प्रवीण गुगनानी
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बचपन में पढ़ी सुनी वह कहानी कमोबेश सभी की स्मृति में होगी जिसमें एक राहगीर व्यापारी बंदरों द्वारा चोरी की गई अपनी टोपियों को चतुराई से वापिस लेनें का प्रयास करता है. देश में धर्मनिरपेक्षता की अजीबोगरीब और अनगढ़ परिभाषाओं के चलते बिहारी मुख्यमंत्री नीतीश भी इस अल्पसंख्यक टोपी को लेकर वैसी ही कोई नई कहानी रचनें का प्रयास करते दिखतें हैं. इसी क्रम में नई दिल्ली में चल रही जनता दल यूनाईटेड की केन्द्रीय बैठक में अंततोगत्वा नीतीश कुमार ने वह सब कुछ कह ही दिया जिसे कहनें और सुनानें के लिए वे सदैव कुलबुलाते रहतें हैं. उन्होंने जो कहा वह कतई अनपेक्षित नहीं था उनसें आशा इसी प्रकार की थी किन्तु लग रहा था कि वे कुछ अधिक शालीन रूप प्रदर्शित करेंगे जो वे नहीं कर पाए.
यह सुखद संयोग ही है कि भारत में गठबंधन की राजनीति का चलन नया होनें के बाद भी अत्यधिक परिपक्व और व्यवस्थित स्थापित हो चला है जिसके चलते राजग को नीतीश के जहर बुझे बाणों से भी -संभवतः – कोई स्थायी हानि नहीं होनें वाली है: किन्तु निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार ने अपनी ओर से इस गठबंधन को चोटिल करनें के प्रयास में कोई कमी नहीं रख छोड़ी है. पिछले लगभग छह वर्षों से बिहार में भाजपा के साथ शासन कर रहा जदयू भाजपा के साथ सत्रह वर्षों से सत्तासदन की ओर धीरे धीरे पींगें बढाता रहा है और गठबंधन के धर्म को भी निभाता रहा है किन्तु दुबारा मुख्यमंत्री बननें से शुरू होकर आगामी लोकसभा चुनावों के आहट देनें का समय आते तक बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मन बदल गया सा लगता है. उन्होंने जदयू की केन्द्रीय बैठक में जिस भाषा का जिस लहजें में प्रयोग किया उसे तो भाजपा को सीधी सीधी चुनौती ही मानना चाहिए और मानी भी जा रही है किन्तु मामला इतनें भर से आगे बढ़ जानें का नहीं है. इस सम्मेलन में नीतीश के भाषण के पहले जो हुआ वह अधिक उल्लेखनीय, वर्णनीय और पढ़ कर समीक्षा किये जानें योग्य है. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक और जदयू के अध्यक्ष शरद यादव ने नीतीश कुमार के भाषण के पहले तक जिस प्रकार इस सम्मेलन को चलाया उससे उन्होंने कई बार एक सिद्ध, सधे, सामंजस्य शाली और सद्भावी नेता की पहचान छोड़ी. बैठक के दौरान राजग संयोजक शरद यादव ने पिछलें महीनों में अनेकों बार जहर बुझी भाषा बोलनें वालें जदयू नेता शिवानन्द तिवारी को जहां बयान जारी करनें की जिम्मेदारी से अलग रखा वहीँ वे स्वयं अपने दल के नेताओं को मर्यादित रहनें की सीख देते मिले. जदयू के राशिद अली जैसे नेताओं को शरद यादव का यह व्यवहार नागवार भी गुजरा किन्तु वे कुछ अधिक न कह पाए और जो कहा गया था उस पर शरद यादव चुस्ती से सफलता पूर्वक डेमेज कंट्रोल करते भी दिखाई पड़े. कहा जा सकता है कि नीतीश के भाषण के पूर्व तक इस बैठक को शरद यादव गठबंधन धर्म का चोला पहनाएं रहे किन्तु जैसे ही बिहार की जदयू भाजपा नीत सरकार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपना भाषण देनें खड़े हुए लगनें लगा जैसे गठबंधन धर्म एक रस्म मात्र है जिसे नीतीश मज़बूरी में ढो रहें हैं. एक ओर जहां जदयू अध्यक्ष और राजग संयोजक शरद यादव इउस गठबंधन के लिए अपनी पूरी क्षमताओं और निष्ठाओं के साथ इसे निभानें को दृढ़ संकल्पित दिखें वहीँ नीतीश इस राजग की जड़ों में