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ब्यूरो चीफ गाडरवारा, जिला नरसिंहपुर // अरुण श्रीवास्तव : 91316 56179
साहित्यकारों के भीष्म पितामह के नाम से नवाजे जाने का जो सुख उन्हें प्राप्त होता था वह सुख शायद स्वर्ग आधिपत्य से भी प्राप्त न होता हो। क्षेत्र में साहित्यिक गतिविधियों पर वह अपना एकाधिकार समझते थे हर कार्यक्रम की अध्यक्षता मानो उनकी बपौती थी। नौनिहाल नवागत साहित्यकार उनकी जागीर थी। अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से वह साहित्यकारों को मोहने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ते थे, उन्हें शिखर तक ले जाने लाने का मानो एकमात्र रास्ता उन्हीं के दर से होकर गुजरता था। वह साहित्य के पुरोधा थे अथवा नहीं यह तो नहीं जानते मगर इतना तय है कि साहित्य नगरी के लाल बुझक्कड़ अवश्य थे।
वह किसी एक विधा के मर्मज्ञ बनने की अपेक्षा सर्वकालीन सर्व विधाओं के सर्वज्ञ बनने में ज्यादा विश्वास रखते थे। कोई भी साहित्यकार जो उनसे किसी विधा के बारे में समझना चाहे तो वह बगैर रुके अपनी राय परोसने में कभी पीछे नहीं हटते -
"ऊपर हेडिंग हो डली भीतर कुछ भी होए।
छंद ग़ज़ल सब एक हैं शब्द बराबर होए।।"
आखिर वह साहित्य के भीष्म पितामह थे, इस बात को उन्होंने सार्थक करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी उन्होंने नीति-अनीति न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म को कभी आड़े नही आने दिया। वे हस्तिनापुर की हस्ती बने रहें हस्तिनापुर रहे या ना रहे यह उनकी मानसिकता में शुमार था। अच्छे साहित्य और साहित्यकारों को तवज्जो देने की वजाय उन चाटुकारों को महत्व दिया करते जो उनकी जय जयकार कर सकें, जो उनसे ज्यादा बेहतर न लिख सकें, जो अपनी पहली किताब छपवाने में अपनी गाढ़ी कमाई उन्हें परोस सकें। कृष्ण से ज्यादा कर्ण के हमेशा पक्षधर रहे। उन्होंने नेतृत्व को भी एक विधा के रूप में ही स्वीकार किया और जब बात विधा की हो तो पीछे हटना धर्म संगत नही।
वह साहित्य से कहीं ज्यादा सौंदर्य के भी उपासक रहे वे रचनाकारों की रचनाओं की वजाय उनके रूप सौंदर्य को विशेष महत्व दिया करते थे। आखिर क्यों न दें वह सर्व विधाओं के सर्वज्ञ जो थे। श्रंगार और प्रेम उन्हीं विधाओं में से तो एक है । एक दूसरा कारण भी महत्वपूर्ण रहा द्वापर युग में जिस प्रेम से महरूम रहे भीष्म, अब वह गलती नहीं दोहराना चाहते थे। अब वह हर उस मौके की तलाश में होते थे कि जो गलती उन्होंने गंगा पुत्र होने के नाते की अब वह कलयुग में दोहराई न जाय। उनकी तारीफ में अपने साहित्य तुणीर के समस्त शब्द बाणों से अभेद्य अचूक निशाना साधते रहते और उस वक्त तक वार करते रहते जब तक कि सौन्दर्य उनके शब्द बाणों से घायल न हो जाये।
पितामह कहलाना कल तक उन्हें अच्छा लगता था आज वही मन ही मन खलने लगा। पितामह शब्द से वुज़ुर्ग होने का आभास होने लगा जो उन्हें कम से कम अब तो गवारा नहीं। विद्युत और चुंबक विज्ञान के नियमों का भी उन्होंने कभी उल्लंघन नहीं किया अक्षरसः नियमों का पालन करते हुए सजातीय धुर्वों में प्रतिकर्षण और विजातीय धुर्वों में आकर्षण का अनुपालन जिंदगी भर करते रहे। जब भी बारी सौंदर्य की आई तो बरबस झुकाव एक तरफा हुआ और अपना भार कम करते हुए सौंदर्य के पलड़े को भारी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आखिर उन्होंने विज्ञान के नियमों को भी शायद किसी छंद विधा के नियम ही माना होगा इसीलिए तो नियमों से हटकर वह कभी नहीं भागे।
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