Saturday, October 26, 2013

दूसरी बीवी को गुजारा भत्ता, सुप्रीम कोर्ट का बहुपत्नीवादी निर्णय

अधिकतर स्त्रियों को वास्तव में इस बात का ज्ञान होता है कि वे जिस पुरुष से विवाह रचाने जा रही हैं, वह पहले से ही विवाहित है और उसकी पत्नी जिन्दा है। फिर भी वे एक निर्दोष स्त्री के वैवाहिक अधिकारों का बलात्कार करते हुए एक विवाहित पुरुष को अपना पति मान लेती हैं या उसके साथ कुछ किन्तु-परन्तुओं के साथ विवाह रचा लेती हैं। जब आपस में बिगाड़ हो जाता है तो अदालत में आरोप लगाया जाता है कि उसके पति ने खुद को अविवाहित बताकर उसके साथ विवाह किया था। अब ऐसी औरतों को सुप्रीम कोर्ट के उक्त निणर्य के अनुसार गुजारा भत्ता देय होगा। इस प्रकार के न्यायिक निर्णय वास्तव में स्त्रियों के हित में नहीं हैं, बल्कि ये निर्णय स्त्रियों के दूरगामी भविष्य के लिये चिन्ताजनक हैं। जिन पर समय रहते गम्भीरता से चिन्तन करने की जरूरत है। क्योंकि इन सभी निर्णयों में पुरुषवादी सोच परिलक्षित होती है, जो स्त्री को बेचारी दर्शाते हुए परोक्ष रूप से पुरुष की आदिकाल से बहुपत्नीवादी मानसिकता को मान्यता प्रदान करने की ओर अग्रसर हैं।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’ 
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दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 की नयी और लीक से हकटकर व्याख्या करते हुए, 21 अक्टूबर, 2013 को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है कि बेशक किसी पुरुष ने पहली पत्नी के जीवित रहते हुए, दूसरा विवाह किया हो, परन्तु यदि ऐसा विवाह दूसरी पत्नी को धोखे में रखकर किया गया है तो पहली पत्नी के जीवित होते हुए, दूसरी पत्नी को अपने धोखबाज पति से गुजारा भत्ता पाने का कानूनी हक है।

मोटे तौर पर देखें तो यह निर्णय महिलाओं के हित में है और साथ ही साथ उन पुरुषों के लिये चेतावनी और सबक है, जो अपनी पहली पत्नी के जीवित होते हुए और, या उससे बिना तलाक लिये अन्य स्त्री से दगाबाजी करके दूसरा विवाह रचा लेते हैं। ऐसे पुरुषों को अब अपनी पहली पत्नी और परिवार का पालन पोषण करते हुए दूसरी पत्नी को गुजारा भत्ता भी अदा करना होगा। इस मामले की मीडिया में कहीं कोई विशेष चर्चा नहीं हुई है, जबकि मेरा मत है कि यह निर्णय कई मायनों में चर्चा योग्य है।

सबसे पहली बात तो यह है कि इस प्रकार के मामलों में अभी तक धोखे से दूसरा विवाह रचाने के मामलों में दूसरी पत्नी को कानूनी तौर पर पत्नी का दर्जा नहीं मिलता था। उसे वैध पत्नी नहीं माना जाता था, बेशक उसकी सन्तानों को अवश्य वैध सन्तान माना जाता था। इस कारण से दूसरा विवाह रचाने वाली पत्नी को जीवन भर विवाह के रिश्ते को एक बोझ की तरह से ढोना पड़ता था और ऐसी स्त्रियॉं आम तौर पर अपने परिजनों या दूसरे पति की मेहरबानी पर ही जीवकापार्जन करने को मजबूर होती रही हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद हालतों में बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा। विशेषकर उन पत्नियों के मामलों में जिन्हें धोखे में रखकर दूसरा विवाह रचाया गया था।

