Saturday, October 5, 2013

मानव तस्करी और महानतम

 नराघम-अपराध को अंजाम देने वाले गिरोह षासन व प्रषासन की नजर से आज भी दूर

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 कटनी... लखन लाल

लेकतंत्र ग्लोबलाइजेषन की आपाघापी के बीच आज आम आदमी एकाकी भीड मे कुछ इस तरह खो गया है। जिसके चलते न तो उसे मानवीय समाज की परवाह रही और नही अलगाव का कोइ डर यह मनोवैज्ञानिक दबाव कोइ पहले दौर का नही है। ऐसी विकराल समस्याएं तो हर एक ऐतिहासिक कालचक्र के दौर में नजर आती रही है। फिर भी परिस्थितियां इतनी भयावह और चिंताजनक नही रही। बजह तब हमें विरसात में मिली हमारी सांस्कृतिक घरोहर और संस्कारौं का दबाव जरा से भटकाव की दषा में भी हमें अपराध बोघ के साथ स्वंय घिक्कारने लगते थे। और साथ ही साथ समाज मूलक चिंतन की दिषा से जुड़ने के लिऐ बाध्य भी करते रहते थे। लेकिन आज ऐसी कुछ संवेदनाओं के अवषेष मात्र यदा-कदा दबे-कुचले से नजर आते हैं।

वर्तमान दौर में अपराध बोध होना तो दूर रहा, अपराधों को अंजाम देना दंबगई और कदावर होनें का परिचायक सा बन गया है।षोषित और पीड़ित आज भी सोलहवीं सदी में जीने के लिए बेबस है। यहां कारण है कि समाज से लेकर देष के राजनैतिक गलियारो तक में अनेकों तरह के वो अपराध की बाढ़ सी आ गई है। इन अपराधों में अनेकों तरह के वो अपराध हैं। जिनके दुष्परिणाम समाज से लेकर राष्ट्र तक के लिए भविष्य में कितनें धातक सिध्द होगें।इसकी कल्पना मात्र से ही संवेदनषील ंिचंतक सिहर उठते हैं। इनमें मानव तस्करी जैसा अपराध तो समूची मानव जाति को ही कलंकित करता नजर आता है। किन्तु इस‘‘अक्षम्य - अपराध’’की ओर षायद अत्यन्त कम औसत में ही चिंतकों समाज सुधारकों और राजनायिकों की नजर है। जबकि यह जघन्य अपराध समाज व राष्ट्र के लिए सबसे अधिक दुखःद, चिंताजनक और अहितकर कहा जाये तो अतिष्योति न होगी।‘‘मानव तस्करी’’एक ऐसा अमानवीय और अवैधानिक व्यापार है जो सारी मानवीय संवेदनाओं से परे जाकर क्रूर मनुष्यों का गिरोह,अपने धन बल और बाहुबल के जोर पर पूर्ण - बर्बरता के साथ सर्वहारा वर्ग के मासूम बच्चों और निरीह बालाओं व स्त्रियों को बलपूर्वक अथवा छलकपट के साथ अगवा करके किसी अन्य मुल्क में बेचकर अत्याधिक धनार्जन करते हैं।

प्राचीन काल से मध्यकाल तक के इतिहास में इस तरह के अमानवीय और संवेदनषील व्यापार व भेट स्वरूप आदान प्रदान को सजा-संवार कर यषगान के तौर पर इसकी व्याख्या भी आ गई है। इसी के समानांतर कहीं मानव बिक्री व गुलामों तथा दास-दासियों की खरीद फरोख्त के हाट-बजारों की इबारतें भी इतिहास में दर्ज है। निरिह पषुओं की तरह मानवों की खरीद-फरोक्त सत्रहवीं सदी के इतिहास की राजषाही में खुल कर लिखी और पढ़ी जाती रही है। तब तक ऐसे व्यापार के कारणों में प्रमुख रूप से अषिक्षा और चेतना का अभाव,इस दोषपूर्ण प्रचलन का कारण कहा और माना भी जा सकता है। लेकिन आधुनिक काल के इस जनतंत्रीय दौर में इस तरह का घृणित और क्रूर कृत्य,कया घोर निंदनीय नहीं है। साथ ही इस दिषो में ध्यान देना आज एक महती आवष्यकता व हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी भी बन गया है। इसके लिये जरूरत है गंभीरता पूर्वक गहन-चिंतन की जिसके फलस्वरूप इस गंभीरतम समस्या का निदान हो सके।

दुनिया के महानतम लोकतंत्र में मानव तस्करी जैसा अमानुाषिक दुष्कृत्य, राष्ट्रीय का क्षरठा उस दीमक की तरह कर रहा हैं। जो अंदर ही अंदर पूरे राष्ट को रवोरवला कर रही हैं। चंूकि किसी भी देष का नौनिहाल उसका सषतु भविष्य होता है, और महिलायें षक्ति की संस्कार दाता तथा पोषक फिर यही दोनों यदि ‘‘मानव तस्करी’’का षिकार होकर कितनी भी औसत संरव्या में अन्य मुल्कों में पहुंच कर गुलामों का जीवन जीने के लिऐ विवष कर दिये गए तो आरिवर राष्ट्र की उतनी ऊर्जा और षक्ति का ह्नास तो हुआ ही साथ ही माननीय दृष्टि से उन गुलाम बच्चों के बौद्धिक तथा दैहिक श्रम का षोषण हुआ और महिलाऐं भी बलात यौन षोषण तथा षारीरिक षोषण का षिकार होती हैं।

