अरुणेश सी दवे
अपने पांच साल के बेटे को गोद में बिठाकर मैं गुड़िया के साथ हुए जघन्य व्यवहार की खबर सुन रहा था। पहली बात जो मेरे दिमाग में आई, वह यह थी कि अच्छा हुआ मुझे दोनों बेटे ही हुए। जिस बेटी के न होने पर मुझे शादी के 13 साल तक अफ़सोस था, आज उसी बेटी के न जन्मने का शुक्राना। जिस देश में पांच साल की लड़की के शरीर में बॉटल और मोमबत्ती घुसा दी जाए, वह देश बेटियां पैदा करने लायक ही नहीं है। आज हम किसी राजा बादशाह या अंग्रेज के गुलाम नहीं हैं। हमने खुद अपने नुमाइंदे चुनकर यह सरकार बनाई है। इसके बाद यह हाल है कि पुलिस बात दबाने के लिए पैसे ऑफर करती है, प्रधानमंत्री समाज को आत्मपरीक्षण की नसीहत देता है, दुख जाहिर करता है, मुंह लटकाता है। जिसे खाली लेक्चर देना आता है, वह जाकर किसी स्कूल में गुरुजी बन जाये। प्रधानमंत्री का काम लेक्चर देना नहीं और न ही बलात्कारी को पकड़ना है। उसका काम है व्यवस्था को, सरकारी मशीनरी को देश के सामने खड़ी समस्याओं और कमियों को दूर करने के हिसाब से ढालना, जिसमें मनमोहन सिंह पूरी तरह नाकाम रहे हैं, हमारे राजनीतिक दल नाकाम रहे हैं, हमारी पत्रकारिता भी पूरी तरह नाकाम रही है और हमारा समाज भी नाकाम रहा है।
बलात्कार हुआ, हैवानियत हुई, यह कोई नई बात नहीं है। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशो में भी होता है, और आगे भी होता रहेगा। लेकिन घटना के बाद हमारी पुलिस, प्रशासन और नेताओं ने जो कुछ किया, वह शर्मनाक था। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस नकारा है इसलिए सब नकारा हो गए। बीजेपी होती, एसपी, बीएसपी या वामपंथी होते, तब भी ठीक ऐसी ही शर्मनाक प्रतिक्रिया होती। खामी पूरे तंत्र में है, सिर्फ़ एक दल या नेता में नहीं। बलात्कार रोकने के लिए मुल्ला बुर्का पहनाने की सलाह देगा तो पंडित सलीकेदार कपड़े पहनाने की। लेकिन इस समाज को सुधारने का उपाय किसी के पास नहीं है। खामी शुरू होती है उस कक्षा से, जिसमें बच्चों को गणित और साइंस रटा-रटा कर बड़ा किया जाता है। बच्चों को अफ़सर-बाबू बनाने वाली व्यवस्था से शुरुआत होती है इस सबकी। मानवीय संवेदना पैदा करने वाला साहित्य पढ़ाने की कोई जरूरत महसूस नहीं करता। मानवता का पाठ ग्रामर की किताबें नहीं सिखातीं। दूसरों को पछाड़कर आगे बढ़ जाने की ललक जिस देश में हो, वहां बेटियां कैसे सुरक्षित रहें?
