Sunday, August 26, 2018

सहज संवाद : चरम पर स्थिर रहने हेतु आवश्यक होता है निरंतर धनात्मक परिवर्तन

सहज संवाद / डॉ. रवीन्द्र अरजरिया
सहज संवाद / डॉ. रवीन्द्र अरजरिया
जीवन की आपाधापी में बदलते समय का पता ही नहीं चलता। अतीत से जुडे स्पन्दन जब स्मृतियों के दरवाजे से वर्तमान में दस्तक देते हैं तब अहसास होता है कि हमने जिन्दगी का कितना लम्बा सफर तय कर लिया है। व्यक्तियों की सोच बदली. मापदण्ड बदले और बदल गई तकनीक। एक जमाना था जब रेडियो सुनने के लिए लोगों का जमावडा होता था।
निर्धारित प्रसारण कालयोजनावद्ध कार्यक्रम और सजगता के साथ कार्यक्रमों का निर्माणसभी कुछ तो अनुशासन के अनुबंध में था। त्रुटि के लिए लम्बी जांच प्रक्रिया से गुजर कर उत्तरदायी व्यक्ति को दण्ड का प्रविधान। तब आज की तरह नियम-कानून को ताक में रखकर किसी बडे की शह पर मनमानी करनी छूट नहीं थी। रेडियो को हाशिये के बाहर भेजने की लाख कोशिश करने के बाद भी टेलीवीजन को आशातीत सफलता नहीं मिली। वाहनों से लेकर खेत-खलिहान तक रेडियो का अस्तित्व बना हुआ है। मन में विचारों का क्रम चल रहा था कि तभी काल बेल ने अवरोध उत्पन्न किया।
गेट खोला तो सामने सरकारी सेवा से मुक्त हुए पुरुषोत्तम दास पाठक जी हाथ में थैला लिए हुए नजर आये। हमने अभिवादन किया और उन्हें आदर सहित ड्राइंग रूम में ले आये। हमें पता था कि वे आज भी रेडियो के नियमित श्रोता ही नहीं बल्कि विषय विशेषज्ञ भी हैं। नौकर ने पेडे की प्लेट और पानी के गिलास टेबिल पर रख दिये। कुशलक्षेम पूछने-बताने की औपचारिकतायें पूरी की और हमने अपने मन में चल रही सोच से उन्हें अवगत कराया। उन्होंने एक लम्बी सांस भरी और पुरानी यादें में खो गये जब महाराजा क्लब के प्रभारी नन्ने खां की मेहरवानी से रेडियो सुनना नसीब होता था। सन् 1960 में सरकारी नौकरी लगे ही रेडियो खरीदने का शौक पूरा करने की ठान ली।
बिलायत का बना हुआ रेडियो किस्तों में खरीदा जिसकी कीमत 750 रुपये और वेतन मात्र 79 रुपये। शौक तो आखिर शौक ही होता है। यही शौक आगे चलकर संगीत से लेकर वार्ताओं के अखिल भारतीय कार्यक्रमों तक के समीक्षक की मान्यता के रूप में स्थापित हुआ। हमें तब से लेकर अब तक के होने वाले परिवर्तनों का जानकारी हासिल करने में रूचि थी और वे अपने अतीत की गहराइयों में बहुत नीचे तक डूबे हुए थे। आखिरकार हमने उन्हें वर्तमान की चेतना का अहसास करते हुए अपनी वास्तविक जिग्यासा से अवगत कराया। एक क्षण के लिए उनके कंठ ने विश्राम लिया।
तब का जमाना और था। अब तो बस धनार्जन होना चाहिये। उसेक लिये कोई भी रास्ता क्यों न अख्तियार करना पडे। पहले गीत लिखे जाते थेउनकी सरगम बनती थीवाद्य यंत्रों का संयोजन किया किया जाता था और अन्त में अनुकूल गायकी के लिए उपयुक्त गायक की तलाश की जाती थी। इस कडी मेहनत का परिणाम भी बेहद अनुकूल होता था। इसका प्रमाण आल इण्डिया रेडियो की उर्दू सर्विस के प्रातःकालीन फरमाइशी प्रोग्राम में आज भी देखने को मिलता है जहां पुराने गीतों के लिए देश से ज्यादा विदेशों से फरमाइशें आती हैं। खासकर पाकिस्तान के श्रोताओं की संख्या सर्वाधिक होती है। संगीत जगत में डूबते ही वे फिल्मी धुनों पर केन्द्रित होने लगे।
इस क्षेत्र विशेष की गायकी ने भी उल्टा खडा होना शुरू कर दिया। पहले गीत और फिर सरगम के क्रम ने विपरीत दिशा में बढना शुरू कर दिया है। अब गायक के लिए धुन और धुन के लिए गीत लिखे जाते हैं। रागों पर आधारित सरगम कहीं खो सी गयी है। टूटने लगा है संगीत से भावनाओं का नाता। इसे बचाने के लिए अभिनव पहल की महती आवश्यकता है अन्यथा आक्रान्ताओं के आक्रोश में जल चुके सांस्कृतिक दस्तावेजों की तरह हमें भविष्य में अपनी ही पहचान ढूंढना पडेगी। उनकी आंखें अन्तरिक्ष में कुछ खोजने लगीं। रेडियोउससे विस्फुटित होते स्वर और उसमें ध्यान की अवस्था तक खो जाने का उतावलापन एक साथ नजर आया। शब्द तूलिका से मन के कैनवास पर सटीक चित्रांकन में सक्षम था रेडिया।
खेल की कमेन्ट्रीआंखों देखा हाल और सीधा प्रसारण सहित अनेक कार्यक्रमसटीक शैली और प्रस्तुतीकरण से हू-ब-हू वातावरण निर्मित कर देते थे। वर्तमान समय में वास्तविक अर्थ कहीं खो से गये हैं। लोकप्रियता को लम्बे समय तक कायम रखने के लिए निरंतर धनात्मक परिवर्तन की आवश्यकता होती है ताकि विविधता की सतरंगी आभा तले नीरसता की शाम दस्तक न दे सके। रेडियो ने भारतीय मूल्यों के सजग प्रहरी के रूप में कर्तव्यों का निर्वहन किया है। आज किन्हीं खास कारणों वे इस दिशा में ही हास होने लगा हैयह चिंतनीय विषय है।
प्रधानमंत्री द्वारा मन की बात’ के लिए रेडियो को माध्यम बनाने से वे काफी आशावान लगे कि शायद इसी बहाने रेडियो अपनी कम होती लोकप्रियता को पुनः प्राप्त कर सके।  बात चल ही रही थी कि काफी के साथ नमकीन की ट्रे लेकर नौकर ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया। अवरोघ आते ही निरंतरता में रूकावट पैदा हुई। हमें अपनी जिग्यासा का लगभग समाधान मिल गया था। सो विस्तार से चर्चा के लिए अगली भेंट का निर्णय लिया। इस बार बस इतना ही। अगले हफ्ते एक नयी शक्सियत के साथ फिर मुलाकात होगीतब तक के लिए खुदा हाफिज।

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