Toc News @ अवधेश पुरोहित
भोपाल। भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में प्रदेश में लगे कुपोषण के कलंक को मिटाने के लिए जहां २२ अरब रुपयों का बजट मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारी के संरक्षण में पत्रकार, राजनेता और मंत्री के सक्रिय रैकेट के चलते खर्च कर दिये गये लेकिन इसके बावजूद भी इस प्रदेश से कुपोषण का कलंक मिटने का नाम नहीं ले रहा है। स्थिति यह है कि अब राज्य की महिला एवं बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनीस के गृह जिले के साथ-साथ झाबुआ और श्योपुर जो कि पहले ही इस मामले में भोपाल से लेकर दिल्ली तक सुर्खियों में रहा वहाँ कुपोषण का कलंक समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है, मजे की बात यह है कि यह कुपोषण की गिरफ्त में वह नौनिहाल या गर्भवती महिलाएं आ रही हैं जो आदिवासी हैं।
यूँ तो राज्य में आदिवासियों के विकास के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च किये गये लेकिन उसके बाद भी आदिवासियों का विकास उनकी जमीनी हकीकत देखकर ऐसा लगता है कि यह आज भी मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के स्वर्णिम मध्यप्रदेश में नहीं बल्कि आदिकाल में जी रहे हों। राज्य में कुपोषण की स्थिति यह है कि ग्वालियर चंबल संभाग में सरकार द्वारा स्थापित एनआरसी में भी कुपोषित बच्चों की भरमार हो गई है और अब वहाँ भर्ती करने के लिये जगह तक नहीं बची है। मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में छ: साल तक के बच्चों में गंभीर कुपोषण की समस्या एकीकृत बाल विकास परियोजना की चूक को भी तो उजागर करता ही है, तो वहीं सतना, खण्डवा, शिवपुरी, श्योपुर और होशंगाबाद के अलावा प्रदेश के भील बाहुल्य जिलों में जीरो से लेकर पाँच वर्ष तक के २१ फीसदी बच्चे कम पाये गये एकीकृत बाल विकास सेवा के आंकड़े बताते हैं
कि कुल एक लाख ८५ हजार बच्चों में से लगभग ३६ हजार बच्चे कम वजन वाले हैं, इनमें से ढाई हजार से ज्यादा बच्चे अति कुपोषित हैं, यह आंकड़े तो सरकारी हैं, लेकिन गैर सरकारी आंकड़ों को यदि मिला दिया जाए तो यह संख्या सरकारी आंकड़ों से कई गुना ज्यादा है। यह वही आदिवासी बाहुल्य जिला झाबुआ है जहाँ भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान कुपोषण की गिरफ्त में आकर कई बच्चों की मौत हुई थी और तब झाबुआ से लेकर भोपाल तक और दिल्ली से लेकर भोपाल तक हंगामा ठीक उसी तरह से खड़ा हुआ था जिस तरह से श्योपुर में १९ कुपोषित बच्चों की मौत को लेकर हंगामे का दौर चल रहा है, लेकिन मजे की बात यह है कि जब कुपोषण के शिकार बच्चों और गर्भवती महिलाओं की मौत की खबरें सुर्खियों में होती हैं तभी यह सरकार जागती है,
नहीं तो कुपोषण के नाम पर पूरा खेल कागजों में रंगोली की तरह से आंकड़ेबाजी करके मैदानी स्तर से लेकर मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारी द्वारा इन कुपोषित बच्चों और गर्भवती महिलाओं के मुंह के निवाले पर डाका डालकर अपनी तिजोरियां भरने में लगे रहते हैं, इस सरकार के कार्यकाल के दौरान खर्च किए गए २२ अरब रुपयों के बाद भी मैदानी स्तर पर कोई सुधार न होना इस बात का संकेत है कि कुपोषण के नाम पर जो भ्रष्टाचार की गंगोत्री मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारी से लेकर इस योजना में लगे मैदानी स्तर के अधिकारियों तक बह रही है, आखिर उसके पीछे किस राज्य की अदृश्य शक्ति का हाथ है और किस अदृश्य शक्ति के संरक्षण में मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारी के संरक्षण में इतनी भारी भरकम रकम कागजों पर ही खर्च कर दी गई,
