काले कर्मों वाले बाबा
बाबा रामदेव काफी समय से देश भर में काले धन के
खिलाफ अभियान चला रहे हैं. लेकिन तहलका की पड़ताल बताती है कि असल में उनका
खुद का हाल पर उपदेश कुशल बहुतेरे जैसा है. काले धन को लेकर सरकारों को
पानी पी-पीकर कोसने वाले बाबा रामदेव खुद उसी काले धन के पहाड़ पर विराजमान
हैं. मनोज रावत की रिपोर्ट
साल 2004 की बात है. बाबा रामदेव योगगुरु के रूप में
मशहूर हुए ही थे. चारों तरफ उनकी चर्चा हो रही थी. टीवी चैनलों पर उनकी धूम
थी. देश के अलग-अलग शहरों में चलने वाले उनके योग शिविरों में पांव रखने
की जगह नहीं मिल रही थी और बाबा के औद्योगिक प्रतिष्ठान दिव्य फार्मेसी की
दवाओं पर लोग टूटे पड़ रहे थे.लेकिन फार्मेसी ने उस वित्तीय वर्ष में सिर्फ
छह लाख 73 हजार मूल्य की दवाओं की बिक्री दिखाई और इस पर करीब 54 हजार
रुपये बिक्री कर दिया गया. यह तब था जब रामदेव के हरिद्वार स्थित आश्रम में
रोगियों का तांता लगा था और हरिद्वार के बाहर लगने वाले शिविरों में भी
उनकी दवाओं की खूब बिक्री हो रही थी. इसके अलावा डाक से भी दवाइयां भेजी जा
रही थीं.
रामदेव के चहुंओर प्रचार और देश भर में उनकी दवाओं की मांग को देखकर
उत्तराखंड के वाणिज्य कर विभाग को संदेह हुआ कि बिक्री का आंकड़ा इतना कम
नहीं हो सकता. उसने हरिद्वार के डाकघरों से सूचनाएं मंगवाईं. पता चला कि
दिव्य फार्मेसी ने उस साल 3353 पार्सलों के जरिए 2509.256 किग्रा माल बाहर
भेजा था. इन पार्सलों के अलावा 13 लाख 13 हजार मूल्य के वीपीपी पार्सल भेजे
गए थे. इसी साल फार्मेसी को 17 लाख 50 हजार के मनीऑर्डर भी आए थे.
सभी सूचनाओं के आधार पर राज्य के वाणिज्य कर विभाग की विशेष जांच सेल
(एसआईबी) ने दिव्य फार्मेसी पर छापा मारा. इसमें बिक्रीकर की बड़ी चोरी
पकड़ी गई. छापे को अंजाम देने वाले तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा
बताते हैं, 'तब तक हम भी रामदेव जी के अच्छे कार्यों के लिए उनकी इज्जत
करते थे. लेकिन कर प्रशासक के रूप में हमें मामला साफ-साफ कर चोरी का
दिखा.' राणा आगे बताते हैं कि मामला कम से कम पांच करोड़ रु के बिक्रीकर की
चोरी का था.
भ्रष्टाचार और काले धन को मुद्दा बनाकर रामदेव पिछले दिनों भारत
स्वाभिमान यात्रा पर निकले हुए थे. इस यात्रा का पहला चरण खत्म होने के बाद
23 नवंबर को वे दिल्ली में थे. यहां बाबा का कहना था कि यदि संसद के
शीतकालीन सत्र में लोकपाल और काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने वाले
बिल पारित नहीं होते हैं तो वे उन पांच राज्यों में आंदोलन करेंगे जहां
अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इससे कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के
मिर्जापुर में उनका कहना था, ‘जिस दिन काले धन पर कार्रवाई शुरू होगी, उस
दिन पता चलेगा कि जिन्हें हम खानदानी नेता समझ रहे थे उनमें से 99 प्रतिशत
तो खानदानी लुटेरे हैं.’
अब सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार और काले धन की जिस सरिता के खिलाफ रामदेव अभियान छेड़े हुए हैं उसी में अगर वे खुद भी आचमन कर रहे हों तो? फिर तो वही बात हुई कि औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत. तहलका की यह पड़ताल कुछ ऐसा ही इशारा करती है.
अब सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार और काले धन की जिस सरिता के खिलाफ रामदेव अभियान छेड़े हुए हैं उसी में अगर वे खुद भी आचमन कर रहे हों तो? फिर तो वही बात हुई कि औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत. तहलका की यह पड़ताल कुछ ऐसा ही इशारा करती है.
सबसे पहले तो यह सवाल कि काला धन बनता कैसे है. आयकर विभाग के एक पूर्व
वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, 'करों से बचाई गई रकम और ट्रस्टों में दान के
नाम पर मिले पैसे से काला धन बनता है. काले धन को दान का पैसा दिखाकर, उस
पर टैक्स बचाकर उसे फिर से उद्योगों में निवेश किया जाता है. इससे पैदा
होने वाली रकम को पहले देश में जमीनों और जेवरात पर लगाया जाता है. इसके
बाद भी वह पूरा न खप सके तो उसे चोरी-छुपे विदेश भेजा जाता है. यह एक
अंतहीन श्रृंखला है जिसमें बहुत-से ताकतवर लोगों की हिस्सेदारी होती है.’
दिव्य फार्मेसी पर छापे की कार्रवाई को अंजाम देने वाले तत्कालीन डिप्टी
कमिश्नर जगदीश राणा बताते हैं कि उनकी टीम ने इस छापे से पहले काफी
होमवर्क किया था. राणा कहतेे हैं, ‘मेरी याददाश्त के अनुसार लगभग पांच
करोड़ रु के राज्य और केंद्रीय बिक्री कर की चोरी का मामला बन रहा था.’ टीम
के एक अन्य सदस्य बताते हैं, ‘पुख्ता सबूतों के साथ 2000 किलो कागज सबूत
के तौर पर इकट्ठा किए गए थे.’
रामदेव से जुड़ी फार्मेसी पर छापा मारने पर उत्तराखंड के तत्कालीन
राज्यपाल सुदर्शन अग्रवाल बड़े नाराज हुए थे. उन्होंने इस छापे की पूरी
कार्रवाई की रिपोर्ट सरकार से तलब की थी. उस दौर में प्रदेश के प्रमुख सचिव
(वित्त) इंदु कुमार पांडे ने राज्यपाल को भेजी रिपोर्ट में छापे की
कार्रवाई को निष्पक्ष और जरूरी बताया था. तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त
तिवारी ने भी इस रिपोर्ट के साथ अपना विशेष नोट लिख कर भेजा था जिसमें
उन्होंने प्रमुख सचिव की बात दोहराई थी. रामदेव ने अधिकारियों पर छापे के
दौरान बदसलूकी का आरोप लगाया था जिसे राज्य सरकार ने निराधार बताया था.
विभाग के कुछ अधिकारियों का मानना है कि रामदेव के मामले में अनुचित
दबाव पड़ने के बाद डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा ने समय से चार साल पहले ही
सेवानिवृत्ति ले ली थी. राणा को तब विभाग के उन उम्दा अधिकारियों में गिना
जाता था जो किसी दबाव से डिगते नहीं थे. एसआईबी के इस छापे के बाद राज्य या
केंद्र की किसी एजेंसी ने रामदेव के प्रतिष्ठानों पर छापा मारने की हिम्मत
नहीं की. इसी के साथ रामदेव का आर्थिक साम्राज्य भी दिनदूनी रात चौगुनी
गति से बढ़ने लगा.
लेकिन बिक्री कम दिखाना तो कर चोरी का सिर्फ एक तरीका था. दिव्य
फार्मेसी एक और तरीके से भी कर की चोरी कर रही थी. तहलका को मिले दस्तावेज
बताते हैं कि उस साल फार्मेसी ने वाणिज्य कर विभाग को दिखाई गई कर योग्य
बिक्री से पांच गुना अधिक मूल्य की दवाओं (30 लाख 17 हजार रु) का ‘स्टाॅक
हस्तांतरण’ बाबा द्वारा धर्मार्थ चलाए जा रहे ‘दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट’ को
किया. रिटर्न में फार्मेसी ने बताया कि ये दवाएं गरीबों और जरूरतमंदों को
मुफ्त में बांटी गई हैं. लेकिन वाणिज्य कर विभाग के तत्कालीन अधिकारी बताते
हैं कि दिव्य फार्मेसी उस समय गरीबों को मुफ्त बांटने के लिए दिखाई जा रही
दवाओं को कनखल स्थित दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट से बेच रही थी. दिव्य योग
मंदिर ट्रस्ट के पास में ही रहने वाले भारत पाल कहते हैं, 'पिछले 16 सालों
के दौरान मैंने बाबा के कनखल आश्रम में कभी मुफ्त में दवाएं बंटती नहीं
देखीं.’
