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डा. रवीन्द्र अरजरिया
संभावनाओं की तराजू पर प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला करने वालों की चौपालें सजने लगीं हैं। अधिकांश उम्मीदवारों को जीत की बधाई देने वालों से खुशियां मिलने लगीं हैं। शुभचिन्तकों और स्वजनों की भीड अभी से बैठकों में चाय के प्यालों के साथ गर्मागर्म समीकरणों की जुगाली करने में व्यस्त हैं।
स्वयं की जीत का भरोसा पाकर चुनावी जंग में कूदे महारथी फूले नहीं समा रहे हैं परन्तु शंका की गलन गर्म कपडों के अन्दर भी सिहरन पैदा कर जाती है। कहीं जातिगत आंकडों की शह पर प्रतिद्वन्दियों को मात देने की दम भरी जा रही है तो कहीं असंतुष्टों का साथ मिलने का दावा किया जा रहा है। कई स्थानों पर तो मिठाई और पुष्पगुच्छ भेंट करने वालों की भीड देखी जा रही है। वास्तविकता तो यह है कि मतदाता का मन भांप पाना और उस पर प्रमाणित रूप से कुछ कह पाना फिलहाल मृगमारीचिका के पीछे भागने जैसा ही है।
विधानसभाओं की राजनैतिक विसात पर जीत का दाव लगाने वालों को इस चुनाव में व्यक्तिगत छवि पर ही वोट मिले हैं। पार्टी का प्रभाव अपेक्षाकृत बेहद कम रहा। असंतुष्ट खेमा भी इस बार पर्दे के पीछे से खासा सक्रिय रहा। टिकिट वितरण से लेकर सत्ताधारी दल के मुख्यमंत्रियों के पूर्व में दिये वक्तव्यों तक ने आम आवाम को नाराज किया है। ऐसी ही स्थिति कांग्रेस के अनेक स्थानों पर देखने को मिली। इस पार्टी में मुख्यमंत्री का चेहरा सामने न होना भी एक नकारात्मक पक्ष ही रहा है। बाहरी प्रत्याशियों को थोप देना भी बंधुआ मजदूर की बेगार की तरह ही क्षेत्रवासियों को कचोटता रहा। इसका फायदा समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी सहित अन्य क्षेत्रीय दलों और निर्दलीय प्रत्याशियों को मिलने की संभावना भी बलवती होती है।
निष्ठावान कार्यकर्ताओं को हाशिये पर छोड देने का खामियाजा भी राजनैतिक दलों को भुगतना पडेगा। मध्यप्रदेश में माई के लाल का चुनौतीपूर्ण उदघोष करने वाले को भाजपा के आलाकमान ने कुछ खास कारणों से फिर से प्रदेश मे पुनः नेतृत्व देने की घोषणा करके जहां अतिउत्साह का परिचय दिया है वहीं केन्द्र सरकार ने जाति विशेष के लिए कानून बनाकर बाकी लोगों के मन में खटास भर दी। यहां सपाक्स जैसा अभावग्रस्त दल भी मैदान में कूदने के लिए बाध्य हो गया। यह सत्य है कि सरकारों की मनमानी नीतियों-रीतियों के विरोध में खडे हुए आम लोगों का यह समूह धनकुबेरों की पार्टियों के मध्य तिनके के समान भी अस्तित्व नहीं रखता परन्तु संघर्ष का साहस करना भी कम बडी बात नहीं है।
वास्तविकता तो यह है कि प्रदेशों में मतदाताओं के सामने भाजपा और कांग्रेस के अलावा कोई ठोस विकल्प मौजूद है ही नहीं या फिर यह कहा जाये कि विकल्प बनने वालों को पहले ही टीएनशेषन की तरह अस्तित्वहीन कर दिया गया। निर्वाचन आयोग को समाज के आखिरी छोर तक वास्तविक पहचान देने वाले ने जब देश को पहचान देने की ठानी तो राष्ट्रपति के चुनाव से लेकर सांसद तक के चुनाव में सभी ने मिलकर उन्हें धोबी पछाड मारी ताकि फिर कभी वह सपने में भी राष्ट्र के नवनिर्माण की सोच भी न सकें। आम मतदाता के सामने एक ओर कुंआ तो दूसरी ओर खाई की कहावत पूरे चुनाव काल में चरितार्थ होती रही। थक हारकर मतदाता ने प्रत्याशी की व्यक्तिगत प्रतिभा और प्रतिमानों का अध्ययन करके मतदान कर अपने दायित्वों का निर्वहन दिया। भले ही वह जीतने के बाद सदन में अपनी पार्टी के नेतृत्व के प्रत्येक निर्णय पर अपनी अंधी स्वीकारोक्ति देता रहे।
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