लेकिन इसके बावजूद भी न तो अति कुपोषित क्षेत्र ग्वालियर-चंबल संभाग की स्थिति में परिवर्तन आया और न ही वर्षों पूर्व सुर्खियों में रहे आदिवासी बाहुल्य जिला झाबुआ में और न प्रदेश के संगठन के मुखिया नंदकुमार सिंह चौहान के साथ-साथ महिला बाल विकास की मंत्री जिन पर यह जिम्मेदारी है उनके क्षेत्र में कोई परिवर्तन आता दिखाई नहीं दिया, अब स्थिति यह हो गई है कि कुपोषण से जहाँ एक के बाद एक बच्चों की मौत होने का सिलसिला जारी है तो वहीं वन्याचल ग्राम बुरलढाना (करवानी) में भी एक गर्भवती महिला सुगंती पति प्रदीप को खालवा से प्रसव पीढ़ा को लेकर जिला अस्पताल पहुंचाया गया, वहाँ उसकी मौत हो गई, अब तक क्षेत्र के आधा दर्जन मासूमों को कुपोषण ने अपनी गिरफ्त में ले रखा है,
सरकारी कागजी घोड़े दौड़ाने के बीच जहां हजारों लोग मौत के मुहाने पर खड़े हैं तो वहीं आदिवासी बाहुल्य जिला झाबुआ और अलीराजपुर में भी लगभग यही स्थिति है, स्थिति यह है कि ऊपर से लेकर नीचे तक बह रही भ्रष्टाचार की गंगोत्री में विकास के आंकड़ों की रंगोली सजाकर सरकार के मुखिया को भ्रमित करने का काम उनके इर्द-गिर्द वाले अधिकारियों के संरक्षण में किया जा रहा है, यही वजह है कि प्रदेश में इसी तरह के आंकड़ों के भरोसे विकास की गंगा बह रही है और मुख्यमंत्री कांग्रेसियों की आपसी लड़ाई और विभिन्न गुटों में बंटे रहने का पूरा लाभ उठाकर यह दावा करते नजर आते हैं कि तीसरी बार सत्ता हमने विकास के नाम पर प्राप्त की है,
जबकि जबकि जमीनी हकीकत यह है कि वर्षों पहले इन्हीं के शासनकाल के दौरान कुपोषण से बच्चों की मौत के बाद सुर्खियों में आये झाबुआ और श्योपुरकला में वर्षों बाद भी कोई खास परिवर्तन नहीं आया, यदि परिवर्तन आया तो सिर्फ अधिकारियों की फर्जी आंकड़ों की रंगोली सजाने में जिसमें वह पूरे प्रदेश में कुपोषण से प्रभावित क्षेत्र में सबकुछ ठीकठाक बताने में लगे हुए हैं लेकिन इसके बाद भी वर्षों पहले कुपोषण को लेकर सुर्खियों में रहे आदिवासी बाहुल्य जिला झाबुआ जिसका कुछ हिस्सा आज नये बने अलीराजपुर में चला गया यह दोनों जिलों के नौनिहाल आज भी कुपोषण के चपेट में हैं और इन दोनों जिलों में सबसे ज्यादा आबादी भीलों की है और वही भील आदिवासी दो जिलों में से एक झाबुआ में भील आदिवासी बच्चे १८५७२९ हैं, जिनमें वजन लिये गये बच्चों की १७१५१७ है, जिन बच्चों का वजन नहीं लिया गया उनकी संख्या १४२१३ है,
जबकि कम वजन वाले बच्चों की संख्या ३३९३६ है अति कम वजन वाले बच्चों की संख्या २५६६ है, झाबुआ जिले में आंगनबाडिय़ों की संख्या १६०६ है तो वहीं मिनी आंगनबाडिय़ों की संख्या ८०४ है, यानि कुल मिलाकर भील बाहुल्य झाबुआ जिले में २४१० आंगनबाडिय़ां हैं मजे की बात यह है कि पिछले दिनों इसी महिला बाल विकास के अंतर्गत आने वाली एक महिला कर्मचारी पर लोकायुक्त ने रिश्वत लेते हुए पकड़ा था, इससे यह पता चल जाता है कि राज्य में भ्रष्टाचार की गंगोत्री उन कार्यालयों में भी नहीं बह रही है जहाँ आम जनता का सरोकार रहता है बल्कि कुपोषण और गर्भवती महिलाओं के निवाले पर तो डाका डालने का काम तो जारी ही है तो वहीं इस योजना में कार्यरत कर्मचारी भी रिश्वत लेने से अछूते नहीं हैं तो फिर इस विभाग के उच्च अधिकारियों की स्थिति क्या होगी?