रामदेव
काले धन की बात करते हैं, मगर बिक्रीकर अधिकारियों के मुताबिक उनकी दिव्य
फार्मेसी ने बिक्री का आंकड़ा बहुत कम दिखाकर 2004 में पांच करोड़ रु के
बिक्रीकर की चोरी की. यही नहीं, गरीबों को मुफ्त दवा बांटने के नाम पर
फार्मेसी ने रामदेव द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न ट्रस्टों को अरबों रुपये का
स्टॉक ट्रांसफर किया जिसे बेचकर फिर से करोड़ों का बिक्रीकर बचाया गया. कर
बचाकर ही काला धन बनता है
इसी तर्ज पर आज भी दिव्य फार्मेसी रामदेव द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न
ट्रस्टों को गरीबों को मुफ्त दवाएं बांटने के नाम पर मोटा स्टॉक ट्रांसफर
कर रही है. अभी तक दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट का
उत्तराखंड राज्य में वाणिज्य कर में पंजीयन तक नहीं है. नियमानुसार बिना
पंजीयन के ये ट्रस्ट किसी सामान की बिक्री नहीं कर सकते, लेकिन हैरानी की
बात यह है कि इन ट्रस्टों में स्थित केंद्रों से हर दिन लाखों की दवाएं और
अन्य माल बिकता है. पिछले कुछ सालों के दौरान दिव्य फार्मेसी से दिव्य योग
मंदिर ट्रस्ट, पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट और अन्य स्थानों में अरबों रुपये मूल्य
का स्टाॅक ट्रांसफर हुआ है जिसकी बिक्री पर नियमानुसार बिक्री कर देना
जरूरी है. ट्रस्टों के अलावा देश भर मेंे रामदेव के शिविरों में दवाओं के
मुफ्त बंटने के दावे की जांच करना मुश्किल है, परंतु इन शिविरों में हिस्सा
लेने वाले श्रद्धालु जानते और बताते हैं कि यहां दवाएं मुफ्त में नहीं
बांटी जातीं. अब दिव्य फार्मेसी द्वारा बनाई जा रही 285 तरह की दवाएं और
अन्य उत्पाद इंटरनेट से भी भेजे जाने लगे हैं. इंटरनेट पर बिकने वाली दवाओं
पर कैसे बिक्री कर लगे, यह उत्तराखंड का वाणिज्य कर विभाग नहीं जानता. इन
दिनों नोएडा में रह रहे जगदीश राणा कहते हैं, ‘रामदेव को जितना बिक्री कर
देना चाहिए, वे उसका एक अंश भी नहीं दे रहे.’
उत्तराखंड में बिक्री कर ही राजस्व का सबसे बड़ा हिस्सा है. उत्तराखंड
सरकार के कर सलाहकार चंद्रशेखर सेमवाल बताते हैं, ‘पिछले साल राज्य में
बिक्री कर से कुल 2940 करोड़ रु की कर राशि इकट्ठा हुई थी, यह राशि राज्य
के कुल राजस्व का 60 प्रतिशत है.’ इसी पैसे से सरकार राज्य में सड़कें
बनाती है , गांवों में पीने का पानी पहुंचाया जाता है, अस्पतालों में दवाएं
जाती हैं , सरकारी स्कूल खुलते हैं और ऐसे ही जनकल्याण के दूसरे काम चलाए
जाते हैं. रामदेव नेताओं पर आरोप लगाते हैं कि उन्हें देश के विकास से कोई
मतलब नहीं है, वे बस अपनी झोली भरना चाहते हैं. लेकिन जब रामदेव का अपना ही
ट्रस्ट इतने बड़े पैमाने पर करों की चोरी कर रहा हो तो क्या यह सवाल उनसे
नहीं पूछा जाना चाहिए?
केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के एक पूर्व सदस्य बताते हैं, ‘करों को बचा
कर ही काला धन पैदा होता है और इस काले धन का सबसे अधिक निवेश जमीनों में
किया जाता है.’ पिछले सात-आठ साल के दौरान हरिद्वार जिले में रामदेव के
ट्रस्टों ने हरिद्वार और रुड़की तहसील के कई गांवों, नगर क्षेत्र और
औद्योगिक क्षेत्र में जमकर जमीनें और संपत्तियां ली हैं. अखाड़ा परिषद के
प्रवक्ता बाबा हठयोगी कहते हैं, ‘रामदेव ने इन जमीनों के अलावा बेनामी
जमीनों और महंगे आवासीय प्रोजेक्टों में भी भारी निवेश किया है.’ हठयोगी
आरोप लगाते हैं कि हरिद्वार के अलावा रामदेव ने उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों
में भी जमकर जमीनें खरीदी हैं. तहलका ने इन आरोपों की भी पड़ताल की. जो सच
सामने आया वह चौंकाने वाला था.
जमीन का फेर
योग और आयुर्वेद का कारोबार बढ़ने के बाद रामदेव ने वर्ष 2005 में
पतंजलि योग पीठ ट्रस्ट के नाम से एक और ट्रस्ट शुरू किया. रामदेव तब तक देश
की सीमाओं को लांघ कर अंतरराष्ट्रीय हस्ती हो गए थे. 15 अक्टूबर, 2006 को
गरीबी हटाओ पर हुए मिलेनियम अभियान में रामदेव ने विशेष अतिथि के रूप में
संयुक्त राष्ट्र को संबोधित किया. अपने वैश्विक विचारों को मूर्त रुप देने
के लिए अब उन्हें हरिद्वार में और ज्यादा जमीन की जरूरत थी. इस जरूरत को
पूरा करने के लिए आचार्य बालकृष्ण, दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि
ट्रस्ट के नाम से दिल्ली-माणा राष्ट्रीय राजमार्ग पर हरिद्वार और रुड़की के
बीच शांतरशाह नगर, बढ़ेड़ी राजपूताना और बोंगला में खूब जमीनें खरीदी गईं.
राजस्व अभिलेखों के अनुसार शांतरशाह नगर की खाता संख्या 87, 103, 120 और
150 में दर्ज भूमि रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर है. यह भूमि कुल 23.798
हेक्टेयर(360 बीघा) के लगभग बैठती है और इसी पर पतंजलि फेज-1, पतंजलि फेज- 2
और पतंजलि विश्वविद्यालय बने हैं.
बढेड़ी राजपूताना के पूर्व प्रधान शकील अहमद बताते हैं कि शांतरशाह नगर
और उसके आसपास रामदेव के पास 1000 बीघा से अधिक जमीन है. लेकिन बाबा के
सहयोगियों और ट्रस्टों के नाम पर खातों में केवल 360 बीघा जमीन ही दर्ज है.
इस भूमि में से रामदेव ने 20.08 हेक्टेयर भूमि को अकृषित घोषित कराया है.
राज्य में कृषि भूमि को अकृषित घोषित कराने के बाद ही कानूनन उस पर निर्माण
कार्य हो सकता है.
तहलका ने राजस्व अभिलेखों की गहन पड़ताल की. पता चला कि रामदेव, उनके
रिश्तेदारों और आचार्य बालकृष्ण ने शांतरशाह नगर के आसपास कई गांवों में
बेनामी जमीनों पर पैसा लगाया है. उदाहरण के तौर पर, शांतरशाह नगर की राजस्व
खाता संख्या 229 में जिन गगन कुमार का नाम दर्ज है वे कई वर्षों से आचार्य
बालकृष्ण के पीए हैं. 8000 रु महीना पगार वाले गगन आयकर रिटर्न भी नहीं
भरते. गगन ने 15 जनवरी, 2011 को शांतरशाह नगर में 1.446 हेक्टेयर भूमि अपने
नाम खरीदी. रजिस्ट्री में इस जमीन का बाजार भाव 35 लाख रु दिखाया गया है,
परंतु हरिद्वार के भू-व्यवसायियों के अनुसार किसी भी हाल में यह जमीन पांच
करोड़ रुपये से कम की नहीं है. यह जमीन अनुसूचित जाति के किसान की थी जिसे
उपजिलाधिकारी की विशेष इजाजत से खरीदा गया है. इससे पहले गगन ने 14 मई,
2010 को रुड़की तहसील के बाबली-कलन्जरी गांव में एक करोड़ 37 लाख रु बाजार
मूल्य दिखा कर जमीन की रजिस्ट्री कराई थी. यह जमीन भी 15 करोड़ रु से अधिक
की बताई जा रही है. स्थानीय पत्रकार अहसान अंसारी का दावा है कि बाबा ने
और भी दसियों लोगों के नाम पर हरिद्वार में अरबों की जमीनें खरीदी हैं.
