Wednesday, October 30, 2013

एक क्रांतिकारी पत्रकार

गणेश शंकर विद्यार्थी: एक क्रांतिकारी पत्रकार
(टाइम्स ऑफ क्राइम)
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 अंकुर विजयवर्गीय 
अपनी बेबाकी और अलग अंदाज से दूसरों के मुंह पर ताला लगाना एक बेहद मुश्किल काम होता है। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जिन पत्रकारों ने अपनी लेखनी को हथियार बनाकर आजादी की जंग लड़ी थी, उनमें गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम अग्रणी है। आजादी की क्रांतिकारी धारा के इस पैरोकार ने अपने धारदार लेखन से तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता को बेनकाब किया और इस जुर्म के लिए उन्हें जेल तक जाना पड़ा। सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढऩे वाले वह संभवत: पहले पत्रकार थे।

विद्यार्थी जी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 को उनके ननिहाल प्रयाग (इलाहाबाद) में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और उर्दू व फारसी के जानकार थे। विद्यार्थी जी की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया।
आर्थिक कठिनाइयों के कारण वह एंट्रेंस तक ही पढ़ सके, लेकिन उनका स्वतंत्र अध्ययन जारी रहा। विद्यार्थी जी ने शिक्षा ग्रहण करने के बाद नौकरी शुरू की, लेकिन अंग्रेज अधिकारियों से नहीं पटने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी। पहली नौकरी छोडऩे के बाद विद्यार्थी जी ने कानपुर में करेंसी ऑफिस में नौकरी की, लेकिन यहां भी अंग्रेज अधिकारियों से उनकी नहीं पटी। इस नौकरी को छोडऩे के बाद वह अध्यापक हो गए।

महावीर प्रसाद द्विवेदी उनकी योग्यता के कायल थे। उन्होंने विद्यार्थी जी को अपने पास 'सरस्वतीÓ में बुला लिया। उनकी रुचि राजनीति की ओर पहले से ही थी। एक ही वर्ष के बाद वह Óअभ्युदयÓ नामक पत्र में चले गए और फिर कुछ दिनों तक वहीं पर रहे। उन्होंने कुछ दिनों तक Óप्रभाÓ का भी संपादन किया। अक्टूबर 1913 में वह Óप्रतापÓ (साप्ताहिक) के संपादक हुए। उन्होंने अपने पत्र में किसानों की आवाज बुलंद की।
पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने के कारण उन्हें पांच बार सश्रम कारागार और अर्थदंड अंग्रेजी शासन ने दिया। विद्यार्थी जी के जेल जाने पर Óप्रतापÓ का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन करते थे। उनके समय में श्यामलाल गुप्त पार्षद ने राष्ट्र को एक ऐसा बलिदानी गीत दिया, जो देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक छा गया। यह गीत Óझण्डा ऊंचा रहे हमाराÓ है। इस गीत की रचना के प्रेरक थे अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी।

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर विद्यार्थी जी के विचार बड़े ही निर्भीक होते थे। विद्यार्थी जी ने देशी रियासतों द्वारा प्रजा पर किए गए अत्याचारों का तीव्र विरोध किया। पत्रकारिता के साथ-साथ गणेश शंकर विद्यार्थी की साहित्य में भी अभिरुचि थी। उनकी रचनाएं Óसरस्वतीÓ, Óकर्मयोगीÓ, Óस्वराÓयÓ, Óहितवार्ताÓ में छपती रहीं। Óशेखचिल्ली की कहानियांÓ उन्हीं की देन है। उनके संपादन में Óप्रतापÓ भारत की आजादी की लड़ाई का मुखपत्र साबित हुआ। सरदार भगत सिंह को Óप्रतापÓ से विद्यार्थी जी ने ही जोड़ा था। विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा Óप्रतापÓ में छापी, क्रांतिकारियों के विचार व लेख Óप्रतापÓ में निरंतर छपते रहते थे।

महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरुआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वह स्वभाव से उग्रवादी विचारों के समर्थक थे। विद्यार्थी जी के Óप्रतापÓ में लिखे अग्रलेखों के कारण अंग्रेजों ने उन्हें जेल भेजा, जुर्माना लगाया और 22 अगस्त 1918 में Óप्रतापÓ में प्रकाशित नानक सिंह की Óसौदा ए वतनÓ नामक कविता से नाराज अंग्रेजों ने विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाया व Óप्रतापÓ का प्रकाशन बंद करवा दिया।

आर्थिक संकट से जूझते विद्यार्थी जी ने किसी तरह व्यवस्था जुटाई तो 8 जुलाई 1918 को फिर इसकी की शुरुआत हो गई। Óप्रतापÓ के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता Óप्रतापÓ को आर्थिक सहयोग देने के लिए मुक्त हस्त से दान करने लगी।
जनता के सहयोग से आर्थिक संकट हल हो जाने पर साप्ताहिक Óप्रतापÓ का प्रकाशन 23 नवंबर 1990 से दैनिक समाचार पत्र के रूप में किया जाने लगा। लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से इसकी पहचान सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन दंडाधिकारी स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में Óप्रतापÓ को Óबदनाम पत्रÓ की संज्ञा देकर जमानत की राशि जप्त कर ली।

कानपुर के हिंदू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए 25 मार्च 1931 को विद्यार्थी जी भी शहीद हो गए। उनका पार्थिव शरीर अस्पताल में पड़े शवों के बीच मिला था। गणेश शंकर जी की मृत्यु देश के लिए एक बहुत बड़ा झटका थी। गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे साहित्यकार रहे हैं, जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की। 

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