें। मंशा स्पष्ट होना चाहिए दिन प्रतिदिन बढते दागियों की संख्या भारत में एक ज्वलंत बहस का मुद्दा होना चाहिए।352

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