बाबा हठयोगी सवाल करते हैं, ‘देश भर में काले धन को लेकर मुहिम चला रहे
रामदेव के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर महज आठ हजार रुपये
महीना पाने वाले गगन कुमार जैसे इन दसियों लोगों के पास अरबों की जमीनें
खरीदने के लिए पैसे कहां से आए.’
शांतरशाह नगर, बढ़ेड़ी राजपूताना और बोंगला में अपना साम्राज्य स्थापित
करने के बाद बाबा की नजर हरिद्वार की औरंगाबाद न्याय पंचायत पर पड़ी. इसी
न्याय पंचायत में राजाजी राष्ट्रीय पार्क की सीमा पर लगे औरंगाबाद और
शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला गांव हैं. उत्तराखंड में भू-कानूनों के अनुसार
राज्य से बाहर का कोई भी व्यक्ति या ट्रस्ट राज्य में 250 वर्ग मीटर से
अधिक कृषि भूमि नहीं खरीद सकता. विशेष परिस्थितियों और प्रयोजन के लिए ही
इससे अधिक भूमि खरीदी जा सकती है, लेकिन इसके लिए शासन की अनुमति जरूरी
होती है.
रामदेव के पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट को 16 जुलाई, 2008 को उत्तराखंड सरकार
से औरंगाबाद, शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला आदि गांवों में पंचकर्म व्यवस्था,
औषधि उत्पादन, औषधि निर्माणशाला एवं प्रयोगशाला स्थापना के लिए 75 हेक्टेयर
जमीन खरीदने की इजाजत मिली थी. शर्तों के अनुसार खरीदी गई भूमि का प्रयोग
भी उसी कार्य के लिए किया जाना चाहिए जिस कार्य के लिए बताकर उसे खरीदने की
इजाजत ली गई है. पहले बगीचा रही इस कृषि-भूमि पर रामदेव ने योग ग्राम की
स्थापना की है. श्रद्धालुओं को बाबा के इस रिजॉर्टनुमा ग्राम में बनी
कॉटेजों में रहकर पंचकर्म कराने के लिए 1000 रु से लेकर 3500 रु तक
प्रतिदिन देना होता है.
आयकर
विभाग की नजर से बचने के लिए बेनामी जमीनें खरीदी गई हैं और ज्यादातर
जमीनों को दाखिल-खारिज नहीं कराया गया है. बालकृष्ण के पीए गगन कुमार की
तनख्वाह भले ही 8000 रु महीना हो लेकिन वे करोड़ों की जमीनों के मालिक हैं.
उधर, जो जमीनें ट्रस्ट के नाम पर खरीदी गई हैं उनमें भी कई मामलों में 90
फीसदी तक स्टांप ड्यूटी की चोरी की गई है
औरंगाबाद गांव के पूर्व प्रधान अजब सिंह चौहान दावा करते हैं कि उनके
गांव में बाबा के ट्रस्ट और उनके लोगों के कब्जे में 2000 बीघे के लगभग
भूमि है. लेकिन राजस्व अभिलेखों में रामदेव, आचार्य बालकृष्ण या उनके
ट्रस्टों के नाम पर एक बीघा भूमि भी दर्ज नहीं है. क्षेत्र के लेखपाल सुभाश
जैन्मी इस बात की पुष्टि करते हुए बताते हैं, ‘राजस्व रिकॉर्डों में भले
ही रामदेव के ट्रस्ट के नाम एक भी बीघा जमीन दर्ज नहीं हुई है परंतु
उत्तराखंड शासन से इजाजत मिलने के बाद पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट ने औरंगाबाद और
तेलीवाला गांव में काफी जमीनों की रजिस्ट्रियां कराई हैं.’ राजस्व
अभिलेखों में दाखिल-खारिज न होने का नतीजा यह है कि किसानों की सैकड़ों
बीघा जमीनें बिकने के बाद भी अभी तक उनके ही नाम पर दर्ज हैं. इन सभी
भूमियों पर रामदेव के ट्रस्टों का कब्जा है. राजस्व अभिलेखों में अभी भी
औरंगाबाद ग्राम सभा की सारी जमीन कृषि भूमि है. नियमों के अनुसार कृषि भूमि
पर भवन निर्माण करने से पहले उस भूमि को उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश
अधिनियम की धारा 143 के अनुसार अकृषित घोषित करके उसे आबादी में बदलने की
अनुमति लेनी होती है. इसके लिए आवेदक के नाम खतौनी में जमीन दर्ज होना
आवश्यक है. रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर इन गांवों में एक इंच भूमि भी
दर्ज नहीं है, लेकिन गजब देखिए कि नियम-कायदों को ताक पर रखकर यहां योग
ग्राम के रूप में पूरा शहर बसा दिया गया है.
औरंगाबाद गांव के बहुत बड़े हिस्से को कब्जे में लेने के बाद रामदेव के
भूविस्तार अभियान की चपेट में उससे लगा गांव तेलीवाला आया. योग ग्राम
स्थापित करने के डेढ़ साल बाद फिर उत्तराखंड शासन ने पतंजलि योग पीठ ट्रस्ट
को 26 फरवरी, 2010 को हरिद्वार के औरंगाबाद और शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला
गांव में और 155 हेक्टेयर (2325 बीघा) जमीन खरीदने की इजाजत दी. यह इजाजत
पतंजलि विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए दी गई थी. इस तरह उत्तराखंड शासन
से बाबा के पतंजलि योगपीठ को औरंगाबाद और तेलीवाला गांव की कुल 230
हेक्टेयर (3450 बीघा) जमीन खरीदने की अनुमति मिली जो इन दोनों गांवों की
खेती वाली भूमि का बड़ा भाग है. इसके अलावा बाबा ने इन गांवों में सैकड़ों
बीघा बेनामी जमीनें कई लोगों के नाम पर ली हैं जिन्हें वे धीरे-धीरे कानूनी
प्रक्रिया पूरी करके अपने ट्रस्टों के नाम कराएंगे.
कई गांववाले दावा करते हैं कि तेलीवाला और औरंगाबाद गांव में रामदेव के
ट्रस्ट के कब्जे में 4000 बीघा से अधिक जमीन है. प्रशासन द्वारा मिली इतनी
अधिक भूमि खरीदने की इजाजत और बेनामी व कब्जे वाली जमीनों को देखने के बाद
इस दावे में सत्यता लगती है. लेकिन राजस्व अभिलेख देखें तो औरंगाबाद ग्राम
सभा की ही तरह तेलीवाला गांव में भी रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर एक इंच
भूमि दर्ज नहीं है.
आखिर ऐसा क्यों? यह जानने से पहले कुछ और सच्चाइयां जानते हैं.
तेलीवाला गांव में 2116 खातेदारों के पास कुल 9300 बीघा जमीन है. गांव के
330 गरीब भूमिहीनों के नाम सरकार से कभी पट्टों पर मिली 750 बीघा कृषि-भूमि
या घर बनाने योग्य भूमि है. लेखपाल जैन्मी बताते हैं कि जमीनें बेचने के
बाद गांव के खातेदारों में से सैकड़ों किसान भूमिहीन हो गए हैं. गांववालों
के अनुसार गांव की कुल भूमि का बड़ा हिस्सा रामदेव के पतंजलि योगपीठ के
कब्जे में है. इसकी पुष्टि बालकृष्ण का एक पत्र भी करता है. बालकृष्ण ने
सात सितंबर, 2007 को ही हरिद्वार के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर स्वीकारा था
कि तेलीवाला गांव की 80 प्रतिशत भूमि के उन्होंने बैनामे करा लिए हैं इसलिए
गांव की फिर चकबंदी की जाए. यानी सब कुछ पहले से तय था और प्रशासन से बाद
में जमीन खरीदने की विशेष अनुमति मिलना महज एक औपचारिकता थी. प्रस्ताव में
किए गए बालकृष्ण के दावे को सच माना जाए तो रामदेव के पास अकेले तेलीवाला
गांव में ही करीब 8000 बीघा जमीन होनी चाहिए. गांववालों ने समयपूर्व, नियम
विरुद्ध हो रही इस चकबंदी का विरोध किया है. उन्हें आशंका है कि चकबंदी करा
कर बालकृष्ण अपनी दोयम भूमि को किसानों की उपजाऊ भूमि से बदल देंगे.