एक ओर प्रदेश के लाखों नौनिहाल और महिलाएं कुपोषण की गिरफ्त में हैं तो यह सरकार इनको इससे मुक्ति दिलाने के लिये दूध की नदियां नहीं बल्कि शराब को घर पहुंच सेवा के रूप में प्रचलित करने में लगी हुई है, तो वहीं राज्य की सत्ता के मुखिया जिन्हें शराब के मामले मं एक सरकारी निर्णय के चलते रातभर नींद नहीं आई थी और बाद में उन्होंने अपनी इस सरकार के इस निर्णय के बदल दिये जाने के बाद अब वे चैन की नींद ले रहे हैं लेकिन राज्य में आज भी इसी शराब के बढ़ते प्रचलन के चलते लाखों लोग तमाम बीमारियों के साथ-साथ उनके बच्चे और महिलाएं कुपोषण से जूझ रही हैं क्योंकि सुरा के आदि उनके पति अपनी कमाई का अधिकांश हिस्सा अपनी इस शराबखोरी में गंवा देते हैं, इसके चलते उनकी प्राथमिकता बच्चों को और महिलाओं के लिये दूध खरीदने के लिये नहीं बल्कि शराब खरीदने की ज्यादा बनी रहती है इन्हीं सब कारणों के चलते राज्य आज भी कुपोषण से मुक्ति नहीं पा रहा है।
भोपाल। भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में प्रदेश में लगे कुपोषण के कलंक को मिटाने के लिए जहां २२ अरब रुपयों का बजट मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारी के संरक्षण में पत्रकार, राजनेता और मंत्री के सक्रिय रैकेट के चलते खर्च कर दिये गये लेकिन इसके बावजूद भी इस प्रदेश से कुपोषण का कलंक मिटने का नाम नहीं ले रहा है। स्थिति यह है कि अब राज्य की महिला एवं बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनीस के गृह जिले के साथ-साथ झाबुआ और श्योपुर जो कि पहले ही इस मामले में भोपाल से लेकर दिल्ली तक सुर्खियों में रहा वहाँ कुपोषण का कलंक समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है, मजे की बात यह है कि यह कुपोषण की गिरफ्त में वह नौनिहाल या गर्भवती महिलाएं आ रही हैं जो आदिवासी हैं।
यूँ तो राज्य में आदिवासियों के विकास के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च किये गये लेकिन उसके बाद भी आदिवासियों का विकास उनकी जमीनी हकीकत देखकर ऐसा लगता है कि यह आज भी मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के स्वर्णिम मध्यप्रदेश में नहीं बल्कि आदिकाल में जी रहे हों। राज्य में कुपोषण की स्थिति यह है कि ग्वालियर चंबल संभाग में सरकार द्वारा स्थापित एनआरसी में भी कुपोषित बच्चों की भरमार हो गई है और अब वहाँ भर्ती करने के लिये जगह तक नहीं बची है। मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में छ: साल तक के बच्चों में गंभीर कुपोषण की समस्या एकीकृत बाल विकास परियोजना की चूक को भी तो उजागर करता ही है, तो वहीं सतना, खण्डवा, शिवपुरी, श्योपुर और होशंगाबाद के अलावा प्रदेश के भील बाहुल्य जिलों में जीरो से लेकर पाँच वर्ष तक के २१ फीसदी बच्चे कम पाये गये एकीकृत बाल विकास सेवा के आंकड़े बताते हैं
