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Ravish Kumar
मैं फील्ड में कभी यह सवाल नहीं करता कि आप किसे वोट देंगे। इस सवाल में मेरी दिलचस्पी नहीं होती है। मैं यह ज़रूर देखना चाहता हूं कि एक मतदाता किस तरह की सूचनाओं और धारणाओं से ख़ुद को वोट देने के लिए तैयार करता है। आज बाग़पत ज़िले के कई नौजवानों से मिला। शहरी नौजवानों की तरह किसी ने कहा नहीं या फिर जताया नहीं कि वे मुझे जानते हैं।
मैं ऐसे ही नौजवानों के बीच जाना चाहता था जो मुझे ठीक से नहीं जानते हों। इन नौजवानों की कुल संख्या सत्तर-अस्सी तो आराम से रही होगी या उससे भी अधिक हो सकती है। ये सभी सरकारी प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करने वाले नौजवान हैं। जिनके मुद्दे मैं लगातार डेढ़ साल से उठा रहा हूं। मेरे कार्यक्रमों को इन नौजवानों तक शत-प्रतिशत न पहुंचने देने के कई कारण हो सकते हैं पर मेरा फोकस यह नहीं था। ज़रूरी नहीं कि हर कोई मुझे जाने ही। इन नौजवानों से बात करने के अपने अनुभव साझा करना चाहता हूं।
नौजवानों ने अपनी तरफ़ से 2014 की तरह मोदी-मोदी नहीं किया। 2014 के चुनावों में किसी के सामने माइक रखते ही मोदी-मोदी शुरू हो जाता था। कुछ भी सवाल पूछने पर जवाब मोदी-मोदी आता था। इस बार एक बार भी ऐसा नहीं हुआ। क्या ये नौजवान मोदी को वोट नहीं करेंगे? इस लहर के नहीं होने के बाद भी ऐसा निश्चित तौर पर नहीं लगा। क्योंकि मुखर होकर सपोर्ट करने वालों ने ख़ुद से मुखर होकर नहीं कहा कि इस बार सबक सीखा देंगे। मेरे सवाल रोज़गार और शिक्षा की गुणवत्ता तक ही सीमित थे मगर कई बार जवाब के क्रम में जो निकला उसमें गोदी मीडिया की कामयाबी नज़र आई। गोदी मीडिया मोदी की राजनीति का सबसे सफल उपक्रम है। नौजवानों तक सिर्फ बीजेपी की बात पहुंची है। बीजेपी के आरोप और तर्क पहुंचे हैं। उनकी सूचना का संसार उन्हीं सूचनाओं से बना है जिसे प्रोपेगैंडा कहता हूं। सुदूर इलाकों में मुख्यधारा से लेकर निजी स्तर पर सूचना संसार से विपक्ष और वैकल्पिक सूचनाओं की सफाई हो चुकी है।
नौजवानों की ज़ुबान पर बातचीत की चर्चा के दौरान विपक्ष का ज़िक्र हमेशा बीजेपी के तर्क से ही आया। विपक्ष ने बीजेपी के बारे में जो कहा है, उस हवाले से किसी ने बीजेपी पर सवाल नहीं किया। राजनीतिक चर्चा एकपक्षीय हो चुकी है। उसकी स्वाभाविकता में विविधता मिट चुकी है। नौजवानों की स्वाभाविक चर्चाओं से विपक्ष ग़ायब हो चुका है। इसके लिए विपक्ष भी दोषी है। विपक्ष ने संचार के वैकल्पिक तरीके का इस्तमाल नहीं किया। जो उनके संगठनों का ढांचा था, उसका इस्तमाल नहीं किया। वे आज भी उस अख़बार और चैनल को देखकर अपना दिन शुरू करते हैं जहां वे है ही नहीं और होंगे भी नहीं। मैंने ऐसे कई मतदाता देखे जिनके दिमाग़ में विपक्षहीनता की स्थिति बन चुकी है। हो सकता है ऐसा न हो मगर मुझे ऐसा लगा। आगे और नौजवानों से मिलूंगा, जैसे जैसे अनुभव बदलेगा, लिखूंगा।