हरिद्वार में रामदेव के आर्थिक साम्राज्य का तीसरा बड़ा भाग
पदार्था-धनपुरा ग्राम सभा के आसपास है. बाबा ने यहां के मुस्तफाबाद,
धनपुरा, घिस्सुपुरा, रानीमाजरा और फेरुपुरा मौजों में जमीनें खरीदी हैं. ये
जमीनें पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड के नाम पर शासन की अनुमति से खरीदी गई
हैं. आठ जुलाई, 2008 को बाबा को मिली अनुमति में बृहत स्तर पर औषधि निर्माण
और आयुर्वेदिक अनुसंधान के उद्देश्य की बात है. पर बाद में यहां फूड पार्क
लिमिटेड की स्थापना की गई है. ग्रामीणों के अनुसार पतंजलि फूड पार्क
लिमिटेड लगभग 700 बीघा जमीन पर है. 98 करोड़ के इस प्रोजेक्ट पर केंद्र के
फूड प्रोसेसिंग मंत्रालय से 50 करोड़ रु की सब्सिडी (सहायता) मिली है. नौ
कंपनियों के इस समूह में अधिकांश कंपनियां रामदेव के नजदीकियों द्वारा बनाई
गई हैं. मां कामाख्या हर्बल लिमिटेड में रामदेव के जीजा यशदेव आर्य, योगी
फार्मेसी के निदेशक सुनील कुमार चतुर्वेदी और संजय शर्मा जैसे रामदेव के
करीबी ही निदेशक हैं. रामदेव के पतंजलि फूड पार्क व झारखंड फूड पार्क को
स्वीकृति दिलाने में कांग्रेस के एक केंद्रीय मंत्री का आशीर्वाद साफ-साफ
झलकता है. फूड पार्क के उद्घाटन के समय रामदेव ने केंद्रीय मंत्रियों और
मुख्यमंत्री के सामने घोषणा की थी कि वे हर साल उत्तराखंड से 1000 करोड़ की
जड़ी-बूटियां या कृषि उत्पाद खरीदेंगे. परंतु बाबा ने सरकार से करोड़ों
रुपये की सब्सिडी खा कर भी वादा नहीं निभाया. चमोली जिले में जड़ी-बूटी के
क्षेत्र में काम करने वाली एक संस्था अंकुर संस्था के जड़ी-बूटी उत्पादक
सुदर्शन कठैत का आरोप है कि बाबा ने उत्तराखंड में अभी एक लाख रुपये की
जड़ी-बूटियां भी नहीं खरीदी हैं.
पदार्था के राजस्व अभिलेखों को देखने से पता चलता है कि यहां पतंजलि फूड
पार्क लिमिटेड, रामदेव, आचार्य बालकृष्ण या उनके किसी नजदीकी व्यक्ति के
नाम पर कोई जमीन दर्ज नहीं है. सवाल उठता है कि बिना राजस्व खातों में जमीन
दर्ज हुए बाबा को कैसे फूड पार्क के नाम पर बने इस प्रोजेक्ट के लिए
सब्सिडी मिली. यह सवाल जब हम राज्य सरकार के सचिव स्तर के संबंधित अधिकारी
से पूछते हैं तो वे बताते हैं, 'हमारे पास कभी फूड पार्क की फाइल नहीं आई,
संभवतया यह फाइल सीधे केंद्र सरकार को भेज दी गई हो.'
रामदेव ने हरिद्वार के दौलतपुर और उसके पास के गांवों जैसे बहाद्दरपुर
सैनी, जमालपुर सैनीबाग, रामखेड़ा, हजारा और कलियर जैसे कई गांवों में भी
बड़ी मात्रा में नामी- बेनामी जमीनें खरीदी हैं. हरिद्वार के एक महंत
आचार्य बालकृष्ण के साथ एक बार उनकी जमीनों को देखने गए. नाम न छापने की
शर्त पर वे बताते हैं, 'दिन भर घूमकर भी हम बाबा की सारी जमीनें नहीं देख
पाए.’ प्राॅपर्टी बाजार के दिग्गज दावा करते हैं कि हरिद्वार में कम से कम
20 हजार बीघा जमीन बाबा के कब्जे में है.
लेकिन रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर राजस्व अभिलेखों में हरिद्वार में लगभग 400 बीघा भूमि ही दर्ज है. सवाल उठता है कि सभी तरह से ताकतवर रामदेव ने आखिर इतनी बड़ी मात्रा में जमीन खरीदने के बाद अपने ट्रस्टों या लोगों के नाम पर जमीन का दाखिल-खारिज क्यों नहीं कराया. इसका जवाब देते हुए कर विशेषज्ञ बताते हैं कि जमीनों का दाखिल-खारिज कराते ही बाबा की जमीनें आयकर विभाग की नजरों में आ सकती थीं इसलिए विभाग की संभावित जांचों से बचने के लिए इन जमीनों को दाखिल-खारिज करा कर राजस्व अभिलेखों में दर्ज नहीं कराया गया है.
तहलका ने इन जमीनों के लेन-देन में लगे धन पर भी नजर डाली. पता चला कि
बाबा से जुड़े लोग या ट्रस्ट इन जमीनों की रजिस्ट्री तो सर्कल रेट पर करते
थे परंतु बाबा ने किसानों को जमीन का मूल्य उसके सर्कल रेट से कई गुना अधिक
दिया. उत्तराखंड का औद्योगिक शहर बनने के बाद हरिद्वार में जमीनों के भाव
आसमान छू रहे थे. ग्रामीणों की मानें तो बाबा के मैनेजरों ने दलालों को भी
गांव में जमीन इकट्ठा करने के एवज में मोटा कमीशन दिया.
जमीनों की खरीद-फरोख्त के सिलसिले में हरिद्वार के उपजिलाधिकारी के
न्यायालय में वर्ष 2009 और 2010 में हुए दर्जन भर से अधिक स्टांप अधिनियम
के मामले चल रहे हैं. ये मामले पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड द्वारा
पदार्था-धनपुरा गांव के मुस्तफाबाद मौजे में खरीदी गई जमीनों पर स्टांप
शुल्क चोरी से संबंधित हैं. इन मामलों में न्यायालय ने पाया कि रजिस्ट्री
करते समय स्टांप शुल्क बचाने की नीयत से इन जमीनों का प्रयोजन जड़ी-बूटी
रोपण यानी कृषि और बागबानी दिखाया गया. बाबा के लोग रजिस्ट्री कराते हुए यह
भी भूल गए कि उन्हें शासनादेश में इस भूमि को खरीदने की अनुमति औषधि
निर्माण व अनुसंधान के लिए मिली थी जो कृषि कार्य से हटकर उद्योग की श्रेणी
में आता है. ऊपर से पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड ने इस जमीन को अकृषित घोषित
कराए बिना ही इस पर औद्योगिक परिसर स्थापित कर दिया है. कम स्टाम्प शुल्क
लगाने में पकड़े गए इन मामलों में हरिद्वार के उपजिलाधिकारी ने पतंजलि
योगपीठ पर स्टाम्प चोरी और अर्थदंड के रूप में करीब 55 लाख रु का जुर्माना
भी लगाया. पूर्व प्रधान अजब सिंह चौहान का मानना है कि रामदेव के ट्रस्टों
और कंपनियों ने हरिद्वार में हजारों रजिस्ट्रियां की हैं और यदि सारे
मामलों की जांच की जाए तो उन पर स्टांप चोरी के रूप में करोड़ों रु
निकलेंगे.