कि कुल एक लाख ८५ हजार बच्चों में से लगभग ३६ हजार बच्चे कम वजन वाले हैं, इनमें से ढाई हजार से ज्यादा बच्चे अति कुपोषित हैं, यह आंकड़े तो सरकारी हैं, लेकिन गैर सरकारी आंकड़ों को यदि मिला दिया जाए तो यह संख्या सरकारी आंकड़ों से कई गुना ज्यादा है। यह वही आदिवासी बाहुल्य जिला झाबुआ है जहाँ भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान कुपोषण की गिरफ्त में आकर कई बच्चों की मौत हुई थी और तब झाबुआ से लेकर भोपाल तक और दिल्ली से लेकर भोपाल तक हंगामा ठीक उसी तरह से खड़ा हुआ था जिस तरह से श्योपुर में १९ कुपोषित बच्चों की मौत को लेकर हंगामे का दौर चल रहा है, लेकिन मजे की बात यह है कि जब कुपोषण के शिकार बच्चों और गर्भवती महिलाओं की मौत की खबरें सुर्खियों में होती हैं तभी यह सरकार जागती है,
नहीं तो कुपोषण के नाम पर पूरा खेल कागजों में रंगोली की तरह से आंकड़ेबाजी करके मैदानी स्तर से लेकर मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारी द्वारा इन कुपोषित बच्चों और गर्भवती महिलाओं के मुंह के निवाले पर डाका डालकर अपनी तिजोरियां भरने में लगे रहते हैं, इस सरकार के कार्यकाल के दौरान खर्च किए गए २२ अरब रुपयों के बाद भी मैदानी स्तर पर कोई सुधार न होना इस बात का संकेत है कि कुपोषण के नाम पर जो भ्रष्टाचार की गंगोत्री मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारी से लेकर इस योजना में लगे मैदानी स्तर के अधिकारियों तक बह रही है, आखिर उसके पीछे किस राज्य की अदृश्य शक्ति का हाथ है और किस अदृश्य शक्ति के संरक्षण में मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारी के संरक्षण में इतनी भारी भरकम रकम कागजों पर ही खर्च कर दी गई,
लेकिन इसके बावजूद भी न तो अति कुपोषित क्षेत्र ग्वालियर-चंबल संभाग की स्थिति में परिवर्तन आया और न ही वर्षों पूर्व सुर्खियों में रहे आदिवासी बाहुल्य जिला झाबुआ में और न प्रदेश के संगठन के मुखिया नंदकुमार सिंह चौहान के साथ-साथ महिला बाल विकास की मंत्री जिन पर यह जिम्मेदारी है उनके क्षेत्र में कोई परिवर्तन आता दिखाई नहीं दिया, अब स्थिति यह हो गई है कि कुपोषण से जहाँ एक के बाद एक बच्चों की मौत होने का सिलसिला जारी है तो वहीं वन्याचल ग्राम बुरलढाना (करवानी) में भी एक गर्भवती महिला सुगंती पति प्रदीप को खालवा से प्रसव पीढ़ा को लेकर जिला अस्पताल पहुंचाया गया, वहाँ उसकी मौत हो गई, अब तक क्षेत्र के आधा दर्जन मासूमों को कुपोषण ने अपनी गिरफ्त में ले रखा है,
सरकारी कागजी घोड़े दौड़ाने के बीच जहां हजारों लोग मौत के मुहाने पर खड़े हैं तो वहीं आदिवासी बाहुल्य जिला झाबुआ और अलीराजपुर में भी लगभग यही स्थिति है, स्थिति यह है कि ऊपर से लेकर नीचे तक बह रही भ्रष्टाचार की गंगोत्री में विकास के आंकड़ों की रंगोली सजाकर सरकार के मुखिया को भ्रमित करने का काम उनके इर्द-गिर्द वाले अधिकारियों के संरक्षण में किया जा रहा है, यही वजह है कि प्रदेश में इसी तरह के आंकड़ों के भरोसे विकास की गंगा बह रही है और मुख्यमंत्री कांग्रेसियों की आपसी लड़ाई और विभिन्न गुटों में बंटे रहने का पूरा लाभ उठाकर यह दावा करते नजर आते हैं कि तीसरी बार सत्ता हमने विकास के नाम पर प्राप्त की है,
