Monday, March 21, 2016

आलोक तोमर : पत्रकारिता का अमिट हस्ताक्षर

जयन्त जिग्यासु  present by @ toc news

वालपोल के शब्दों में, “ जीवन उनके लिए सुखान्त है, जो महज सोचते हैं, और उनके लिए दुःखान्त है, जो महसूस करते हैं”।

आलोक तोमर ज़िन्दगी से लबरेज, संवादपालिका के ऐसे अमिट हस्ताक्षर का नाम है, जो अपने चिंतन का अनुभव कर सकते थे और अपनी अनभूति का चिंतन कर सकते थे (ही कूड फील हिज़ थॉट्स एंड थिंक हिज़ फीलिंग्स)। और, यही उस शख़्स की सबसे बड़ी ताक़त व पहचान थी। पत्रकारिता की दुनिया का अपने समय का ऐसा प्यारा ध्रुवतारा, जिसके आलोक से न जाने कितने लोग रोशन हुए। वो आफ़ताब, जो बेवक़्त डूबने से पहले न जाने कितने चराग़ों को शोहरत अता कर गया। आज उनका जन्मदिन है। 27 दिसंबर, 1960 को मध्यप्रदेश के भिंड में जन्मे, स्वभाव से अक्खड़ व जीवनशैली के लिहाज़ से फक्कड़ इंसान आलोक जी ने विचलन व विसंगति के इस दौर में मूल्यपरक पत्रकारिता को एक आयाम तो दिया ही, साथ ही पक्षधर पत्रकारिता के प्रखर पैरोकार रहे। मीडिया जगत की इस निर्भीक, साहसिक, व सच्ची आवाज़  को जन्मदिन की 55वीं वर्षगाँठ पर मेरी अशेष आत्मिक बधाई ! यूँ तो हम उन्हें हर पल याद करते हैं, हमारे चिन्तन की परिधि में उनके जीवनकाल में संपन्न सद्कार्यों की सुरभित यादें छायी रहती हैं। पर, आज सुंदर व पुनीत अवसर है कि हम उनकी मुकम्मल शख़्सियत के कुछ अनछुए आयामों व पहलुओं को छूने की कोशिश करें। आज इस ख़ूबसूरत क्षण में उनके चाहने वाले, उनको पढ़ने वाले उनके हज़ारों मुरीद उन्हें बुला रहे हैं। कुछ है, जो दरक रहा है, टूट रहा है, अंदर-ही-अंदर पिघल रहा है।

आलोक जी उन गिने-चुने पत्रकारों में रहे, जिन्होंने अपराध और जनसरोकार के मुद्दों पर हिन्दी व अंग्रेजी में समान अधिकार के साथ अपनी बेख़ौफ, बेबाक व विश्वसनीय क़लम चलायी। और उनके इसी हुनर व फ़न का मैं क़ायल रहा हूँ। उन्होंने सरलीकरण के नाम पर कभी भाषा का सड़कीकरण नहीं किया। जो लोग हिंदी पर क्लिष्ट होने का आरोप लगाकर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं, उन्हें आलोक जी ने अपने श्रमसाध्य सृजनात्मक कार्यों से दो टूक बताया कि “मम्मी जाता है, पापा आती है” कभी मानक हिन्दी नहीं हो सकती। जैसे हम अंग्रेज़ी से स्वतंत्रता लेने की हिम्मत नहीं करते, वैसे ही हिन्दी के सामने भी फूहड़पन की छूट की हिमाकत न करें।

वाणी प्रकाशन से छपी आलोक तोमर जी की चर्चित किताब "पाप के दस्तावेज़" पत्रकारिता के धर्मयुद्ध में सद्यःप्रविष्ट मित्रों को ज़रूर पढ़नी चाहिए। गंभीर विषय को भी अपने दिलचस्प लेखन से पठनीय और चिंतन व विमर्श योग्य बना देने के फन में माहिर पत्रकार रहे आलोक जी 'अपनी बात' में लिखते हैं :

आज जब दिक्कत यह है कि अपराध से जुड़ी ख़बरों और उन पर टिप्पणियों को गंभीरता से लेना अपने आप में अपराध मान लिया गया है, अपराध रिपोर्टिंग का एक संग्रह प्रकाशित करना अपने आप में कई सवाल पैदा करता है। कम-से-कम भारत के सारे बड़े-छोटे अख़बारों में किसी भी रिपोर्टर का शुरूआती काम अपराध की रिपोर्टिंग माना जाता है और वरिष्ठ लोगों को राजनैतिक टिप्पणियों से ही फुरसत नहीं मिलती।

