सहज संवाद : कला साधना से होता है रचनात्मकता का विकास |
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सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया
तूलिका की भाषा में होने वाला संवाद रागात्मक पक्षों की एक सशक्त भावाभिव्यक्ति है। इस भाषा को जानने के लिए एक कठिन तपश्चर्या से गुजरना पडता है। कला दीर्घाओं में होने वाला यह मौन संवाद संवेदनशील लोगों को न केवल सुख प्रदान करता है बल्कि कल्पनातीत आनन्द की दरिया में गोते भी लगाने के लिए वातावरण निर्मित करता है।
कुछ दिखावे की लालसा से लालायित लोगों को छोड दें तो कला के पारखी तूलिका से उभारे गये सार्थक अनुभव को अपनी प्रेरणा बनाकर नये कीर्तिमान स्थापित करने की दिशा में अग्रसर होने लगते है। ज्ञान-विज्ञान से लेकर लोकाचारों तक की सांस्कृतिक विरासत के साथ-साथ पारलौकितता का बोध करने वाली एक कला प्रदर्शनी देखते-देखते हमें महाराज छत्रसाल की धरती से जुडे एक कलाकार की याद ताजा होने लगी।
सीमित संसाधनों के साथ अपनी कला साधना को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने वाले रामकुमार सोनी, स्मृतियों में अंगडाई ले ही रहे थे कि मोबाइल की घंटी बज उठी। आश्चर्य की सीमा न रही जब यह देखा कि रामकुमार जी का फोन है। इस प्रकार की टैलीपैथी का व्यवहारिक अनुभव पहली बार हुआ। जिसे याद किया, उसे भी न केवल हमारी याद आई बल्कि पहल भी उसी की ओर से हुई। हमने उन्हें कला प्रदर्शनी, उसमें सजा कर रखी गई कृतियों में भरी अटूट संपदा और उनसे छन-छन कर आते अनुभव मिश्रित कथानकों को विस्तार से बताया।
उन्होंने कहा कि यह तो पारखी की नजर का कमाल होता है जो प्रकृति को देवता समझकर आराध्य मानता है वरना ज्यादातर लोग तो उसे मात्र उपयोग की वस्तु मानकर मजा लेने में जुट जाते हैं। हमने उनके साथ अतीत की गहराइयों में जाकर मोती ढूंढने की कोशिश की। स्वर्ण-कला को नये प्रयोगों के आधार पर सजाने-संवारने में लगे बनारस घराने के परिवार में जन्मे रामकुमार जी ने छतरपुर रियासत में संरक्षित परम्परागत कला को भी आधुनिकता की पालिश से चमकाने जी-तोड प्रयास किया।
बुंदेली उत्सवों की श्रृंखला से लेकर अनेक कला प्रदर्शनियों में अपनी तूलिका का लोहा मनवाया। कला को कल्पना और अनुभव के समुच्चय के रूप में देखने की बात करते हुए उन्होंने कहा कि बदलते समय के साथ देश, काल और परिस्थितियां भी नये मोड लेती रहती हैं। आवश्यकता होती है मांग के अनुरूप संवाद की शैली को निर्धारित करने की। जीवन के विभिन्न आयाम आकर्षण का केन्द्र होते हैं जिनका का सिलसिला अनन्त तक पहुंचता है। इन्हीं आकर्षणों को कल्पना के साथ जोड कर समसामयिक बनाना और फिर उसे तूलिका की भाषा में कुशलता से पिरोना ही कला साधक की दक्षता को प्रदर्शित करती है।
वे कला की बारीकियों को बखान कर रहे थे और हमारी अन्तर्दृष्टि उनकी लोकप्रिय कृतियों का अवलोकन करने लगी, जिसमें महाराज छत्रसाल की विभिन्न मुद्राओं, बुंदेली वैभव के स्मारक और प्रकृति के व्दारा लुटाये खजाने के नयनाभिराम चित्र शामिल थे। कला के विभिन्न पक्षों को पेंसिल, पेन, आयल पेन्ट्स, वाटर कलर्स के माध्यम से उजागर करना सहज नहीं होता। तूलिका के साथ राजकुमार जी ने मूर्ति कला को भी नये आयाम दिये। मृत्यु पूर्व मूर्तियों का निर्माण कराने वालों ने इस स्थापित कलाकार की साधना का भरपूर लाभ उठाया और ‘जिन्दाबाद’ से चार कदम आगे बढकर ‘अमर रहें’ के दरवाजे पर दस्तक दे दी।
मोबाइल के माध्यम से कानों में गूंज रहे शब्दों और अन्तर्मन में चल रहे दृश्य संवादों में अवरोध तब लगा जब मोबाइल में काल वेटिंग की आवाज आने लगी। काल हमारे आफिस से आया था, सो सुनना जरूरी था। अपनी मजबूरी बताकर संवाद को बीच में ही रोकने के लिए रामकुमार जी से क्षमा मांगी और वेटिंग में आ रही काल को अटेंड किया। कला प्रदर्शनी की समीक्षा के बारे में अपडेट मांगा जा रहा था।
आफीसियल काम को निपटाकर हम पुनः दीर्घा में रखे चित्रों में खो गये। इस दौरान बुंदेली धरा की सौंधी गंध में रची-बसी कृतियों ने हमारा साथ नही छोडा। वास्तव में कला साधना से होता है रचनात्मकता का विकास जिसे समाज को घनात्मक दिशा देना सम्भव होता है। प्रेरणा बनकर जीवन को संवारने में सक्षम होती है कला कृतियां। इस बार बस इतना ही। अगले हफ्ते एक नयी शक्सियत के साथ फिर मुलाकात होगी, तब तक के लिए खुदा हाफिज।
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