उपजिलाधिकारी के इन निर्णयों (बायीं तरफ चित्र देखें) को ध्यान से देखने
पर साफ दिखता है कि किस तरह झूठे तथ्यों के आधार पर जमीन के सौदों में 90
फीसदी से भी ज्यादा स्टांप शुल्क की चोरी की गई. प्रॉपर्टी बाजार के
सूत्रों के अनुसार इन सौदों में किसानों को उपजिलाधिकारी के मूल्यांकन से
भी कई गुना अधिक कीमत मिली थी. प्रॉपर्टी बाजार के दिग्गजों के अनुसार
पतंजलि फूड पार्क वाले इलाके में बाबा के जमीन खरीदते समय जमीन का सर्किल
रेट 35000 रु प्रति बीघा के लगभग था जबकि बाबा ने आठ से 10 लाख रु बीघा तक
जमीनें खरीदी हैं. इस तरह कई किसानों को जमीन के एवज में पतंजलि फूड
लिमिटेड से पांच से छह करोड़ रुपये तक काला धन मिला है. पतंजलि फेज -1 और
फेज-2 के लिए रामदेव ने जमीन सर्कल रेट (10 हजार से लेकर 40 हजार) पर खरीदी
गई दिखाई है, लेकिन वास्तव में जमीनें 12 लाख रु बीघा तक में खरीदी हैं.
यही तेलीवाला में भी हुआ है. पतंजलि योगपीठ के पास बन रहे महंगे फ्लैटों
में भी लोग बाबा की साझेदारी बताते हैं.
इनमें से कई सीधे-सादे गांववालों ने पतंजलि से मिला जमीन का सारा पैसा
बैंकों में जमा करा दिया. अब ये ग्रामीण आयकर विभाग की जांच की जद में आ गए
हैं. विभाग भले ही आज तक यह पता न कर पाया हो कि रामदेव को हेलिकॉप्टर
किसने दान किया लेकिन पतंजलि को अपनी जमीन बेचने के एवज में सर्किल भाव से
कई गुना कीमत मिलने के बाद आयकर की जांचों से इन गांववालों की जानें सूख गई
हैं. आचार्य प्रमोद कृष्ण कहते हैं, ‘यदि गरीब लोगों पर फेमा के मामले
दर्ज होते तो अब तक उनके खाते सील कर उन्हें जेल भेज दिया जाता, लेकिन
रामदेव पर केंद्र सरकार कोई कार्रवाई नहीं कर रही.’ प्रमोद कृष्ण की
शिकायतों पर ही रामदेव के विरुद्ध फेमा के मामले दर्ज हुए हैं और बालकृष्ण
के विरुद्ध सीबीआई जांच शुरू हुई है. उनका मानना है कि देश और विदेश में
जमकर काला धन लगाने वाले रामदेव केंद्र सरकार को ब्लैकमेल करके अपने
विरुद्ध कार्रवाई न होने देने का दबाव बनाने के लिए देश भर में काले धन का
विरोध करते घूम रहे हैं.
बाबा ने सारी जमीनें उसी तरह खरीदी हैं जैसे एक भू-व्यवसायी या
उद्योगपति खरीदता है. जमीनों की खरीद में खूब काले धन का प्रयोग हुआ है.
हरिद्वार की कई महंगी बेनामी संपत्तियों से बाबा का संबंध बताया जाता है.
हरिद्वार के प्राॅपर्टी बाजार के एक दिग्गज कहते हैं, ‘मोटे तौर पर यदि हर
बीघा पर केवल दो लाख रुपये भी सर्कल रेट से अधिक दिए गए होंगे तो रामदेव ने
हरिद्वार में ही जमीनों पर कम से कम 400 करोड़ रु का काला धन लगाया है.’
रामदेव देश भर में रोज कहते हैं कि उनके नाम पर कोई जमीन नहीं है और
कहीं उनका बैंक खाता नहीं है. सच भी यही है कि बाबा के नाम पर कोई जमीन
नहीं है. औरंगाबाद गांव पहले चौहान जमींदारों का था. क्षेत्र समिति के
सदस्य चरण सिंह चौहान बताते हैं कि उनके बिरादरों में से कई परिवारों की
सैकड़ों बीघा जमीनें सीलिंग में आईं और गांव के ही भूमिहीनों को दी गईं.
उन्हें गरीबों को जमीन देने का कोई गम नहीं है. परंतु अब वे पट्टे की इन
जमीनों पर रामदेव के लोगों के कब्जे से चिंतित होकर कहते हैं, ‘अब रामदेव
जैसे कई संत नये जमींदारों के रूप में उभरे हैं जो गरीबों का हर तरह से
शोषण कर रहे हैं.’ इनके पास हजारों बीघा उपजाऊ जमीनें हैं. चौहान बताते
हैं, ‘अब सरकारों में इतनी हिम्मत ही नहीं है कि गरीबों की उपजाऊ जमीनों का
भक्षण करने वाले इन नवजमींदारों को किसी कानून से ठीक कर सकें.'
पिछले साल रामदेव ने बयान दिया था कि उत्तराखंड के एक मंत्री ने उनसे दो
करोड़ रुपये घूस में मांगे थे. पर बाबा ने मंत्री का नाम नहीं बताया था.
उत्तराखंड क्रांति दल के अध्यक्ष त्रिवेंद्र सिंह पंवार कहते हैं, ‘मंत्री
ने शायद इन जमीनों की खरीद और लूट अभियान में मदद करने के एवज में बाबा से
यह मांग की होगी.’रामदेव का वाहन अब साइकिल से हेलिकॉप्टर हो गया है. कभी
आश्रमों में शरण लेकर रहने वाले रामदेव अब देश भर में हजारों बीघा जमीनों
के उपभोग की हैसियत रखते हैं. उनका साम्राज्य इंग्लैड के लिटिल कुमरा द्वीप
तक है. बाबा ने उत्तराखंड में भी गंगा नदी पर बनी एक द्वीपनुमा भौगोलिक
संरचना को अपने लोगों के नाम पर खरीद लिया है. व्यास घाट के पास गंगा पर
फैली हजारों बीघा की यह भूमि पूरे उत्तराखंड में बेमिसाल और खूबसूरत है. इस
जगह के बारे में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी वर्णन किया था.
रामदेव के प्रवचनों में काले धन और भ्रष्टाचार के अलावा देश के किसानों,
मजदूरों और गरीबों की दुर्दशा की भी चिंता दिखती है. पूर्व प्रधान शकील
अहमद बताते हैं, ‘हमने रामदेव द्वारा किया कोई जनहित का काम अभी तक आसपास
के गांवों में तो नहीं देखा.' तहलका ने भी यही पाया. जिन गांवों में रामदेव
ने जमीनें खरीदी हैं वहां समाजसेवा करना तो दूर रामदेव वहां के समाज से भी
कटे हैं.
फर्जीवाड़े दुनिया भर के
तेलीवाला गांव में रामदेव की जमीनों के लगभग 20 बीघा वाले हिस्से में एक
भव्य भवन वाला बड़ा आवासीय परिसर बना है. इस पर पर बाबा के बड़े-बड़े फोटो
लगे हैं. बाबा ने तेलीवाला की अपनी सारी जमीन पर योग ग्राम की ही तरह
बिजली के प्रवाह वाली सबसे महंगी तार-बाड़ लगाई है. इस परिसर के प्रभारी
राजस्थान निवासी कोई शास्त्री जी हैं. परिसर में ट्रैक्टर सहित कई कृषि
यंत्र दिखते हैं. बाबा के सेवक इस परिसर में शाहीवाल नस्ल की गायें भी
पालते हैं. इसके पास ही ‘पतंजलि धर्मकांटा’ भी लगाया गया है जहां से गन्ना
तुल कर परिसर में बने गुड़ के कोल्हू पर पिराई के लिए जाता है. कोल्हू दो
हैं जिन्हें चलाने के लिए रामदेव के लोग आसपास के गांवों के किसानों से
गन्ना खरीदते हैं. आने वाला गन्ना तोलने के लिए उन्होंने बाकायदा धर्मकांटा
तक लगाया है. विजयपाल सैनी बताते हैं, ‘बाबा की इन चरखियों में हर दिन
लगभग 300 क्विंटल गन्ना पिरोया जाता है.’