भारतीय पत्रकारिता की लगभग एक मत से लोकप्रिय धारणा के उलट मेरा विश्वास है कि अपराध की शैलियाँ और अपराधियों के चेहरे हमारे समाज का असली चेहरा पेश करते हैं। जो समाज को स्वीकार्य नहीं है, वह अपराध है; यह धारणा तो आम है ही, इसके साथ ही यह भी जोड़ दिया जाता है कि समाज के भद्र लोक को हत्या, बलात्कार और डकैती जैसी गंदी बातों में कोई खास रुचि नहीं है। "पाप के दस्तावेज़" आपके हाथों में है और अब यह आपको ही तय करना है कि दस्तावेज़ों को तैयार करके मैंने या मेरे प्रकाशक अरुण माहेश्वरी ने पाप किया है या पुण्य।

और हाँ, इस पुस्तक की पहली प्रति श्री राहुल देव के लिए। आखिर वे ही थे, जिन्होंने मुझे पत्रकारिता में यह 'अपराध' करने के लिए उकसाया था और सबसे पहले ये अपराध कथाएँ छापी थीं।
30 अगस्त, 95

आलोक जी के इस आकर्षक, अनोखे व असरदार अंदाज़े-बयां से उनकी किताब के ज़रिये रूबरू होना हर लिहाज़ से यक़ीनन एक अलग अहसास को भोगने जैसा है, और इस बहाने उन्हें एक बार फिर शिद्दत से जीने का मौक़ा मिलता है।

आलोक तोमर ग्वालियर से प्रकाशित दैनिक स्वदेश, यूनिवार्ता, जनसत्ता, दैनिक भास्कर, ज़ी न्यूज़, एनडीटीवी, दूरदर्शन, आज तक (बतौर कंसल्टेंट), होम टीवी, आदि के उन्नयन में अपना अप्रतिम योगदान देते रहे। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के मीडिया प्रभाग से जुड़े रहे। उन्होंने पत्रकारिता के ऊपर पाँच बेहतरीन किताबें लिखीं। साथ ही, अमिताभ बच्चन के लोकप्रिय  कार्यक्रम “कौन बनेगा करोड़पति” के आरम्भिक दौर की स्क्रिप्ट भी लिखी। जो भी काम उन्होंने अपने ज़िम्मे लिया, पूरे मनोयोग से, तन्मयतापूर्वक प्रमुदित होकर किया।

उनके हर आलेख से आलोकत्व की भीनी-भीनी सुरभि महसूस की जा सकती है। अद्भुत अंदाज़े-बयां, आकर्षक क़िस्सागोई, बिना ख़बर की रूह को कुचले, बगैर सूचना की आत्मा को मसले ; उसे अपनी अनुपम संवाद-कला से लोगों के दिलो-दिमाग़ तक पहुँचाना- ये सब उनके सरल व्यक्तित्व व कुशल नेतृत्व के नायाब तत्व थे। वे समाचार की संप्रेषणीयता व प्रस्तुति की गुणवत्ता को लेकर कोई समझौता नहीं करते थे। इसी बात ने उन्हें जनसत्ता जैसे गंभीर मानस के अख़बार में भी दिलचस्प रिपोर्टिंग का पर्याय बनाये रखा और वे इस मामले में औरों से स्वतः अलग दिखते थे। आज पत्रकारिता का जिस्म तो बुलंद है, पर इसकी आत्मा नासाज़ हो चली है। तोमर साहब ताउम्र इस रुग्णात्मा की तीमारदारी में लगे रहे। प्रो. बरेलवी के शब्दों में,

जिन्हें सलीक़ा है तहज़ीबे-ग़म समझने का
उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते।