जो जघन्य तथा क्रूरतम अपराध की संज्ञा में आता है। जिसे रोकना समूचे राष्ट्र की जिम्मेदारी बनती है। मूलतः‘‘मानव-तस्करी’’ का यह अपराघ करने वाले क्रूर,संवेदनषील तथा बाहुबली कहे जाने वाले मनुष्य ही होते हैं जो अपने अधिकत्म धर्नाजन के लोभ में मनुष्यों के साथ में ऐसा दुष्कृत्य करते हैं। जिनकी नजर में अबोध बचपन और निरिह स्त्रियां सर्वहारा वर्ग से होती हैं  उनके घनोंपार्जन का साधन मात्र होती हैं। इन बाहुबलियों के गिरोह,अन्यान्य मुलकों के उन धन-पषुओं के लिऐ इस तरह के पषुता पूर्ण कृत्यों को अंजाम देते हैं जिन्हें अपनी अपनी ऐष गाहों में,अबोध बाल श्रमिकों की गुलामों के रूप में जरूरत होती है तथा अपनी काम पिपासा की हवस पूरी करने के लिये उनके हरम में सुन्दर युवा स्त्रियों की दासी के रूप में आवष्यकता होती है।

मानव तस्करी का यह व्यापार ऐसा नहीं कि,मात्र यही कुछ कारण है। इन जरूरतों के अतिरिक्त भी मेडिकल साइंस का क्षेत्र भी इस तरह के पषुता पूर्ण व्यापार के लिये जिम्मेदार कहा जा सकता है जहां धन-पषुओं ‘अमीर व्यक्तियों’ की प्राण रक्षा के लिये किडनी,हार्टवाल्ब जैसे अत्यंत महत्व पूर्ण अंगों प्रत्यगों की जरूरत होती है जिसकी एक हद तक की पूर्ति मानव-तस्करी जैसे व्यापार से संभावित कही-सुनी जाती है। ऐसे ही अन्यान्य प्रयोगों के लिये ये क्षेत्र संदेहों के परिधि में घिरकर यदा-कदा कई कई समाचार पत्रों की सुर्खियों भी बन चुके हैं। ष्षायद यही कुछ एक कारण है कि मानव-तस्करी का यह व्यापार अपना स्वरूप बदल बदल कर दबी-छुपी में आज भी निर्वाध जारी है। इसका एक स्वरूप ठगी भी है। जिसके चलते समाज के बीच कुछ साख-दार व्यक्ति भी बड़ी ताकतों से जुड़कर उनका अनैतिक लाभ उठाने से नहीं चुकते। मसलन!विदेषें में नौकरी के नाम पर एक तरफा पासपोर्ट बीजा के जरिये मानव-तस्करी जैसे कृत्य को अंजाम दे रहे हैं। चूंकि उनका दूरसंचार के तमाम साधनों के माध्यम से पहले हो जाता है और डिलेवरी के समानंनतर वे यहां मालामाल हो जाते हैं।

मानवीय आचरण के बीच यह व्यापार पूरी सतर्कता के साथ निर्बाध चल रहा है चूंकि इसकी रोक थाम के हमारी प्रषासनिक व्यवस्था चुस्त-दुरूस्त नहीं है या फिर इस दिषा में ध्यान देने की वजाय अनदेखी के लिये उन पर कद्दावरों का निरंतर दबाव बना हुआ है। वरना क्या वजह है?कि नराघम-अपराध को अंजाम देने वाले गिरोह षासन व प्रषासन की नजर से आज भी दूर हैं! षर्मनाक बात तो यह है की ऐसे गिरोह चिन्हित तक नहीं हो पाये हैं। जरूरत है इस समस्या से बचाव के लिये हमें सतर्कता के साथ साथ चाक-चौबंध रहने की, है लेकिन इससे पहले इस दिषा में हमें गंभिरता से चिंतन करना होगा कि आखिर क्यों इस तरह के अपराधों को अंजाम दिया जाता है और वो कौन लोग हैं जो इन गिरोहों के सरगना हैं। कहीं इसके मूल कारणों में आज भी अषिक्षा और बेरोजगारी तो नहीं है।

यदि ऐसा है तो इक्क्ीसवी सदी के इस महानतम लोकतंत्र में लोकहित के लिये संचालित की जा रही सारी योजनओं पर फिर एक बार पुनःर्विचार किया जाना चाहिये ताकि तय की गई समय-सीमा के अन्दर निर्धारित व चिन्हित किये गए उस अंतिम जरूरत मंद को षिक्षा तथा रोजगार मूलक सुविधाएं मुहैया को सके और मानवीय संवेदनाओं का समाज में संचार होने के साथ-साथ मानवीय समाज की पुर्नस्थापना हो सके। कारण यदि इसके बाहर से आयातित हुए हैं जैसे वैष्वीकरण की ताम-झाम और चमक दमक के चलते आर्थीक संपन्नता की होड है तो इस दिषा में चिंतन के लिये एक नई पहल करनी होगी। इस दिषा में हमारी संस्कृति और संस्कार हमारे सहयोगी होंगे। जरूरत है इस दिषा में गंभीरता से घ्यान देने के लिये विकसित विचारों को संजोकर रखने वाले चिंतकों की। तब हमारी राष्ट्रीय उर्जा और भुजाषक्ति सुरक्षित हो सकेगी और हमारे राष्ट्र की महाषक्ति बनने का सपना साकार बनने की राह आसान हो जायेगी।




















 






 

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