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रवि अवस्थी
भोपाल. सेन्ट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्युनल यानी केट की सदस्य व वर्ष 1974 बैच की भारतीय प्रशासनिक सेवा की अधिकारी श्रीमती रंजना चौधरी क्या झूठ भी बोलती हैं? केट में सदस्य बनने के लिए उनके द्वारा इस संस्थान को दिया गया आवेदन तो यही बताता है।
रंजना ने अपने एकेडमिक कैरियर का हवाला देते हुए इस आवेदन में कहा,कि मप्र के व्यवसायिक परीक्षा मंडल में अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने वहां की कार्यप्रणाली को न केवल मजबूत किया बल्कि परीक्षा की गोपनीयता को कायम रखने सुरक्षा इंतजाम भी कड़े किए। गहन अनुसंधान के बाद मंडल की परीक्षा प्रणाली को अभेद बनाते हुए इसकी तकनीकी गुणवत्ता में सुधार किया। मंडल द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं क ी विश्वसनीयता के बारे में व्याप्त भ्रांतियों,गलत परंपराओं को समाप्त करते हुए इस दिशा में जनजागरूकता भी पैदा की। मंडल की परीक्षाओं के मानकों को कड़ा किया।
यहां की सभी शाखाओं/सेक्शन के लिए उन्होंने एक प्रोटोकाल तय कर इसका कड़ाई से पालन कराया। परीक्षाओं के आयोजन की प्रणाली को साफ-सुथरा व पारदर्शी बनाते हुए इन्हें नॉन एक्सप्लोटेटिव यानी गैर-शोषक बनाया। अपनी उपलब्धि के इस ब्यौरे में उन्होंने दावा किया कि उनकी इस सख्त व पारदर्शी कार्यप्रणाली का नतीजा है कि वर्ष 2012 में ही मंडल द्वारा एक लाख से अधिक पदों के लिए 31 तरह की परीक्षाओं का आयोजन किया। इनमें पहली बार 35 लाख से अधिक अभ्यार्थी शामिल हुए। ऐसा मंडल के इतिहास में पहली बार हुआ। बतौर व्यापमं चेयरमेन उनके सेवाकाल का यह एक ऐसा पड़ाव रहा, जिसे वह अपनी प्रशासनिक उपलब्धि में ‘मील का पत्थर’ मानती हैं।
सवाल यह,कि श्रीमती चौधरी ने मंडल अध्यक्ष रहते हुए यदि उक्त सभी कदम उठाए थे तो फिर व्यापमं का भर्ती घोटाला क्या है? इसमें श्रीमती चौधरी के कार्यकाल में आयोजित परीक्षाओं की गड़बड़ियां बडे पैमाने पर सामने आ चुकी हैं। प्रदेश के मुखिया ही राज्य विधानसभा में यह स्वीकार कर चुके हैं,कि व्यापमं की परीक्षाओं में हजार से अधिक पदों को लेकर गड़बड़ी हुई। तो क्या रंजना चौधरी ने अपनी उपलब्धियों को लेकर केट को गलत जानकारी दी या व्यापमं को लेकर एसटीएफ द्वारा की जा रही जांच गलत है? जाहिर है, सेवानिवृति से पहले लाभ का एक पद और पाने के लिए श्रीमती रंजना चौधरी ने केट को गलत जानकारियां दीं। बतौर अध्यक्ष उनके सेवाकाल के दौरान भी व्यापमं में भी बड़े पैमाने पर धांधली जारी थी।
उनका आवेदन दर्शाता है,कि केट का सदस्य बनने के लिए उन्होंने इस संस्थान को जो जानकारी वह पूरी तरह सही नहीं थी। तब यह सवाल उठना लाजिमी है,कि व्यापमं घोटाले को लेकर उन्हें 42 लाख रुपए दिए जाने के मामले में उन्होंने जो सफाई दी वह सही है? जिसके आधार पर उक्त घोटाले की जांच कर रही ,एजेंसी साक्ष्यों की कमी बता कर उन्हें इस मामले में सरकारी गवाह बनाने पर आमदा है।
इलाहाबाद विवि से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त श्रीमती चौधरी ने अपने 38 सेवाकाल के दौरान उन्होंने प्रदेश के 18 विभागों में अपनी सेवाएं दी। अपने कार्यकाल के आरंभिक वर्षों में वह तीन जिले रतलाम, होशंगाबाद व रायसेन की कलेक्टर भी रहीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि श्रीमती चौधरी एक सख्त व कुशल प्रशासक रहीं। अपनी कार्यकुशलता के दम पर ही वह अपर मुख्य सचिव पद तक पहुंचीं। वर्ष 2004 से 2010 तक वह खेल एवं युवक कल्याण विभाग की प्रमुख रहीं। किसी विभाग में उनका यह सर्वाधिक लंबा कार्यकाल रहा।
इस दौरान प्रदेश में खेलों की दशा सुधारने के लिए उन्होंने लीक से हटकर प्रयास किए। इसके चलते विभाग को मप्र को पहली बार राष्ट्रीय खेल प्रोत्साहन पुरस्कार-2010 हॉसिल हुआ। इससे पहले वर्ष 2009 में ही इस विभाग को मुख्यमंत्री एक्सलेंसी अवार्ड भी मिला। विभाग में कुल सृजित पदों की संख्या 152 से बढ़ कर 565 हुर्इं। उनके कार्यकाल में ही विभाग का बजट 5 करोड़ से बढ़ कर 60 करोड़ तक जा पहुंचा। यह ‘खेलों’ के प्रति उनके अनुराग का ही नतीजा था,कि इन वर्षों में प्रदेश के खिलाड़ियों ने विभिन्न र्स्पधाओं में 118 गोल्ड ,96 सिल्वर व 89 ब्रांज पदक हॉसिल किए।