तेलीवाला में बिजली के दो कनेक्शन भी आचार्य बालकृष्ण के नाम व दिव्य योग मंदिर, कनखल के पते पर लिए गए हैं. बिजली के एक कनेक्शन की उपभोक्ता संख्या 711205 है. 35 हार्स पावर का एक कनेक्शन ट्यूब-वेल के नाम पर लिया गया है. उत्तराखंड पावर काॅरपोरेशन के उपमहाप्रबंधक एमसी गुप्ता से जब हम रामदेव का जिक्र किए बिना पूछते हैं तो वे बताते हैं कि कृषि कार्य हेतु बोरिंग के लिए किसी भी उपभोक्ता को जमीन का मालिकाना हक सिद्ध करना होता है. इसके लिए जरूरी है कि वह जमीन की खतौनी पेश करे. आचार्य बालकृष्ण के नाम पर तेलीवाला गांव में एक भी बीघा जमीन खतौनी में दर्ज नहीं है. यह पूछने पर कि बिना जमीन के किस आधार पर बालकृष्ण को बोरिंग हेतु बिजली का कनेक्शन दिया गया तो गुप्ता कहते हैं, 'जांच करके ही कुछ बता सकते हैं. जांच में किसी भी किस्म की अनियमितता पाए जाने पर तुरंत कार्रवाई करेंगे. '
तेलीवाला में बिजली के दो कनेक्शन भी आचार्य बालकृष्ण के नाम व दिव्य योग मंदिर, कनखल के पते पर लिए गए हैं. बिजली के एक कनेक्शन की उपभोक्ता संख्या 711205 है. 35 हार्स पावर का एक कनेक्शन ट्यूब-वेल के नाम पर लिया गया है. उत्तराखंड पावर काॅरपोरेशन के उपमहाप्रबंधक एमसी गुप्ता से जब हम रामदेव का जिक्र किए बिना पूछते हैं तो वे बताते हैं कि कृषि कार्य हेतु बोरिंग के लिए किसी भी उपभोक्ता को जमीन का मालिकाना हक सिद्ध करना होता है. इसके लिए जरूरी है कि वह जमीन की खतौनी पेश करे. आचार्य बालकृष्ण के नाम पर तेलीवाला गांव में एक भी बीघा जमीन खतौनी में दर्ज नहीं है. यह पूछने पर कि बिना जमीन के किस आधार पर बालकृष्ण को बोरिंग हेतु बिजली का कनेक्शन दिया गया तो गुप्ता कहते हैं, 'जांच करके ही कुछ बता सकते हैं. जांच में किसी भी किस्म की अनियमितता पाए जाने पर तुरंत कार्रवाई करेंगे. '
तेलीवाला
में दो कोल्हू हैं जिनमें रोज सैकड़ों क्विंटल गन्ने की पेराई होती है.
काम व्यावसायिक है लेकिन बालकृष्ण के नाम पर बिजली के ये कनेक्शन कृषि
कार्य हेतु हैं. इन पर सिर्फ 80 पैसा प्रति यूनिट की दर से बिल आता है.
इससे सरकार को रोज हजारों रु की चपत लग रही है. नियमों के मुताबिक बालकृष्ण
को ये कनेक्शन मिलने ही नहीं चाहिए थे क्योंकि यह जमीन उनके नाम नहीं है
गौर करने वाली बात यह है कि ये कोल्हू बिजली से चलाए जाते हैं. इसके लिए
रामदेव ने कोई अलग व्यावसायिक कनेक्शन नहीं लिया है. कृषि कार्य के लिए
सिंचाई हेतु आचार्य बालकृष्ण के नाम लिए गए कनेक्शन पर केवल 80 पैसा
प्रतियूनिट की दर से बिल लिया जाता है. जबकि कोल्हू चलाने के लिए लगाए जाने
वाले व्यावसायिक कनेक्शन पर चार रुपये 25 पैसा प्रतियूनिट के हिसाब से बिल
वसूला जाना चाहिए था. हर दिन इस हिसाब से सरकार को हजारों रुपये के राजस्व
का नुकसान हो रहा है. व्यवासायिक कार्यों से होने वाली कमाई से ही सरकार
किसी गरीब किसान के घर में लगने वाले जनता कनेक्शन का एक बल्ब जलाती है.
रामदेव यदि कृषि कार्य की बजाय व्यवासायिक कार्य का बिल देते तो कुछ गरीबों
के घर साल भर बिजली जलती रहती.
नये जमाने के जमींदार
आजादी के बाद वर्ष 1950 में जमींदारी प्रथा को खत्म करने के मकसद से एक
कानून बनाया गया था जो 1952 में पूरी तरह से लागू हुआ. असल में तब समस्या
यह थी कि चंद लोगों के पास जमीनें ही जमीनें थीं जबकि बाकी भूमिहीन थे.
कानून का मकसद था कि यह असंतुलन दूर हो और दलित व गरीब भूमिहीनों को भी
खेती के लिए जमीन मिले. लेकिन रामदेव जो कर रहे हैं वह एक झलक है कि किस
तरह वही क्रूर जमींदारी प्रथा एक नयी शक्ल में फिर से सिर उठा रही है.
महबूबन 80 साल की हैं. हरिद्वार जिले के एक गांव तेलीवाला में अपनी एक
विधवा बहू और दो बेटों के परिवारों के साथ रहने वाली इस बुजुर्ग की जिंदगी
की शाम दुश्वारियों में कट रही है. उनके पति अनवर और जवान बेटे अमीर बेग की
मौत हो चुकी है. 14 सदस्यों वाले इस कुनबे की रोजी-रोटी किसी तरह चल ही
रही थी कि कुछ साल पहले उस पर एक और मुसीबत आ गई. कई साल पहले ग्राम प्रबंध
समिति ने महबूबन के भूमिहीन पति और बेटे को खेती करने के लिए गांव में 3.3
तीन बीघा सरकारी जमीन पट्टे पर दी थी. अनवर और उसके बेटे की मौत के बाद
जमीन महबूबन और उनकी बहू रुखसाना के नाम पर आ गई. जमीन के कुछ हिस्से पर
उन्होंने पेड़ लगा रखे थे, कुछ पर वे खेती करते थे. रुखसाना बताती हैं,
‘फसल के अलावा चरी बोकर हम एक-दो जानवर भी पाल लेते थे. बच्चों को दूध नसीब
हो जाता था.’
26 दिसंबर, 2007 को हरिद्वार के उपजिलाधिकारी ने महबूबन और उनकी बहू
रुखसाना सहित तेलीवाला गांव के अन्य 27 भूमिहीनों को दिए गए पट्टे निरस्त
कर दिए. इस फैसले की वजह बताई गई कि पट्टेदार इन जमीनों पर खेती नहीं करते
और उन्होंने जमीन का लगान भी जमा नहीं किया है. इस एक आदेश से निरस्त हुए
भूमिहीनों के पट्टों की जमीन लगभग 100 बीघा (8,10,000 वर्ग फुट) थी.इन
गरीबों के खिलाफ शिकायत गांव के ही कुछ लोगों ने की थी. शिकायत में इन
पट्टेधारकों को ट्रैक्टर और जीपों का मालिक दिखाया गया था. ऊपर से देखने
में इस शिकायत का मकसद भला दिख रहा था. शिकायत में मांग की गई थी, ‘पट्टे
में मिली जमीन पर स्वयं खेती न करने वाले लोगों के पट्टों को निरस्त कर
गांव के अन्य अनुसूचित जाति के भूमिहीनों को नये पट्टे दिए जाएं.’ तहलका को
मिली जानकारियां बताती हैं कि ये शिकायतकर्ता प्रॉपर्टी डीलर थे जो
तेलीवाला और उसके बगल के गांव औरंगाबाद में रामदेव के ट्रस्टों के लिए
जमीनें इकट्ठा करने के काम पर लगे थे.
उपजिलाधिकारी को शिकायत मिलने के तीसरे दिन ही लेखपाल ने लगभग 100 बीघा
भूमि की स्थलीय जांच की और तथ्यों की पड़ताल करके अपनी रिपोर्ट दे दी कि
वास्तव में इन पट्टों की जमीनों पर खेती नहीं हो रही है और ग्रामीणों ने
लगान भी नहीं दिया है. पट्टों पर लगभग नौ रुपये सालाना लगान तय था. रिपोर्ट
आने के दूसरे ही दिन हरिद्वार के तहसीलदार ने भी लेखपाल की जांच को सही
मानते हुए इन 29 भूमिहीनों के पट्टों को निरस्त करने की आख्या उपजिलाधिकारी
को भेज दी. शिकायत मिलने के नौ दिन बाद हरिद्वार के तहसीलदार की अदालत के
एक निर्णय के बाद ये अभागे पट्टाधारक फिर भूमिहीन बन गए.
गौर से देखने पर यह फैसला हास्यास्पद लगता है. इनमें से हर गरीब पर उस
समय सिर्फ 10 रु के लगभग लगान बकाया था. महबूबन कहती हैं, '10 रु की हैसियत
आज के जमाने में होती ही क्या है? उसे तो गरीब भी कभी भी दे सकता है.’
