असल जन-आन्दोलन तब होता है
जन-जन जब
भ्रष्ट आचार से मुक्त होने का
अभीप्सु होता है...
लोक जन को
सन्देश लिख भेजना काफ़ी नहीं
अंतर्मन से खुद को
निर्मल होना होता है....
हर पल सार्थक प्रयास होती जब हर पहल
तब कहीं जाकर भास्कर सा चरित्र
दैनिक जीवन में उदय होता है...
चंद नेताओं-अफसरों-बाबुओं पे
ठीकरे फोड़ देने से क्या होता है
बबूल हो दिल में
तो आदमी आम कहाँ होता है...
खोखले नारे नाकाफ़ी हैं
अन्ना के और हजारों के
जनता है जैसी
वैसा ही तो जन-तंत्र होता है...
किस-किस के पुतले जलाएंगे आप जनाब
यहाँ तो घर-घर में एक रावण होता है...
जला ले जो खुद को अपनी ही आग में
वो राम तो जाने कहाँ सोता है...
दुहाई देता फिरता है मज़बूरी की यहाँ हर कोई
दलालों और दलीलों से ही तो तू मगर मनमोहन होता है...
रिश्वत लेता-देता फिरे है जब तू बेशर्मी से
लेते-देते राजा हो जाए कोई
तो फिर क्यों तू दहाड़े मार रोता है...
समझा...
समझा...के समझते हो खुद को तुम छोटे-मोटे घपलेबाज फकत
बड़ा चोर तो वो जो पकड़ा जाए
या फिर
कलमाड़ी सा जिसका बैंक बैलेंस होता है...
चोरी फिर चोरी है
चाहे दो रूपये की हो या खरब की
याद रख...
लाखों के चढ़ावों से भी
गुनाह ना तेरा एक कतरा भी कम होता है...
दाऊद भोगता गर नरक अपना
जलते हुए पाकिस्तान में
तो तू भी जलता है रोज कश्मीर की तरह
चैन से लेकिन रात को
ना तू ना वो सोता है...
दो पेग लगा कर सोचता है तू
की नींद आ गई
ठीक भी है...
की बेहोशी को खुद का कब होश होता है...
पैसा ही तेरा खुदा है जब
तो मंदिर जा जा कर तू
उस पत्थर के आगे क्यों भिखारियों सा रोता है...
शायद...अन्दर ही अन्दर डर है तुझे
की सचमुच में कहीं कोई खुदा हुआ तो..??
फिकर ना कर..
वो दो आना जो तेरी जेब में है मौजूद
वही तो बिडला के मंदिर में होता है...
जा भाई जा...
सड़क चुरा, बिजली चुरा, पानी चुरा
कर बचा, जान बचा, धन बचा
ज़र खरीद, ईमान खरीद, ज़मीन खरीद
जोरू बेच, धर्म बेच, सपने बेच
राडिया को पटा
टाटा को हटा
खुद को बिठा
सम्बन्ध बना
फिर उनको भुना
किसी और के हक पे रोटी तेरी सिक जाए तो
देर रात तक जश्न मना...
ऐश को बुला
मजमा लगा
बेब्स को नचा...
जो करना हो कर...
क्यूँ खाली-पिली मगर नकाब तू ये ओढ़ता है
फ़ोकट में कायेकू तू अन्ना के संग मरता है
अन्ना तो चिरकाल से अनशन करता जंचता है
और फिर...
वो तो सत्य के लिए लड़ता है
पर तू क्यूँ भरी जवानी में यूँ मरता है
क्या कहा...??
कुछ बन जाने का, कुछ हो जाने का नाटक है ये भी...??
दूसरों को गिरा खुद को उठाने की कवायद है ये भी...??
वाह भाई वाह..!!
मान गए उस्ताद...!!
इसे ही तो कहते हैं कलयुग का नायक - कलिनायक
चलो कोई नहीं जी...
इसी बहाने कुछ सर तो कटेंगे
कुछ नए सर तो उठेंगे
कुछ तो
नया होगा कर गुजरने को
क्रिकेट देख-देख वैसे भी बोर हो चुके हैं
सारे देश घुल-मिल जाएँ एक रंग में
तो मन को जंग सा मजा नहीं आता
ये खेल लेकिन जरा हट के है
ना कोई जीतता है
ना कोई हारता है
भारत बस..जार जार रोता है
तो क्या हुआ
रोने दो...
सदियों से भारत में यही तो होता है
सदियों से भारत में यही तो होता है...
Man is bad case....isnt it?
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