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ट्विटर पर NDTVbanned ट्रेंड करने लगा है. पत्रकार इसका स्वाभाविक विरोध कर कर रहे हैं.
ट्विटर पर NDTVbanned ट्रेंड करने लगा है. पत्रकार इसका स्वाभाविक विरोध कर कर रहे हैं. एडिटर्स गिल्ड की बैन हटाने की मांग वाली चिट्ठी आ गई है. बाकी पत्रकार संगठनों की चिट्ठी-पतरी भी रास्ते में होगी. पत्रकार बिरादरी विरोध क्यों न करें ? नेताओं को नारे लगाने से मना कर दिया जाए तो वो क्या करेंगे? वकीलों को बहस करने से रोक दिया जाए तो वो क्या करेंगे? अधिकारियों को आदेश देने से रोक दिया जाए तो वो क्या करेंगे?
मसला ये है कि नेता, मंत्री से लेकर अधिकारी तक अपने दायरे से बाहर निकल जाएं तो उनकी मुश्कें कसने के तरीके हैं. लेकिन मीडिया सेल्फ रेगुलेशन की आड़ लेकर बचना चाहता है. एक पत्रकार को ये बात हजम करने में मुश्किल हो सकती है. आसानी के लिए गौर करना चाहिए कि सेल्फ रेगुलेशन के नाम पर NBA जैसे टेलीविजन के स्वयंभू संगठनों ने खुद को सुधारने के लिए क्या-क्या किया है.
सत्ता के प्रभाव से प्रेस को दूर रहना होगा
अकबर इलाहाबादी कह गए हैं- “न तीर निकालो न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो”. मीडिया की ताकत पर किसी को शक न पहले कभी था, न आज है. लेकिन जैसे तोप से जमाना आगे निकलकर मिसाइल का हो गया है, वैसे ही उनसे मुकाबला करने के लिए अखबार के साथ रेडियो भी है, टेलीविजन के बाद डिजिटल मीडिया की मारक क्षमता भी है. तो तलवार और अखबार का मुकाबला अपने अपडेटेड वर्जन के साथ चलता रहेगा.
सवाल है कि कहीं तलवार और अखबार का समझौता हो जाए तो क्या किया जाए. फिर सेल्फ रेगुलेशन के नाम पर प्रेस की आजादी को बचाए रखने का कोई अर्थ है क्या?
सरकार ने पठानकोट हमले पर एनडीटीवी के गैरजिम्मेदार प्रसारण के नाम पर एक दिन का बैन लगाया है. सरकारी कमेटी ने लंबी जांच की है. सवाल उठाना इसलिए आसान है, क्योंकि जैसे बाकी चैनलों की किसी खास विचारधारा में अपनी दिलचस्पी है और दर्शक वर्ग उसे अच्छे से समझता है.
वैसे ही एक दर्शक वर्ग एनडीटीवी को एक खास विचारधारा से प्रेरित मानता है. एक आम नजरिया है कि इसी की कीमत एनडीटीवी को चुकानी पड़ी है. हालांकि इस आसान नजरिए को स्वीकार करने में लोगों की राय बंटी हुई हो सकती है.
और तीखी होगी बहस
सोशल मीडिया पर एनडीटीवी के एकदिनी बैन को आपातकाल की सुगबुगाहट माना जा रहा है. बहस और विश्लेषण अभी और तीखा होने वाला है. सोशल मीडिया पर पत्रकारों का एक तबका अपने डरावने अनुभव साझा कर रहा है. लोग कहते हैं- ‘लिखने में डर लगने लगा है. साहब, आपको जो बता रहे हैं वो दिखा नहीं सकते’.
सवाल है कि डर सिर्फ विचारधारा के नाम पर है या कोई तथ्य भी है, जिसे छापने, लिखने और दिखाने से डर लगने लगा है. क्या एनडीटीवी ने पिछले दो सालों में ऐसी कोई रिपोर्ट दिखाई है जिसकी वजह से उसे सरकार से डरने की जरूरत है? विरोध तो सिर्फ विचारधारा के स्तर पर है, तथ्यों से इसका कोई लेना-देना है क्या?
अगर सरकार ने एनडीटीवी को एक विचारधारा के प्रति झुकाव रखने पर दुश्मनी निकाली है, तब तो पूरी पत्रकार बिरादरी को एकजुट हो जाना चाहिए. लेकिन सारे टेलीविजन चैनल एकजुट होंगे क्या? टेलीविजन वालों की दो तरह की प्रतिक्रिया है. एक खुलकर विरोध कर रहे हैं. दूसरे मुस्कान वाली चुप्पी ओढ़े हैं.
टेलीविजन की सेल्फ रेगुलेशन वाले संगठन से भी ज्यादा उम्मीद नहीं है. प्रतिक्रिया इस आधार पर हो सकती है कि कमेटी में किस विचारधारा के लोगों का दबदबा है.
लाइव इंडिया को किया था ऑफ एयर
2007 में लाइव इंडिया चैनल को फर्जी स्टिंग चलाने पर सूचना प्रसारण मंत्रालय ने एक महीने के लिए ऑफ एयर कर दिया था. उसके बाद ये पहला मौका है जब सूचना प्रसारण मंत्रालय ने किसी चैनल को एक दिन के ऑफ एयर करने की सजा सुनाई है. सजा की पड़ताल की जा सकती है कि बाकी चैनल उस वक्त क्या दिखा रहे थे? चैनल ने क्या दिखाया जिसके आधार पर ये फैसला हुआ.
संभव है कि मंत्रालय को अपना फैसला वापस भी लेना पड़ जाए. लेकिन ये सच में आपातकाल की सुगबुगाहट है क्या? या हम अपनी विचारधारा से प्रेरित होकर खौफ खाने का नाटक करने लगे हैं.
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