जबकि जबकि जमीनी हकीकत यह है कि वर्षों पहले इन्हीं के शासनकाल के दौरान कुपोषण से बच्चों की मौत के बाद सुर्खियों में आये झाबुआ और श्योपुरकला में वर्षों बाद भी कोई खास परिवर्तन नहीं आया, यदि परिवर्तन आया तो सिर्फ अधिकारियों की फर्जी आंकड़ों की रंगोली सजाने में जिसमें वह पूरे प्रदेश में कुपोषण से प्रभावित क्षेत्र में सबकुछ ठीकठाक बताने में लगे हुए हैं लेकिन इसके बाद भी वर्षों पहले कुपोषण को लेकर सुर्खियों में रहे आदिवासी बाहुल्य जिला झाबुआ जिसका कुछ हिस्सा आज नये बने अलीराजपुर में चला गया यह दोनों जिलों के नौनिहाल आज भी कुपोषण के चपेट में हैं और इन दोनों जिलों में सबसे ज्यादा आबादी भीलों की है और वही भील आदिवासी दो जिलों में से एक झाबुआ में भील आदिवासी बच्चे १८५७२९ हैं, जिनमें वजन लिये गये बच्चों की १७१५१७ है, जिन बच्चों का वजन नहीं लिया गया उनकी संख्या १४२१३ है,
जबकि कम वजन वाले बच्चों की संख्या ३३९३६ है अति कम वजन वाले बच्चों की संख्या २५६६ है, झाबुआ जिले में आंगनबाडिय़ों की संख्या १६०६ है तो वहीं मिनी आंगनबाडिय़ों की संख्या ८०४ है, यानि कुल मिलाकर भील बाहुल्य झाबुआ जिले में २४१० आंगनबाडिय़ां हैं मजे की बात यह है कि पिछले दिनों इसी महिला बाल विकास के अंतर्गत आने वाली एक महिला कर्मचारी पर लोकायुक्त ने रिश्वत लेते हुए पकड़ा था, इससे यह पता चल जाता है कि राज्य में भ्रष्टाचार की गंगोत्री उन कार्यालयों में भी नहीं बह रही है जहाँ आम जनता का सरोकार रहता है बल्कि कुपोषण और गर्भवती महिलाओं के निवाले पर तो डाका डालने का काम तो जारी ही है तो वहीं इस योजना में कार्यरत कर्मचारी भी रिश्वत लेने से अछूते नहीं हैं तो फिर इस विभाग के उच्च अधिकारियों की स्थिति क्या होगी?
एक ओर प्रदेश के लाखों नौनिहाल और महिलाएं कुपोषण की गिरफ्त में हैं तो यह सरकार इनको इससे मुक्ति दिलाने के लिये दूध की नदियां नहीं बल्कि शराब को घर पहुंच सेवा के रूप में प्रचलित करने में लगी हुई है, तो वहीं राज्य की सत्ता के मुखिया जिन्हें शराब के मामले मं एक सरकारी निर्णय के चलते रातभर नींद नहीं आई थी और बाद में उन्होंने अपनी इस सरकार के इस निर्णय के बदल दिये जाने के बाद अब वे चैन की नींद ले रहे हैं लेकिन राज्य में आज भी इसी शराब के बढ़ते प्रचलन के चलते लाखों लोग तमाम बीमारियों के साथ-साथ उनके बच्चे और महिलाएं कुपोषण से जूझ रही हैं क्योंकि सुरा के आदि उनके पति अपनी कमाई का अधिकांश हिस्सा अपनी इस शराबखोरी में गंवा देते हैं, इसके चलते उनकी प्राथमिकता बच्चों को और महिलाओं के लिये दूध खरीदने के लिये नहीं बल्कि शराब खरीदने की ज्यादा बनी रहती है इन्हीं सब कारणों के चलते राज्य आज भी कुपोषण से मुक्ति नहीं पा रहा है।
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