दूसरी बात विचार योग्य यह है कि इस निर्णय के बाद क्या अदालतों में ऐसे मुकदमों की बाढ नहीं आ जायेगी, जिनमें विवाहित पुरुष से दूसरा विवाह रचाने वाले स्त्रियों से उनके पति का यदि किसी कारण से अलगाव हो जाता है, तो उनकी दूसरी पत्नी की ओर से अदालत में येनकेन प्रकारेण यह प्रमाणित किया जायेगा कि दूसरा विवाह धोखे में रखकर ही किया गया था। इस कारण ऐसी पीड़ित पत्नी को गुजारा भत्ता प्रदान किया जाये।

तीसरी विचार योग्य बात यह है कि विवाहित पुरुषों से दूसरा विवाह रचाने वाली अधिकतर स्त्रियों को वास्तव में इस बात का ज्ञान होता है कि वे जिस पुरुष से विवाह रचाने जा रही हैं, वह पहले से ही विवाहित है और उसकी पत्नी जिन्दा है। फिर भी वे एक निर्दोष स्त्री के वैवाहिक अधिकारों का बलात्कार करते हुए एक विवाहित पुरुष को अपना पति मान लेती हैं या उसके साथ कुछ किन्तु-परन्तुओं के साथ विवाह रचा लेती हैं। जब आपस में बिगाड़ हो जाता है तो अदालत में आरोप लगाया जाता है कि उसके पति ने खुद को अविवाहित बताकर उसके साथ विवाह किया था। अब ऐसी औरतों को सुप्रीम कोर्ट के उक्त निणर्य के अनुसार गुजारा भत्ता देय होगा।

चौथी बात इस मामले में मेरी नजर में सबसे महत्वपूर्ण है और वह यह है कि धोखे से दूसरा विवाह रचाने वाले पुरुष से दूसरी पत्नी को गुजारा भत्ता दिलाकर अदालत ने दूसरा विवाह रचाने वाली स्त्री के साथ तो न्याय करने का नया रास्ता निकाला है, लेकिन इस निर्णय के कारण जब गुजारा भत्ता नियमित रूप से दिया जायेगा, तो इसके परिणामस्वरूप विवाहिता पत्नी और उसके वैध बच्चों के समानजनक जीवकोपार्जन पर जो नकारात्मक आर्थिक असर होगा। उनकी शिक्षा-दीक्षा पर जो कुप्रभाव पड़ेगा, क्या वह न्यायोचित और विधि सम्मत है? इस सवाल के समाधन के बारे में इस निर्णय में जिक्र नहीं किया गया है, लेकिन न्यायपालिका को इसका जवाब तलाशना होगा। क्योंकि दूसरा विवाह रचाने वाले पुरुष की गलती की सजा, उसके परिवार के लोगों को क्यों भुगतनी पड़े? इस बात पर कोर्ट के साथ-साथ हम समाज के लोगों को भी विचार करना होगा। अन्यथा तो विवाहिता पत्नी और उसके बच्चों के लिये ऐसे मामलों में जीवनभर के लिये बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी होने वाली है।

केवल यही नहीं सुप्रीम कोर्ट के इस प्रकार के निर्णय परोक्ष रूप से बहुपत्नी प्रथा को भी स्वीकृति प्रदान करते नजर आ रहे हैं। इससे पूर्व भी एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट दो पत्नियों को एक पति की सरकारी सेवा में मृत्यु के बाद मिलने वाले लाभों और अनुकम्पा नियुक्ति में आपसी सहमति से कानूनी हक प्रदान करने का निर्णय सुना चुका है। जिसके बारे में मैंने एक आलेख लिखा था-‘‘दोनों बीवी राजी तो क्या करेगा काजी?’’ जिसे अन्तरजाल पर अनेक न्यूज पोर्टलों पर पढा जा सकता है।

मेरा ऐसा मानना है कि इस प्रकार के न्यायिक निर्णय वास्तव में स्त्रियों के हित में नहीं हैं, बल्कि ये निर्णय स्त्रियों के दूरगामी भविष्य के लिये चिन्ताजनक हैं। जिन पर समय रहते गम्भीरता से चिन्तन करने की जरूरत है। क्योंकि इन सभी निर्णयों में पुरुषवादी सोच परिलक्षित होती है, जो स्त्री को बेचारी दर्शाते हुए परोक्ष रूप से पुरुष की आदिकाल से बहुपत्नीवादी मानसिकता को मान्यता प्रदान करने की ओर अग्रसर हैं।

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