महबूबन के अलावा गांव की ही एक और विधवा शकीला का भी पट्टा निरस्त हुआ है.
शकीला और गांव के अन्य भूमिहीन अब नदी के किनारे बरसात में आई बालू पर
मौसमी सब्जी उगा रहे हैं. शकीला कहती हैं, ‘गरीब लोग जमीन पर खेती नहीं
करेंगे तो क्या करेंगे?'
अमूमन इस तरह की शिकायतें मिलने के बाद होने वाली जांचों में महीने गुजर जाते हैं. स्थलीय निरीक्षण और दो स्तर की जांचों के बाद पट्टाधारकों की आपत्तियां सुनी जाती हैं. इस प्रक्रिया के बाद उपजिलाधिकारी के न्यायालय में न्यायिक निर्णय होता है. भारत में राजस्व न्यायालयों के निर्णय आने में सामान्यतः सालों लग जाते हैं. लेकिन इन गरीबों के मामले में सब कुछ शताब्दी एक्सप्रेस वाली रफ्तार से हो गया. पूर्व आईएएस अधिकारी चंद्र सिंह कहते हैं, ‘जांच रिपोर्ट देने से पहले ग्राम सभा की खुली आम बैठक करानी थी ताकि शिकायतों की सत्यता की परख सबके सामने होती.’ सिंह आपातकाल के समय हरिद्वार में बतौर उपजिलाधिकारी सीलिंग की जमीनें भूमिहीनों को बांटने के लिए चर्चित रहे हैं. वे कहते हैं, ‘एक गरीब को फिर से भूमिहीन बनाने के दर्द का अहसास शायद इन कर्मचारियों को भी हो पर अमूमन इस तरह के निर्णय मोटे लालच या ऊपरी दबाव में होते हैं.’ हरिद्वार में ही तैनात रहे एक अन्य उपजिलाधिकारी बताते हैं कि उनके तीन साल के कार्यकाल में उनके सामने पट्टे निरस्त करने का कोई मामला नहीं आया था. वे कहते हैं, 'लगान की रकम अब इतनी कम होती है कि कोई भी गरीब उसे चुका सकता है.’तो आखिर इन 29 पट्टों को निरस्त करने के मामले में तेजी क्यों दिखाई गई? इसका जवाब तलाशने जब हम तेलीवाला गांव पहुंचे तो पता चला कि हरिद्वार के तत्कालीन उपजिलाधिकारी ने यह निर्णय जमीनी सच्चाइयों और हकीकतों को नकारते हुए सीधा-सीधा रामदेव को फायदा पहुंचाने के लिए दिया था.
अमूमन इस तरह की शिकायतें मिलने के बाद होने वाली जांचों में महीने गुजर जाते हैं. स्थलीय निरीक्षण और दो स्तर की जांचों के बाद पट्टाधारकों की आपत्तियां सुनी जाती हैं. इस प्रक्रिया के बाद उपजिलाधिकारी के न्यायालय में न्यायिक निर्णय होता है. भारत में राजस्व न्यायालयों के निर्णय आने में सामान्यतः सालों लग जाते हैं. लेकिन इन गरीबों के मामले में सब कुछ शताब्दी एक्सप्रेस वाली रफ्तार से हो गया. पूर्व आईएएस अधिकारी चंद्र सिंह कहते हैं, ‘जांच रिपोर्ट देने से पहले ग्राम सभा की खुली आम बैठक करानी थी ताकि शिकायतों की सत्यता की परख सबके सामने होती.’ सिंह आपातकाल के समय हरिद्वार में बतौर उपजिलाधिकारी सीलिंग की जमीनें भूमिहीनों को बांटने के लिए चर्चित रहे हैं. वे कहते हैं, ‘एक गरीब को फिर से भूमिहीन बनाने के दर्द का अहसास शायद इन कर्मचारियों को भी हो पर अमूमन इस तरह के निर्णय मोटे लालच या ऊपरी दबाव में होते हैं.’ हरिद्वार में ही तैनात रहे एक अन्य उपजिलाधिकारी बताते हैं कि उनके तीन साल के कार्यकाल में उनके सामने पट्टे निरस्त करने का कोई मामला नहीं आया था. वे कहते हैं, 'लगान की रकम अब इतनी कम होती है कि कोई भी गरीब उसे चुका सकता है.’तो आखिर इन 29 पट्टों को निरस्त करने के मामले में तेजी क्यों दिखाई गई? इसका जवाब तलाशने जब हम तेलीवाला गांव पहुंचे तो पता चला कि हरिद्वार के तत्कालीन उपजिलाधिकारी ने यह निर्णय जमीनी सच्चाइयों और हकीकतों को नकारते हुए सीधा-सीधा रामदेव को फायदा पहुंचाने के लिए दिया था.
इन भूमिहीन गरीबों के पट्टे निरस्त होने के केवल 15 दिन बाद 12 फरवरी,
2008 को रामदेव के पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट के महामंत्री आचार्य बालकृष्ण ने
हरिद्वार के जिलाधिकारी को एक पत्र लिखा. इसमें उन्होंने पतंजलि
विश्वविद्यालय और पतंजलि ट्रस्ट के लिए औरंगाबाद और तेलीवाला ग्रामसभा में
325 हेक्टेयर (4875 बीघा) सरकारी जमीन मांगी. आचार्य बालकृष्ण का कहना था
कि इस जमीन का इस्तेमाल लोकोपकारी कार्यों को करने के लिए होगा. आवंटन के
लिए भेजे गए प्रस्ताव में जिस भूमि की मांग की गई थी उसमें वह 100 बीघा
जमीन भी शामिल थी जो भूमिहीनों के पट्टे निरस्त करने के बाद फिर से सरकारी
हो गई थी. प्रस्ताव में आचार्य बालकृष्ण ने इस 4875 बीघा जमीन का विस्तार
से वर्णन किया है. इन भूमियों में भूमिहीनों के पट्टों की जमीन, पहाड़नुमा
भूमि, चौड़े पाट वाली बरसाती नदी का हिस्सा तो था ही, गांव के पशुओं के
चरने का गौचर, गांव का पनघट, श्मशान घाट और कब्रिस्तान भी था.
ट्रस्टों और स्वयंसेवी संगठनों के मामले में अक्सर देखने को मिलता है कि
जब वे सरकार से जमीन मांगते हैं तो इसके पीछे की वजह जनकल्याण का कोई काम
बताते हैं. बालकृष्ण ने भी बृहत स्तर पर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कामों के
लिए भूमि मांगते हुए औरंगाबाद गांव के अन्य 12 गरीब किसानों को पट्टों में
मिली 60 बीघा भूमि को भी पतंजलि योग पीठ को आवंटित करने का प्रस्ताव भेजा
था. ये जमीनें भी पतंजलि को तभी मिल सकती थीं जब इनके पट्टे निरस्त हो
जाते. कुल मिलाकर देखा जाए तो वे सरकार से हरिद्वार जिले की दो न्याय
पंचायतों- तेलीवाला और औरंगाबाद में सामूहिक उपयोग की सारी भूमि, निरस्त
हुए पट्टों की भूमि और कुछ अन्य पट्टों के निरस्त होने के बाद मिलने वाली
भूमि मांग रहे थे.
रामदेव की पहुंच और आचार्य बालकृष्ण के प्रबंधकीय कौशल के आगे नतमस्तक
तेलीवाला गांव के तत्कालीन ग्राम प्रधान अशोक कुमार ने भी हरिद्वार के
जिलाधिकारी को पत्र लिखकर पतंजलि योगपीठ को जमीन आवंटित करने के लिए अपनी
लिखित सहमति दे दी. प्रधान ने जिलाधिकारी को सिफारिश करते हुए लिखा कि
पतंजलि योग पीठ के कामों से गांव के बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध
होगा.सरकारी दस्तावेजों में दर्ज तारीखें बताती हैं कि जिस तेजी के साथ
भूमिहीनों के पट्टे निरस्त हुए थे वही फुर्ती अधिकारी रामदेव को सरकारी
जमीन आवंटित करने में भी दिखा रहे थे. बाबा को जमीन आवंटित करने के
प्रस्ताव में लेखपाल और तहसीलदार की रिपोर्ट हाथों-हाथ लग गई जबकि कायदे से
प्रस्ताव जिलाधिकारी को भेजने से पहले सारी जमीन का स्थलीय निरीक्षण और
ग्राम सभा की आपत्तियों का निराकरण होना चाहिए. तेलीवाला विजयपाल सैनी
कहते हैं, ‘सब कागजों में हो रहा था ताकि गांववालों को आवंटन की खबर न लग
पाए.’ आचार्य का पत्र मिलने के एक महीने से भी कम समय में हरिद्वार के
तत्कालीन जिलाधिकारी आनंद वर्द्धन ने पांच मार्च, 2008 को उत्तराखंड शासन
को पत्र लिखकर पतंजलि योगपीठ को सरकारी भूमि आवंटित करने की आख्या
उत्तराखंड शासन को भेज दी. जिलाधिकारी ने पतंजलि द्वारा मांगी गई जमीन की
लगभग आधी (140 हेक्टेयर) जमीन आवंटित करने की संस्तुति की थी.