मैं मिला तो ज़रूर कई दर्जन नौजवानों से मगर बातचीत में हिस्सा कुछ ने ही लिया। बाकी क्यों चुप रहे, किसी की तरफ से क्यों मुखर नहीं थे, ये गेस करना ठीक नहीं होगा मगर इसे दर्ज करना ज़रूरी समझता हूं। एक नौजवान ने ज़रूर चमक कर कहा कि सेना पर सवाल किए जा रहे हैं। कांग्रेस को नहीं करना चाहिए। पर क्या कांग्रेस का सवाल सेना को लेकर था या मारे गए आतंकियों की संख्या को लेकर था जो बीजेपी के नेताओं ने अपनी तरफ से किए। ऐसी बारीकियां चर्चा से ग़ायब रहीं। जो भी है यह बोलने वाला नौजवान अपनी सीट से खड़ा हो गया। कुछ नौजवानों ने अपनी सीट पर बैठे हुए कहा कि सेना को लेकर राजनीति नहीं होनी चाहिए। मोदी का अकेले का फैसला नहीं था। वहां तो सब मिलकर फैसला करते हैं। इसलिए सबका फैसला हो और उसका श्रेय अकेला ले यह ठीक नहीं है। सब बोलने के बाद वे यह बोलना नहीं भूले कि सेना को लेकर राजनीति नहीं होनी चाहिए। मीडिया या बीजेपी के संगठनों ने जो माहौल बनाया है शायद उसमें दबी ज़ुबान इतना ही कहा जा सकता है। ज़ाहिर है इन नौजवानों के पास अपने तर्कों को लेकर इतना आत्मविश्वास नही है कि अपनी बात की दावेदारी खुलकर कर सकें।
लड़कियों से भी मिला, उन्हें बोलने के लिए प्रोत्साहित करने के बाद भी नतीजा ज़ीरो रहा। यह बहुत दुखद है। काश इसे कोई बदल देता। एक ही बोल पाईं मगर उन्होंने वो अपने अनुभव औऱ राजनीतिक समझ में फर्क नहीं कर पाई। जैसा कि नौजवान लड़के भी नहीं कर पाए। उस लड़की ने कहा कि सरकारी परीक्षा होती है तो पैसे देकर सीट बिक जाती है। उदाहरण वह हाल-फिलहाल का दे रही थी मगर अंत में कहा कि जब से भाजपा आई है, सब ठीक हो गया है। क्या अपनी बात को कहने के बाद भाजपा के लिए कुछ अच्छा कहना ज़रूरी है या यह उनकी स्वाभाविक पसंद है, इसका अंतिम उत्तर मेरे पास नहीं है। मैं सिर्फ उस युवा को पढ़ रहा था जिसे लेकर कहा जाता है कि यह देश बदल देंगे। मगर उन्हें ठीक से पता है कि अंग्रेज़ी और गणित की ख़राब समझ ने उन्हें कस्बे को बदलने लायक नहीं छोड़ा है। मैं बाग़पत के खेकड़ा तहसील के एक कोचिंग सेंटर में इनसे बातें कर रहा था।
नौजवानों को पता है कि ग्रामीण और कस्बा क्षेत्रों में शिक्षा व्यवस्था ठप्प है। उसकी गुणवत्ता इतनी ख़राब है कि वे कई साल स्कूल और कालेज में गुज़ारने के बाद भी चतुर्थ श्रेणी के लायक ही हो पाते हैं। इन नौजवानों ने सरकारी और स्कूल कालेज घटिया ही देखे हैं। घटिया कालेजों का हर दौर में बने रहना और उसका कभी न बदलना इन नौजवानों को शिक्षा में सुधार की किसी भी उम्मीद से दूर कर दिया है। उन्होंने इस जानकारी को स्वीकार कर नज़रअंदाज़ करना सीख लिया है। ऐसी बात नहीं है कि उन्होंने इसे ठीक करने के लिए प्रयास नहीं किया। मगर उसका कोई नतीजा नहीं निकला। यह ज़रूर है कि रोज़गार के सवाल से काफी परेशान हैं। वे समझते हैं कि चुनावी साल में भर्तियां आईं हैं। वरना पांच साल तक वेकेंसी नहीं आई। अब जब चुनाव समाप्त होगा तब फिर भर्तियां आनी बंद हो जाएंगी। लेकिन इन सवालों को बयान करते वक्त उनका वैसा आक्रोश नहीं दिखा जो बेरोज़गारी के मसले में उम्मीद की जाती है। चुनाव में ये किसे वोट देंगे, मैं इसमें दिलचस्पी नहीं रखता।
