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अभी तय तो नहीं है, लेकिन खबरें हैं कि बीजेपी ने बिहार में नीतीश कुमार के सामने हथियार डाल दिए हैं। बीजेपी ने नीतीश को बड़ा भाई मान लिया है और अब आगामी लोकसभा चुनाव में जेडीयू को खुद से एक सीट ज्यादा देने पर राजी हो गई है।
सूत्रों का कहना है कि गुरुवार सुबह नीतीश कुमार और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की नाश्ते पर हुई मुलाकात के दौरान सीटों के जिस फार्मूले पर बात हुई, उसके मुताबिक जेडीयू को 16 सीटें दी जाएंगी, जबकि बीजेपी अपनी मौजूदा 22 में से 7 सीटें कम करके सिर्फ 15 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। बाकी की 9 सीटें एलजेपी और आरएलएसपी के खाते में जाएंगी।
जेडीयू के एक विश्वस्त सूत्र का कहना है कि सीटों का यह फार्मूला तो तय हो गया, लेकिन आगे क्या होगा, कहा नहीं जा सकता। इस सूत्र का इशारा शायद ब्रेकफास्ट और डिनर के फासले पर था। इसी सूत्र ने बताया कि जेडीयू ने फिलहाल खुले रखे हैं, जिसमें कांग्रेस से आरजेडी के बिना बात हो सकती है, लेकिन अगर जरूरत पड़ी तो आरजेडी को भी गठबंधन में शामिल किया जा सकता है।
सूत्रों का कहना है कि अमित शाह को जेडीयू के सामने इसलिए झुकना पड़ा है, क्योंकि राजस्थान और मध्यप्रदेश में उसकी हालत खराब है और वहां इसी साल विधानसभा चुनाव भी होने हैं। हां, बीजेपी को छत्तीसगढ़ में कुछ उम्मीदें हैं। एक और वजह बीजेपी की मजबूरी की हाल के उपचुनाव और कर्नाटक में शिकस्त भी है।
बीजेपी की इसी कमजोरी का फायदा उठाते हुए जेडीयू ने दाम बढ़ा दिया है और साथ ही अपने विकल्प भी खुले रखे हैं। शायद यही वजह थी कि गुरुवार सुबह जब अमित शाह के साथ ब्रेकफास्ट करके नीतीश कुमार बाहर निकले तो उनका चेहरा चमक रहा था और अधरों पर मुस्कान थी।
यह हकीकत है कि पुराने समय की समता पार्टी और आज की जेडीयू, शिवसेना और अकाली दल के बाद बीजेपी की सबसे पुरानी सहयोगी है। 1996 में बीजेपी के साथ जाने वाली यह पहली सेक्युलर पार्टी थी। इस तरह नीतीश कुमार और उनकी पार्टी पहली ऐसी पार्टी थी जिसने बाबरी विध्वंस के बाद बीजेपी को वैधता देते हुए एनडीए का दामन थामा था।
नीतीश से मुलाकात के बाद अमित शाह शिवसेना और अकाली दल के नेताओँ से भी मिलने वाले हैं। इन दोनों दलों ने भी बीजेपी के अहंकारी रुख पर आपत्ति जताई है।
लेकिन, जेडीयू सूत्रों का कहना है कि विकल्प खुले हुए हैं। अगर बीजेपी, राजस्थान और मध्यप्रदेश हार जाती है तो जेडीयू कांग्रेस और आरजेडी के साथ जा सकती है। एनडीए की राजनीति पर गहरी नजर रखने वाले एक विश्लेषक का कहना है कि, “पिछले दिनों लालू यादव का हाल-चाल जानने के लिए की गई फोन कॉल से साफ है कि नीतीश कुमार अपना संवाद सूत्र बनाए रखना चाहते हैं। ऐसे में आरजेडी को कुछ नर्मी दिखाने की जरूरत होगी।”
जेडीयू सदा इस बात पर जोर देती रही है कि उसे बिहार में बड़े भाई की तरह सम्मान दिया जाए, क्योंकि इससे कार्यकर्ताओँ और नेताओँ अच्छे संकेत मिलेंगे और लोकसभा चुनाव स पहले उनमें जोश बढ़ेगा। कई विश्लेषकों को लगता है कि नीतीश कुमार ने नोटबंदी से एक साल पहले 8 नवंबर 2015 को ही महागठबंधन से अलग होने का फैसला कर लिया था।
इसकी वजह थी कि आरजेडी ने 80 सीटें जीती थीं, जबकि जेडीयू सिर्फ 71 सीटों पर विजय हासिल कर पाई थी। हालांकि दोनों ही पार्टियों ने 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ा था। यह भी तब था जब न तो लालू यादव और न ही राबड़ी देवी ने चुनाव लड़ा था और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर खुद लालू यादव ने पेश किया था।
लालू यादव हमेशा से नीतीश कुमार छोटा भाई बताते रहे हैं। इस चुनाव के नतीजों से नीतीश कुमार को अंदर ही अंदर गहरा सदम लगा था और वे महागठबंधन से अलग होने के बहाने तलाश रहे थे।
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