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भौतिकता की अंधी दौड में प्रतिभागी बनी जिन्दगियों के मध्य विलासता के संसाधन जुटाने की होड लगी हुई है। साम, दाम, दण्ड और भेद के पुरातन रास्ते अपनाये जा रहे हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा से लेकर राजनैतिक महात्वाकांक्षा तक के लक्ष्य भेदन हेतु आपधापी मची हुई है। चुनावी समर का शंखनाद होते ही सत्ता के गलियारे में भागीदारी तलाशने वालों की सक्रियता में भी खासी तेजी देखने को मिलने लगी है।
दिल्ली दरवार से लेकर विभिन्न राज्यों के निकट आते चुनावी ऊंटों की करवटों पर अभी से कयास लगाये जाने लगे हैं। ऐसे में निकट आता गुरू पूर्णिमा का अध्यात्मिक पर्व भी इस बार बेहद खास हो गया है। विचारों का प्रवाह चल ही रहा था कि फोन की घंटी ने अवरोध उत्पन्न कर दिया। दूसरी ओर से हमारे चण्डीगढ निवासी मित्र डा. रामकिसुन भारद्वाज की आवाज आने लगी। उन्होंने हिमालय की केदारघाटी में स्थापित एक दुर्गम गुफा में साधनारत स्वामी शिवनारायण पुरी जी महाराज के दर्शनार्थ जाने की योजना बतायी। ऐसा अवसर हम कब छोडने वाले थे। सो साथ चलने का कार्यक्रम निर्धारित कर लिया।
चण्डीगढ से प्रातः चलकर हम शाम को गन्तव्य पर पहुंच गये। गाडी को रुद्रप्रयाग के आगे सडक किनारे बसे एक गांव में पार्क करके पहाड पर चढना शुरू कर दिया। लगभग आधा घंटे की दुर्गम चढाई पूरी करने के बाद महाराज जी की साधना स्थली पर पहुंचे। भारद्वाज जी अक्सर यहां आते रहते हैं। सो उन्हें रास्ते से लेकर गुफा तक की भौगोलिक स्थितियों का पूरा ज्ञान था। महाराज जी के मुखमण्डल पर तपस्या का तेज स्पष्ट दिखाई दे रहा था। हमारे पहुंचते ही उन्होंने बहुत आत्मीयता के साथ स्वागत किया। उनके सरलता, विनम्रता और पारदर्शिता भरे व्यवहार ने मार्ग की पूरी थकान ही मिटा दी।
कुशलक्षेम पूछने-बताने की औपचारिकताओं के बाद हमने मन में चल रहे विचारों के झंझावात से उन्हें अवगत कराते हुए गुरू पूर्णिमा पर्व की वास्तविक व्याख्या करने का निवेदन किया। उनके चेहरे पर मुस्कुराट फैल गई। गुरू को ज्ञान और पूर्णिमा को प्रकाश के रूप में परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि जिस पल भी ज्ञान का प्रकाश अन्तः में विस्फुटित हो जाये, उसी पल वास्तव में गुरू पूर्णिमा पर्व का अवतरण होता है। केवल मंत्र लेने-देने, समस्या-समाधान और चिन्ता-मुक्ति को ही गुरू-शिष्य परम्परा का अभीष्ठ नहीं माना जा सकता।
वास्तविकता तो यह है कि गुरू ही शिष्य का वरण करता है। शिष्य में गुरू को वरण करने की क्षमता होती ही नहीं है। गुरू ही आगे चलकर विभिन्न कारकों के माध्यम से शिष्य में गुरू तत्व को जागृत करता है, पोषण करता है और करता है पल्लवित। महाराज जी के शब्द निरंतर गम्भीर होते जा रहे थे। गहरे कुंये से निकलने वाली ध्वनि की तरह वाक्य प्रवाहित हो रहे थे। प्रवाह रुकते ही हमने गुरू पूर्णिमा के वार्षिक उत्सव के स्वरूप का विश्लेषण करने के लिए निवेदन किया।
अंतरिक्ष में निर्मित होने वाली विभिन्न स्थितियों की गूढ व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर गुरू पूर्णिमा काल में सकारात्मक तत्वों का समुच्चय चरम पर होता है। इसी कारण ज्ञान के प्रकाश से संचित हुई ऊर्जा की पुनरावृत्ति हेतु यह सर्वोच्च समय होता है। इस काल में मनाया जाने वाला उत्सव दिव्य होना चाहिये भव्य नहीं। आन्तरिक होना चाहिये, बाह्य नहीं। आडम्बरों से दूर, वास्तविकता के निकट और अन्तः की अनुभूतियों में विलय तक पहुंचा चाहिये। हमने बीच में ही गुरू और शिष्य के कर्तव्यों से लेकर दायित्वों तक की मर्यादाओं पर केन्द्रिय प्रश्न कर दिया। उनकी मुस्कुराहट कुछ अधिक ही गहरा गयी।
वैदिक ग्रंथों के संदर्भों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि गुरू वह होता है जो शिष्य को चाहता है, शिष्य से नहीं चाहता हो और शिष्य वह है जो गुरू को चाहता हो, गुरू से नहीं चाहता हो। अपेक्षाओं के स्थान पर त्याग, भोग के स्थान पर योग और भौतिकता के स्थान पर अध्यात्मिकता का समावेश होना चाहिए। ज्ञान का प्रकाश अवतरित होने वाला पल ही है गुरू पूर्णिमा। चर्चा चल ही रही थी कि शाम गहराने लगी। रात का आगमन अनुमति की प्रतीक्षा में दस्तक दे रहा था। ऐसे में संध्या वंदन का वैदिक विधान होता है, ताकि संधिकाल में ऊर्जा संदोहन के नये सोपान तय किये जा सकें।
सो हमने भी इस विशेष काल में अवरोध न बनते हुए चर्चा को निकट भविष्य में आगे बढाने के आश्वासन के साथ चल रहे विषय पर पूर्ण विराम दिया गया। तब तक हमें अपने विचार प्रवाह को पडाव देने हेतु स्थान प्राप्त हो चुका था। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए खुदा हाफिज।
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