बहुत सारे नौजवानों ने खुलकर नहीं कहा कि वे किसे वोट करेंगे। मगर बीजेपी के समर्थक ने कहा कि सारा वोट भाजपा का है। हम उम्मीदवार को वोट नहीं कर रहे हैं। उनसे तो दुखी हैं। उन्होंने ऐसी कई कमियां गिना दी जिन्हें सुनकर लग सकता है कि ये बीजेपी को वोट नहीं करेंगे। उन्होंने सब बताया कि अस्पताल में डाक्टर नहीं है। आपात स्थिति में 30 किमी दूर जाना पड़ता है। पढ़ाई ख़राब है। सड़कें ख़राब हैं। स्वच्छता का बुरा हाल है। मगर हमारा सारा वोट भाजपा को जाएगा। यह नौजवान सक्रिय समर्थक हो सकता है, अगर है तब भी मैं देखना चाह रहा था कि तमाम तरह के संकटों का किसी मतदाता पर क्या असर पड़ता है। उनके मन की बात नहीं जानता लेकिन जो कहा उसके आधार पर लगा कि कोई असर नहीं पड़ता है। एक ने कहा कि देश ज़रूरी है। उसके लिए दो साल और बेरोज़गार रह लेंगे। यह वही नौजवान था जो कह रहा था कि जब सबने मिल कर पाकिस्तान पर हमला करने का फैसला किया तो फिर मोदी अकेले श्रेय क्यों ले रहे हैं।
सिर्फ एक जगह कुछ मतदाताओं में खुद को लेकर स्पष्टता दिखी। ये वो लोग थे जिन्होंने पंचायत, पार्षद, विधायक और सांसद के चुनाव में भाजपा को वोट देने तक उम्मीद रखी कि उनकी ज़मीन का मुआवज़ा मिलेगा। इनका कहना है कि बीजेपी के लोगों ने ही प्रदर्शन शुरू करवाया, शुरु में उनके नेता खूब आए। उनका प्रदर्शन अब दो साल से अधिक का हो चुका है। ज़मीन पर रेंग कर प्रदर्शन करने से लेकर पुलिस की लाठी खाने और कई मुकदमों में घेरे जाने के बाद अब वे किसी और विकल्प की सोच रहे हैं। बिना पूछे कह रहे हैं कि हम वोट नहीं करेंगे। लखनऊ से लेकर दिल्ली तक सरकार होने के बाद भी मुआवज़ा नहीं दिलाया और न ही जीतने के बाद हाल लेने आए। महिलाओं को पुलिस ने मारा, इससे भी आहत हैं। एक वोटर से नागरिक बनने की प्रक्रिया कितनी लंबी है। कई साल बाद वह बदलता है। बदलने का मतलब है कि वह सिस्टम की क्रूरता देख पाता है।
क्या इनके अनुभवों के आधार पर दावा किया जा सकता है कि किसानों में नागरिक चेतना आई है? क्या वे अपने मुद्दों के प्रति इतने ईमानदार हैं कि किसी राजनीतिक दल के प्रति निष्ठा कोई मायने नहीं रखती है? मेरा जवाब है नहीं हैं। राजनीतिक दलों ने बार बार किसानों को ठगा है। अब वे ठगे जाने और कुचले जाने में फर्क नहीं कर पाते हैं। राजनीतिक बदलाव एक पार्टी को हराकर दूसरी को लाने से नहीं आता है। राजनीतिक बदलाव आता है राजनीतिक चेतना के निर्माण में। क्या विपक्ष ने किसी राजनीतिक चेतना का निर्माण किया है, उसके लिए संघर्ष किया है? या फिर लोगों ने अपने स्तर पर राजनीतिक चेतना का निर्माण किया है, जिसमें मीडिया और विपक्षी संगठनों की कोई भूमिका नहीं है, तो इसका जवाब 26 मई को मिलेगा। अभी नहीं क्योंकि जनता बोल नहीं रही है। बता नहीं रही है।
मतदाता के बनने की प्रक्रिया को अगर देखें तो सब कुछ मतदाता के निजी अनुभवों पर छोड़ा गया है। निजी अनुभवों के सहारे इन्हें छोड़ कर सूचना संसार ने इन्हें अकेला छोड़ दिया है। सूचना संसार इनके लिए ऐसे अनुभवों को गढ़ता है जो कई बार इनके निजी अनुभव पर भारी पड़ जाते हैं। मुझे एक मतदाता का लापरवाह दिखना या वोट को लेकर हल्के में बात करना अच्छा नहीं लगता। उसका हल्का होना ही लोकतंत्र का खोखला होना है।
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