मट्ठा बहाते नजर आये. गठबंधन की राजनीति में परिपक्व हो चुके शरद यादव नीतीश के इस आचरण के लिए किस प्रकार का डेमेज कंट्रोल करतें हैं या किस प्रकार नीतीश कुमार के व्यक्तव्यों से फैले जहर को अपनी संवेदन शीलता से ठीक करतें हैं इस बात पर ही अब राजग और जदयू के सम्बन्ध निर्भर करेंगे. निस्संदेह शरद यादव का आचरण पहली नजर से इस प्रकार का रहा है कि वे सप्रंग सरकार को उखाड़ फेंकनें के लिए राजग की सेहत और शक्ति के प्रति पूर्ण चैतन्य, जागृत और जवाबदार रहें हैं किन्तु इस बार जिस प्रकार की भाषा नीतीश कुमार ने कही है वह इसलिए अक्षम्य है क्योकि यह कोई पहला अवसर नहीं है जब नीतीश ने ऐसे जहर बुझे तीर छोड़ें हों. अभी कुछ महीनों पूर्व की ही बात है जब नीतीश कुमार ने नरेन्द्र मोदी की ओर स्पष्ट निशाना साधते हुए दुस्साहस पूर्वक कहा था कि “कोई हिंदूवादी इस देश का प्रधान मंत्री नहीं बन सकता.” एक संवैधानिक पद पर आसीन और लोकतांत्रिक संविधियों के जानकार व्यक्ति का किसी धर्म विशेष के बारें में यह कहना उन्हें न्यायालय के कटघरें में खड़ा करनें के लिए प्रयाप्त कारण बनता था किन्तु दुर्भाग्य से इस तथाकथित छदम धर्म निरपेक्षता वादी इस देश में ऐसा कुछ हुआ नहीं. इस देश का कोई नागरिक सविंधान की शपथ लेकर मुख्यमंत्री बननें वालें इस व्यक्ति को यदि न्यायालय में खड़ा कर देता तो आज नीतीश ने जो कहा उसे कहनें का वे साहस दुस्साहस नहीं कर पाते. नई दिल्ली में जब नीतीश कुमार ने यह कहा कि प्रधानमन्त्री पहननें के लिए टोपी भी पहननी पड़ेगी तो उन्हें इस कहे की कीमत चुकानें के लिए तैयार रहनें की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उनकें इस कहे उगले की कीमत तो इस देश के आनें वाले भविष्य और पीढ़ियों को चुकानी पड़ेगी. नीतीश तो एक लम्हा भर है जो इस महान देश के इतिहास में आयेगा और बीत जाएगा किन्तु आनें वाली सदियाँ इस प्रधानमन्त्री बननें के लोभी व्यक्ति को अवश्य ही या तो भुगतेगी या इस कहे का निराकरण कर एक नया इतिहास रचेंगी.
बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू नेता को प्रधानमन्त्री बननें का सुन्दर स्वप्न देखनें का अधिकार है और इसके लिए वे अतिशय जल्दीबाजी मचाएं और कुछ कूद फांद करनें का सफल असफल प्रयास भी करें यह भी उनका अधिकार है किन्तु यह उनका अधिकार नहीं है कि प्रधानमन्त्री पहननें के लिए वे टोपी पहननें को अनिवार्य कहनें की धृष्टता और दुष्टता करते दिखाई दें. नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री बनें या न बनें इसमें मेरी रूचि हो भी सकती है और नहीं भी किन्तु इस बात में इस पुरे देश की रूचि है कि टोपी पहननें की अनिवार्यता की बात पर सौ सौ लानतें और ऐसी सौ सौ प्रधानमंत्रियों की कुर्सियां और बादशाहतें बलिदान कर दी जानी चाहियें.
यह इस देश का दुर्भाग्य और यहाँ चल रही छदम धर्म निरपेक्षता की राजनीति से उपजी विडंबना ही कही जानी चाहिए कि टोपी पहन लेनें में प्रधानमन्त्री बननें की योग्यता और अहर्ता मानी जाती है. राजग गठबंधन में सत्रह वर्षों से भाजपा के साथ ताज़ी प्राणवायु ले रहे नीतीश कुमार को आज अचानक यदि भाजपा या भाजपा का कोई एकाधिक दशक पुराना सिपाही नागवार और अस्पृश्य लग रहा है तो उसके इस आचरण पर सीमित हास्य और असीमित वितृष्णा ही एक मात्र प्रतिक्रया हो सकती है इसके अतिरिक्त कुछ नहीं.
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