‘वसीम’ ज़ेहन बनाते हैं तो वही अख़बार
जो लेके एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते।
प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अपने संवाद-कौशल से विशिष्ट स्थान बनाने वाले आलोक जी को ऊँचाई छूने के बावजूद “होलॉ डोमिनंस व अगली ईगो” छू तक न पाया। यह संवेदनशील मन अंतर की गहराइयों से प्रेम की स्याही में सराबोर अपनी लेखनी से 23 वर्षों तक निरंतर नयी इबारत लिखता हुआ लोकशाही की जड़ सींचता चला गया। न सस्ती लोकप्रियता की कभी ख्वाहिश रही, न ही अप्रियता से डरे। उनके सुनहरे पत्रकारीय सफ़र में न जाने कितने लोग मिले-बिछड़े, पर कभी अपने आदर्शों व मूल्यों से समझौता नहीं किया। “फिअर नन, फेइवर नन एंड स्पेअर नन” के संकल्प से कभी डिगे नहीं। ज़ाहिर है, कई दुश्वारियाँ भी आयीं, पर लोकतांत्रिक संस्था के प्रति आस्था ने उनकी राहें हमवार कर दी।

उनकी पत्रकारिता में बेचारगी व लाचारगी जैसी कोई चीज़ नहीं थी। शुरू से लेकर अंत तक एक सरल रेखा खींची जा सकती है, उनके अंदाज़ में, उनके मिज़ाज में कहीं कोई वक्रता नहीं आयी। आज की तारीख़ में जबकि मीडिया की इस विस्तृत-अपरिमित दुनिया में पहला क़दम रखने से पहले  नये दीवाने गॉड फादर की तलाश में लग जाते हैं, वैसे में पत्रकारिता को जीवन-धर्म के रूप में अपनाने वाले आलोक जी के जीवन-वृत्त का यदि हम सम्यक् मूल्यांकन करें, तो उनके हमसूबे शायर दुष्यन्त के ये शेर बहुत प्रासंगिक लगते हैं :

देखिए किस सम्त जाकर किस जगह गिरता हूँ मैं
आँधियों के दोश पर उड़ता हुआ पत्ता हूँ मैं।

और,
हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया
हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही।

मौजूदा पीढ़ी जहाँ पत्रकारिता को जीवन क्षेत्र में हारे हुए लोगों की अंतिम शरणस्थली साबित करने में लगी हुई है, वहीं आलोक की समृद्ध व कुशाग्र प्रज्ञात्मक धरोहर हमारा सचेतीकरण करती है, सुषुप्त चेतना व संवेदना को झकझोरते-झिंझोरते हुए हमारा संवेदीकरण करती है, और बरेलवी साहब के शब्दों में हमें आगाह करती है :

उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है।

नयी उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये
कहाँ से बच के चलना है, कहाँ जाना ज़रूरी है।

अपने पेशेवर जीवन से इतर ये उनकी भावनात्मक शुचिता ही थी कि अपने लोक-व्यवहार से साहित्य-प्रेमी व पत्रकार-हृदय पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी का स्नेह वे निजी ज़िन्दगी में पाते रहे। किन्तु, इस वैयक्तिक व पारिवारिक संबंध का असर उन्होंने कभी अपने पाक़ पेशे पर नहीं पड़ने दिया। आलोक जी की ज़िंदगी की सच्चाई व समझ उनकी इन मर्मस्पर्शी पंक्तियों से प्रतिबिम्बित होती है :

मैं डरता हूँ कि मुझे डर क्यों नहीं लगता,

जैसे कोई बीमारी है अभय होना,
जैसे कोई कमज़ोरी है निरापद होना
जो निरापद होते हैं, भय व्यापता है उन्हें भी
पर भय किसी को निरापद नहीं होने देता ।

ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व की असाधारण क्षमता का लाभ हमारी नयी पीढ़ी को अभी मिलना ही था कि नियति ने उन्हें हमसे अलग कर दिया। 20 मार्च, 2011 को कालजयी रचना करने वाले हमारे अज़ीज़ पत्रकार, साहित्यवेत्ता, सुहृद-व्यवहारकुशल मित्र व अनुकरणीय इंसान को काल ने हम सबसे छीन लिया। उनसे न मिल पाने का मुझे अफसोस है। एक ऐसे बेमिसाल इंसान, जिनसे न मिलकर भी मिलने का अहसास है। आलोक जी ! आज आप हमारे बीच जिस्मानी रूप से भले न हों, पर आपके रूहानी सान्निध्य को मेरा रोम-रोम महसूस करता है। हो सकता है, आपसे मिलकर आपको इतना न जान पाता, पर न मिलकर भी आपको बख़ूबी जिया है। हम सब आपकी यादों के साथ आपको शिद्दत से याद करते हैं, प्यार करते हैं। आप जहाँ भी हैं, आपको बहुत-बहुत हार्दिक बधाई ! पर, क्या कीजै, जब कभी आपकी निष्कपट-निष्कलुष शख्सियत के बारे में सोचता हूँ व मातृसमा सुप्रिया रॉय जी के साथ आपकी तस्वीरें देखता हूँ, आपकी शान्त-विमल-निश्छल-नैसर्गिक मुस्कराहट एक साथ होठों पे हसी व आँखों में नमी ले आती है। हाँ, अब मैं आपसे अनौपचारिक हो चला हूँ, और हाँ, मुझे है शिकायत आपसे :

