By शेष नारायण सिंह
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३१ अक्टूबर १९८४, नई दिल्ली. सुबह साढ़े नौ बजे के आस पास मित्र राम चन्द्र सिंह का फोन आया कि इंदिरा गांधी को उनके घर में ही किसी ने गोली मार दी है. इलाज के लिए आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंसेज में ले जाई गयी हैं. उस वक्त हम सफदरजंग इन्क्लेव में रहते थे. बाहर निकल कर उसी पैजामे कुर्ते में सामने खड़े एक आटोरिक्शा पर बैठ गए. किराया दो रूपया होना चाहिए था लेकिन उसने पांच रूपये मांगे. हाँ कर दी और मेडिकल इंस्टीट्यूट पंहुच गए. उस वक्त वहां कोई भीड़ नहीं थी. इंदिरा गांधी के घर पर रहने वाले लोग ही रहे होंगें. कुछ पुलिस वाले, कुछ डाक्टर और कोई नहीं.
पता चला कि आपरेशन थियेटर में ले जाई गयी हैं. कर्मचारी संगठन के मिश्र जी नज़र आये. मैंने पूछा कि इंदिरा जी का कैसा हाल चाल है. उन्होंने बताया कि हाल चाल कैसा होगा. सैकड़ों गोलियाँ लगी हैं. शरीर छलनी है. मैंने पूछा बच तो जायेगीं? उन्होंने कहा कि यह सवाल मूर्खता भरा है. इंदिरा जी की बॉडी ही अस्पताल लाई गयी थी.
मैं इंदिरा गांधी का बहुत प्रशंसक कभी नहीं रहा लेकिन मुझे याद है कि मैं बहुत तकलीफ से घिर गया. लगा कि अब तूफ़ान आ सकता है. वहीं बैठ गया. बहुत देर बैठा रहा. नेताओं का आना जाना शुरू हो चुका था. अरुण नेहरू पूरे कंट्रोल में थे, कुछ देर बाद ऊपर जाकर देखा. अंदर कमरे में इंदिरा गांधी का मृत शरीर और बाहर उनकी सरकार के मंत्री खड़े बातचीत कर रहे थे. कुछ देर बाद पुलिस वालों ने फालतू लोगों को हटा दिया. लेकिन अभी किसी को बताया नहीं गया था कि इंदिरा गांधी की मृत्यु हो चुकी थी.
मैं बाहर आ गया. सड़क पर भीड़ इकट्ठा होने लगी थी. लेकिन चारों तरफ सन्नाटा था. लगा सबको मालूम था कि अंदर क्या हो गया था. पुलिस अधिकारी गौतम कौल नज़र आये. उनके चेहरे पर बहुत तकलीफ थी जो आम तौर पर पुलिस वालों के चेहरे पर नहीं होती, वे तो ड्यूटी कर रहे होते हैं. लेकिन गौतम की आँखे बहुत भारी थीं. वे इंदिरा जी के रिश्तेदार भी हैं. मुझे याद है उन्होंने किसी थानेदार को बुलाया और कहा कि एम्स और सफदरजंग अस्पताल के बीच वाली सड़क को खाली करवा लो. जो कारें खड़ी हैं, उनको क्रेन वगैरह से हटवा दो. अब तक भीड़ आना शुरू हो चुकी थी. पास में ही अर्जुन दास का दफ्तर था.
उसके लोग बड़ी संख्या में मौजूद थे और धीरे धीरे शोरगुल का माहौल बन रहा था. मैं अपने घर चला आया और तैयार होकर काम पर चला गया. यह बात सच नहीं है कि इंदिरा जी की हत्या के खिलाफ दिल्ली में लोगों का गुस्सा फूट पड़ा था. दिल्ली में सारा खून खराबा राजीव गांधी के मुकामी कांग्रेसी नेताओं द्वारा प्रायोजित था. शाम को बस में बैठे हुए मैंने आकाशवाणी की छ; बजे की बुलेटिन सुनी कि राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी गयी है. मैं सन्न रह गया. मुझे लगा कि राजीव गांधी को सरकार में रहने का एक दिन का भी अनुभव नहीं है, अभी दो साल पहले राजनीति में सक्रिय हुए हैं, यह क्या हो गया. सरकार के अंदर मौजूद स्वार्थतंत्र तो उनसे बहुत सारे उलटे सीधे काम करवा लेगा. बाद की घटनाएं बताती हैं को मेरा डर सही था.
बहरहाल अब तो हो चुका था. अपने दोस्त जनार्दन सिंह के यहाँ पंहुचा. वहाँ से घर आते हुए मैंने आर के पुरम और सफदरजंग इन्केल्व के बीच में कई जगह देखा कि अर्जुन दास के लोग सिखों को मार रहे हैं. मेरे मोहल्ले के कोने में एक घर था जिसपर बख्शी लिखा था, वह आग के हवाले हो गया था. किसी तरह घर पंहुचा. लेकिन मोहल्ले में ही सिखों के घरों की पहचान करके आग लगाई जा रही थी. मेरे मित्र आशुतोष वार्ष्णेय वहीं पड़ोस में अमिता और सतीश के घर पर रहते थे . उन्होएँ भी दिनमें शहर में तनाव देखा था. शहर से लौटकर उन्होंने जो वर्णन किया हो दिल दहला देने वाला था.
अगले दिन आशुतोष के स्कूटर पर बैठकर शहर में निकले. लेडी श्रीराम कालेज के पीछे लाजपत भवन में रोमेश थापर, कुलदीप नैयर और धर्मा कुमार की अगुवाई में लोग जमा हो रहे थे. पता लगा कि अर्जुन दास, एच के एल भगत, ललित माकन और सज्जन कुमार के इलाकों में खूब क़त्ल-ओ-गारद हुआ है. हम लोग त्रिलोकपुरी की तरफ एक टेम्पो में बैठकर गए. वहाँ की तबाही दिल दहला देने वाली थी. बहुत सारे लोगों के घर जला दिए गए थे, लोगों के परिवार वालों को मार डाला गया था. सब कुछ बिलकुल संगठित रूप से हो रहा था. कनिष्क होटल में हमारे दोस्त आर सी सिंह मैनेजर थे. उनके पास गए और उन्होने पूरी दिल्ली में हुई तबाही का हाल बताया.
शाम को घर आया तो मेरे मोहल्ले में भारी तबाही नज़र आयी. अर्जुन दास का इलाका है, सिखों के घरों को चुन चुन कर तबाह किया गया था. आईआईटी के प्रोफ़ेसर दिनेश मोहन के साथ उनकी फिएट कार में मैं और आशू कई जगह गए और आजतक मैं यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि इंदिरा जी की हत्या के बाद सिखों के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा था. दिल्ली में तो सारा खून खराबा प्रायोजित था. प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सामने अपने आपको उनका वफादार साबित करने के लिए मुकामी कांग्रेसी नेताओं ने खूनखराबा करवाया था, जिसमें करीब तीन हजार से ज्यादा सिख मारे गये थे.