समाज बनता है चरित्र से, सामाजिक आचरण सिखाने से, उस साहित्य को पढ़ाने से जो पीड़ितों की मनोदशा का मार्मिक चित्रण करता हो। प्रेमचंद्र को पढ़ा हुआ बिरला ही किसी गरीब या दलित से दुर्व्यवहार कर सकता है। धर्म के ठेकेदार कहते हैं दीन की तरफ़, धर्म की तरफ़ जाओ तो चरित्र निर्माण होगा। अरबी या संस्कृत के श्लोक रट-रट कर किसका चरित्र निर्माण आज तक हुआ है भला? यहां तो बीच सड़क पर मां की लाश के साथ बिलखते मासूम को देख कर भी गाड़ियां नहीं रुकतीं।
ये टीवी के एंकर नेताओं की आपसी बहस दिखा रहे हैं। अरे भाई मनोचिकित्सकों को बुलाओ और जनता को बताओ कैसे बच्चियों के साथ हैवानियत करने वाले मानसिक रोगियों की पहचान की जा सकती है। उनके क्या लक्षण होते हैं? वे कैसी हरकतों से पहचाने जा सकते हैं? लोगों से अपील करो कि इन लक्षणों को अगर किसी परिचित या रिश्तेदार में देखें तो तत्काल पुलिस को सूचित करें। पुलिस उन्हें जेल नहीं भेजेगी, बल्कि उनका मानसिक इलाज करवाएगी। इन रिश्वत खाने वाले आईएएस अफ़सरों के बजाए समाजशास्त्रियों से पूछो कि क्या सिलेबस रखें कि हम एक उन्नत समाज विकसित कर सकें। मै एक बात और कहता हूं कि पुलिस से बड़ा समाज सेवक कोई नहीं है। दुनिया के सारे नाशुक्रे काम वही करती है। सारी बदनामी वही झेलती है और सबसे अमानवीय कंडिशन में वही काम करती है। उस पुलिसवाले ने दो हजार रुपये इसलिये दिए कि बात मीडिया में न जाए, हल्ला न मचे। हल्ला मचने से लोग पुलिस पर टूट पड़ते हैं कि अपराध क्यों हुआ, रोका क्यों नहीं? उन पर इतना दबाव है कि वे जुर्म दर्ज भी नहीं करना चाहते। जुर्म का प्रतिशत बढ़ा तो उनकी चरित्रावली में नेगेटिव टिप्पणी कर उनका प्रमोशन अटका दिया जाता है।
पुलिस का काम अपराधी को पकड़ना है, अपराध रोकना नहीं। खासकर हत्या और बलात्कार जैसे अपराध तो रोके ही नहीं जा सकते। पुलिस सुधार इस देश को करने नहीं हैं, ट्रेनिंग और प्रयोगशालाएं देनी नहीं हैं। बस कुछ हुआ तो पुलिस जिम्मेदार। संगठित अपराध, चोरी, डकैती जैसे जुर्म अलग श्रेणी में आते हैं, इन्हें पुलिस रोक सकती है क्योंकि इसके अपराधी बार-बार अपराध करते हैं, चिन्हित होते हैं। हत्या और बलात्कार के अपराधी नब्बे प्रतिशत नए होते हैं या ऐसे होते हैं जिनकी रिपोर्ट पहले नहीं की गई होती है। बाकी सरकारी महकमों की तरह पुलिस विभाग भी आकंठ करप्शन के चंगुल में है। साथ ही वीआईपी ड्यूटी से लेकर वे तमाम काम पुलिस के सर लाद दिए जाते हैं, जो इस तथाकथित अपराध रोकने वाली संस्था के हैं ही नहीं।
आम आदमी पार्टी की जिस लड़की को थप्पड़ मारा गया, वह एसीपी के कपड़े नोच रही थी। ये कौन सा विरोध का तरीका है कि साइलेंस जोन अस्पताल में हंगामा कर रहे हो, पुलिस वाले के कपड़े नोच रहे हो? फ़िर दावा करते हो कि हम गांधी के अनुयायी हैं। आपकी अहिंसा में अगर कपड़े नोचना, छीन-झपट करना है, तो उस पुलिसवाले ने भी अहिंसा की। फिर काहे का हो-हल्ला ?
कुल मिलाकर इस देश में सभी ने अपनी मर्यादाओं को त्याग दिया है। चाहे नेता हों, चाहे प्रशासनिक अफ़सर हों, चाहे आंदोलनकारी हों या फिर इस देश के नागरिक। और जिस देश में मर्यादाओं का पालन न हो, उस देश में बेटी पैदा करना कोई अक्लमंदी का काम तो नहीं ही कहा जा सकता।
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