ये कब सूझी तुझे बिछड़ने की,
कि अब तो जाके कहीं दिन संवरने वाले थे।
आलोक जी ! हम मिलेंगे एक दिन, फिर कभी न जुदा होने के लिए...

उनका स्मरण करते हुए मित्र अमरेश ‘आकाश’ की रचना  “आलोक तक” मुझे बल देती है :

वेदना के तिमिरमय इस लोक से, आ तुझे मैं ले चलूँ आलोक तक।
छोड़ दो अब ग़म के सारे भार मुझ पर, आ लुटा दूँ हृदय का सब प्यार तुझ पर।
आ तेरा पथ आज आलोकित मैं कर दूँ, मोम-सा ये तन जलाकर, स्वयं बुझकर।
क्यों छुपा कर ग़म को यूँ चलता रहा, हर्ष के सीमान्त से इस शोक तक।
आ तुझे मैं ले चलूँ आलोक तक, वेदना के...

काँच के टूटे हुए इस धार पर, क्यों लुटा दी प्राण तूने प्यार पर ?
क्या मिला तुझको यहाँ इस खेल में, जीतकर ख़ुद को या ख़ुद को हार कर ?
ले तेरी खातिर हूँ लाया मन तपाकर सुधा-रस, चुड़ाकर दो बूँद स्वाति जैसे आता कोक तक।
आ तुझे मैं ले चलूँ आलोक तक, वेदना के...

दर्द की दीवारों पे क्योंकर आह है ? हर्ष का वातायन वहाँ, जहाँ चाह है।
बढ़ाकर तो देख पथ पर दो क़दम, हाँ तेरी मंज़िल की ही तो राह है।
तू चले तब तक चलूँ मैं, ग़म भरे इस लोक से उस लोक तक।
आ तुझे मैं ले चलूँ आलोक तक, वेदना के तिमिरमय इस लोक से।

ख़बरपालिका में उत्तरदायित्व-बोध व साहित्यिक समाज में लोक-जागृति का भाव बढ़े, कतिपय अपसंस्कृति दूर हो, सही-सच्ची-समग्र सूचना जन-सशक्तीकरण में सहायक हो, हमारा आचरण मर्यादा व संवेदनशीलता का प्रतिबिम्ब हो, हमारे लेखन-वाचन-प्रस्तुतीकरण से गरिमा की किरणें फूटें, देश के हर हिस्से के सरोकारों की समुचित-समानुपातिक रिपोर्टिंग हो, बेज़बानों के हित में; उनके जीवन-स्तर को उठाने हेतु हम सार्थक व सकारात्मक दिशा में अपेक्षित-अभीष्ट लेखनी चलायें, परिमार्जित व परिष्कृत सोच के साथ हम लोकतांत्रिक मूल्यों की हिफाज़त करते हुए राष्ट्रनिर्माण में लगें; जिनके लिए आलोक जी आजीवन प्रतिबद्ध रहे - यही हमारी ओर से आलोक जी को सच्ची भेंट होगी ! मैं जीवटता से भरी आदरणीया सुप्रिया रॉय जी, जो उनके अधूरे मिशन को आगे ले जाने हेतु कृतसंकल्प हैं, को शुभकामनाएँ देता हूँ, उनके सुकूनमय व आरोग्यमय जीवन की कामना करता हूँ। उनकी प्यारी बिटिया आद्याशा की अपूर्व-अप्रत्याशित कामयाबी की मंगलकामना करता हूँ। आलोक जी के अधूरे सपनों में निरंतर रंग भरने हेतु उनका विशाल कारवाँ अनवरत चलता रहेगा। एक बार पुनः जन्मदिन की ढेर सारी दिली बधाई!

- जयन्त जिज्ञासु
ईमेल : jigyasu.jayant@gmail.com
सम्पर्क सूत्र : 9013272895
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में अध्ययनरत हैं।)
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