ताज्जुब की बात यह थी कि आचार्य बालकृष्ण ने जमीन शिक्षा और स्वास्थ्य
जैसे जनकल्याण कार्यों को करने के लिए मांगी थी जबकि जिलाधिकारी ने अपनी
संस्तुति में लिखा कि प्रस्तावित जमीन पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट को कृषि संबंधी
अनुसंधान करने के लिए दी जानी चाहिए. जिलाधिकारी के पत्र में वर्णित आवंटन
के लिए प्रस्तावित भूमि में वह 100 बीघा भूमि भी थी जो 29 भूमिहीनों के
पट्टे निरस्त करके ग्राम समाज में मिला दी गई थी.
इस बीच रामदेव के भूमि हड़पो अभियान की भनक गांववालों को लग गई.
उन्होंने रामदेव को भूमि आवंटित करने के प्रस्ताव का शासन में जमकर विरोध
किया. लेकिन बाबा के प्रभाव के आगे सरकार और उसके अधिकारी गांववालों की
पीड़ा नहीं समझ रहे थे. तेलीवाला के ग्रामीण मीर आलम बताते हैं, ‘रामदेव
जिस तरह टीवी पर दुनिया का भला करने का सपना दिखाते हैं उसी भाषा में
सरकारी अधिकारी और छोटे राजस्व कर्मचारी गांववालों को समझा रहे थे कि बाबा
को जमीन देने से गांववालों और दुनिया को क्या फायदे होंगे. इन दोनों गांवों
के जागरूक लोगों ने प्रशासन को कई पत्र लिखे, लेकिन कुछ नहीं हुआ. सरकार
रामदेव को जमीन देने पर आमादा थी. आखिर थक-हार कर सैनी ने इस प्रस्तावित
आवंटन के विरोध में नैनीताल उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर दी.
न्यायालय ने ट्रस्ट को भूमि आवंटित करने पर रोक लगा दी. सैनी आशंका जताते
हुए कहते हैं, ‘रामदेव के प्रभाव में आकर कभी भी सरकार दो गांवों की सारी
जमीनें उन्हें दे सकती है.'
तेलीवाला
गांव में भूमिहीनों को दी गई करीब 100 बीघा जमीनों के पट्टे आनन-फानन में
निरस्त करके रामदेव के ट्रस्ट को दे दिए गए. कई मामलों में रामदेव की
संस्थाओं ने जमीनें पहले ही ले लीं और सरकार से उन्हें खरीदने की अनुमति
बाद में मांगी. हाल ही में रामदेव ने फिर सरकार से 125 हैक्टेयर भूमि
खरीदने की अनुमति मांगी है. पर ज्यादातर जमीनें उन्होंने पहले से ही अपने
कब्जे में ले रखी हैं
स्थगनादेश से भी महबूबन, रुखसाना और शकीला जैसी विधवाओं को न्याय नहीं
मिला. इन 29 पट्टाधारकों में से करीब आधों ने कमिश्नर के राजस्व न्यायालय
में अपील करके अपनी जमीन पर कब्जा बना कर रखा है. परंतु विधवाओं और गरीबों
को न तो कानून की समझ थी और न ही न्यायालय तक जाने की हिम्मत. इसलिए आधे
गरीबों की जमीनें सरकारी हो गईं जिन पर रामदेव के लोगों ने कब्जा कर लिया
है. तेलीवाला के मीर आलम का आरोप है कि इन विधवाओं के अलावा गांव के कुछ और
भूमिहीन किसानों की भूमियां भी बाबा के कब्जे में हैं. कब्जा की गई ये
जमीनें दरअसल रामदेव द्वारा खरीदी गई सैकड़ों बीघा जमीनों के बीच में या
पास में पड़ती हैं. विजयपाल सैनी का आरोप है कि बाबा इन दोनों गांवों की
एक-एक इंच जमीन खरीद कर या आवंटित करा कर अपनी सल्तनत कायम करना चाहते थे.
वे कहते हैं, ‘इस मकसद को पूरा करने के लिए उन्होंने भूमाफियाओं, राजस्व
कर्मचारियों और अपने राजनीतिक सरपरस्तों का गठबंधन बना रखा था. वह गठबंधन
गांव में गरीबों की जमीन को लालच दे कर अपने पक्ष में कराने की हर कानूनी
तिकड़म जानता था. बाबा का साथ दे रहे गांव के ये लोग गरीबों को धमका कर
गैरकानूनी तरीकों से भी जमीनों को हड़पने की दबंगई भी रखते थे.’
शांतरशाह नगर, बहेड़ी राजपूताना और बोंगला में भी अनुसूचित जाति के
किसानों की जमीनें खरीद कर उन्हें भूमिहीन किया गया. तहलका ने बाबा के
ट्रस्टों द्वारा खरीदी गई भूमियों में से एक (खाता संख्या 120) की गहनता से
जांच की तो पाया कि रामदेव ने जमीनों को खरीदने के लिए कानून के उन्हीं
छेदों का सहारा लिया है जिनका इस्तेमाल भूमाफिया अनुसूचित जाति के गरीब
किसानों की जमीन छीनने में करते हैं. बढेड़ी राजपूतान गांव निवासी कल्लू के
चार पुत्रों में से तीन ने वर्ष 2007 से लेकर 2009 के बीच जमीन को बंधक रख
बैंक से ऋण लेना दिखाया है. बाद में ऋण अदायगी के नाम पर अनुसूचित जाति के
इन किसानों को भूमि बेचने की इजाजत उपजिलाधिकारी से दिलाई गयी और इस भूमि
को पतंजलि योगपीठ ने ले लिया. अब ये परिवार भूमिहीन हैं.
पट्टे में मिली खेती की तीन बीघा जमीन पर बाबा के लोगों द्वारा कब्जा
करने के बाद शकीला अब अपने बेटे गुलजार के साथ नदी की रेत में पसीना बहा कर
किसी तरह दो जून की रोटी का इंतजाम करेगी. आचार्य बालकृष्ण ने सरकार को इस
नदी को भी उनके ट्रस्ट को आवंटित करने का प्रस्ताव भेजा है. फिर भूमिहीन
हो गए सैकड़ों ग्रामीण कहां जाएंगे, इसका जवाब किसी के पास नहीं है. हाल ही
में रामदेव ने फिर उत्तराखंड सरकार से हरिद्वार जिले के तेलीवाला,
औरंगाबाद, हजारा ग्रांट, अन्यगी आदि गांवों में 125 हेक्टेयर (1875 बीघा)
भूमि खरीदने की अनुमति मांगी है. वास्तव में ये जमीनें बाबा ने अपने लिए
इकट्ठा करवा कर कब्जे में ले रखी हैं. अब उन्हें खरीद का वैधानिक रूप देना
है. इनमें से ज्यादातर अनुसूचित जाति के किसानों की हैं जो बाबा को जमीन
बेच कर एक बार फिर भूमिहीन हो गए हैं. बाबा के ट्रस्टों के भू-विस्तार
अभियान से भूमिहीन हो गए सैकड़ों ग्रामीण कहां जाएंगे, इसके बारे में सोचने
की फुरसत किसी को नहीं. शकीला के पास टीवी भी तो नहीं है. कम से कम वह उस
पर रोज आ रहे बाबा रामदेव के प्रवचनों को सुन कर यह संतोष तो कर लेती कि
उसकी थोड़ी-सी जमीन काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ किए जा रहे बाबा के
संघर्ष में कुर्बान हुई है.
(महिपाल कुंवर के सहयोग के साथ)
(तहलका से साभार)
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