झोलाछाप डाक्टर बनाम अटैचीछाप डाक्टर
आये दिन अखबारों में तथाकथित झोलाछाप डाक्टरों के विरोध में बहुत से समाचार छपते रहते हैं। ये ऐसे लोग हैं, जिन्हें चिकित्सा विज्ञान की औपचारिक शिक्षा नहीं मिल पाती, बल्कि परम्परागत रूप से या गुरु-शिष्य विधि से मिलती है। वे लोग गाँवों और दूर-दराज के इलाकों में जनता को प्राथमिक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराते हैं। कई बार उनके द्वारा केस बिगड़ भी जाते हैं। इन बिगड़े हुए केसों को बहाना बनाकर तमाम अखबार इन डाक्टरों के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं और उनका मजाक बनाने लगते हैं।
आश्चर्य है कि कोई भी अखबार उन अटैचीछाप डाक्टरों के खिलाफ एक शब्द भी नहीं छापता, जो भले ही अपने नामों के साथ भारी-भरकम डिग्रियाँ चिपका लेते हों, मगर किसी मरीज को ठीक नहीं कर पाते और उनके धन के साथ प्राण भी हर लेते हैं। बड़े-बड़े अस्पतालों में रोज सैकड़ों मरीज तमाम इलाज के बावजूद मर जाते हैं, परन्तु कोई उन पर उँगली नहीं उठाता। कुछ समय पूर्व राजस्थान में डाक्टरों की हड़ताल हो गयी थी। तब कई मरीज बिना इलाज के मर जाने पर अखबारों में बहुत हायतौबा मचायी गयी थी। 11 दिन की हड़ताल में कुल 60 मरीज मरे थे। जबकि इलाज के बाद भी मर जाने वाले मरीजों की संख्या इससे कहीं अधिक होती है, परन्तु उनके बारे में कोई बात नहीं करता।
झोलाछाप डाक्टरों की आलोचना करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अटैचीछाप डाक्टर गाँवों और दूर-दराज के क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं, क्योंकि वहाँ उनकी धन कमाने की हवस पूरी नहीं होती। इसी कारण लोगों को कम पढ़े डाक्टरों से चिकित्सा करानी पड़ती है। झोलाछाप डाक्टरों की आलोचना करने वालों को पहले गाँवों में पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध करानी चाहिए।
दूसरी और सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि यह कदापि नहीं कहा जा सकता कि अटैचीछाप डाक्टर किसी भी दृष्टि से झोलाछाप डाक्टरों से बेहतर होते हैं। वास्तव में उनका कोई तुलनात्मक अध्ययन किया ही नहीं गया है। क्या ही अच्छा हो कि लाटरी पद्धति से दोनों प्रकार के डाक्टरों को आधे-आधे मरीज बाँटकर देखा जाये कि उनमें से कौन कितना सफल रहता है। ऐसे अध्ययन के अभाव में झोलाछाप डाक्टरों की आलोचना करना एक पक्षीय और अनुचित ही कहा जाएगा।
अटैचीछाप डाक्टर भले ही कठिन प्रतियोगिता में चुनकर आते हों और भले ही कई वर्ष तक मोटी-मोटी किताबें पढ़ते हों, परन्तु उनका कार्य झोलाछाप डाक्टरों की तुलना में तब तक बेहतर नहीं कहा जा सकता, जब तक वे बीमारियों का पक्का इलाज करने का विश्वास न दिलायें। इसके विपरीत यह देखा जाता है कि वे हजारों रुपये तो तरह-तरह की जाँचों पर खर्च करा देते हैं, फिर भी रोग को ठीक से पहचान नहीं पाते। वे यों ही अनुमान के अनुसार अँधेरे में महँगी दवाओं के तीर मारते रहते हैं। हर दवा का बहुत खराब पाश्र्व प्रभाव भी होता है। इस कारण अनेक अनावश्यक दवायें खाने से रोगी की हालत और अधिक बिगड़ जाती है और वह अंतिम साँसें गिनने लगता है। ऐसे मामले बिरले नहीं बल्कि आम हैं।
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