इसके बाद वह कृषि उत्पादन आयुक्त बनीं तो प्रदेश की तत्कालीन कृषि दर में 10 प्रतिशत का इजाफा हुआ। प्रदेश के करीब 58 लाख किसानों को उनके कार्यकाल में ही केंद्र प्रवर्तित किसान क्रेडिट कार्ड आवंटित किए गए। यहीं नहीं मछुआरों के लिए लागू क्रेडिट कार्ड योजना भी उन्हीं के दिमाग की उपज है। प्रदेश की नई मछुआ नीति,खेल नीति,खाद्य प्रसंस्करण नीति व युवा नीति ने भी उनके कार्यकाल में ही आकार लिया। यह अलग बात है,कि इन नीतियों का अपेक्षित लाभ संबंधितों को नहीं मिल सका।
रवि अवस्थी
भोपाल. सेन्ट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्युनल यानी केट की सदस्य व वर्ष 1974 बैच की भारतीय प्रशासनिक सेवा की अधिकारी श्रीमती रंजना चौधरी क्या झूठ भी बोलती हैं? केट में सदस्य बनने के लिए उनके द्वारा इस संस्थान को दिया गया आवेदन तो यही बताता है।
रंजना ने अपने एकेडमिक कैरियर का हवाला देते हुए इस आवेदन में कहा,कि मप्र के व्यवसायिक परीक्षा मंडल में अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने वहां की कार्यप्रणाली को न केवल मजबूत किया बल्कि परीक्षा की गोपनीयता को कायम रखने सुरक्षा इंतजाम भी कड़े किए। गहन अनुसंधान के बाद मंडल की परीक्षा प्रणाली को अभेद बनाते हुए इसकी तकनीकी गुणवत्ता में सुधार किया। मंडल द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं क ी विश्वसनीयता के बारे में व्याप्त भ्रांतियों,गलत परंपराओं को समाप्त करते हुए इस दिशा में जनजागरूकता भी पैदा की। मंडल की परीक्षाओं के मानकों को कड़ा किया।
यहां की सभी शाखाओं/सेक्शन के लिए उन्होंने एक प्रोटोकाल तय कर इसका कड़ाई से पालन कराया। परीक्षाओं के आयोजन की प्रणाली को साफ-सुथरा व पारदर्शी बनाते हुए इन्हें नॉन एक्सप्लोटेटिव यानी गैर-शोषक बनाया। अपनी उपलब्धि के इस ब्यौरे में उन्होंने दावा किया कि उनकी इस सख्त व पारदर्शी कार्यप्रणाली का नतीजा है कि वर्ष 2012 में ही मंडल द्वारा एक लाख से अधिक पदों के लिए 31 तरह की परीक्षाओं का आयोजन किया। इनमें पहली बार 35 लाख से अधिक अभ्यार्थी शामिल हुए। ऐसा मंडल के इतिहास में पहली बार हुआ। बतौर व्यापमं चेयरमेन उनके सेवाकाल का यह एक ऐसा पड़ाव रहा, जिसे वह अपनी प्रशासनिक उपलब्धि में ‘मील का पत्थर’ मानती हैं।
सवाल यह,कि श्रीमती चौधरी ने मंडल अध्यक्ष रहते हुए यदि उक्त सभी कदम उठाए थे तो फिर व्यापमं का भर्ती घोटाला क्या है? इसमें श्रीमती चौधरी के कार्यकाल में आयोजित परीक्षाओं की गड़बड़ियां बडे पैमाने पर सामने आ चुकी हैं। प्रदेश के मुखिया ही राज्य विधानसभा में यह स्वीकार कर चुके हैं,कि व्यापमं की परीक्षाओं में हजार से अधिक पदों को लेकर गड़बड़ी हुई। तो क्या रंजना चौधरी ने अपनी उपलब्धियों को लेकर केट को गलत जानकारी दी या व्यापमं को लेकर एसटीएफ द्वारा की जा रही जांच गलत है? जाहिर है, सेवानिवृति से पहले लाभ का एक पद और पाने के लिए श्रीमती रंजना चौधरी ने केट को गलत जानकारियां दीं। बतौर अध्यक्ष उनके सेवाकाल के दौरान भी व्यापमं में भी बड़े पैमाने पर धांधली जारी थी।
उनका आवेदन दर्शाता है,कि केट का सदस्य बनने के लिए उन्होंने इस संस्थान को जो जानकारी वह पूरी तरह सही नहीं थी। तब यह सवाल उठना लाजिमी है,कि व्यापमं घोटाले को लेकर उन्हें 42 लाख रुपए दिए जाने के मामले में उन्होंने जो सफाई दी वह सही है? जिसके आधार पर उक्त घोटाले की जांच कर रही ,एजेंसी साक्ष्यों की कमी बता कर उन्हें इस मामले में सरकारी गवाह बनाने पर आमदा है।
इलाहाबाद विवि से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त श्रीमती चौधरी ने अपने 38 सेवाकाल के दौरान उन्होंने प्रदेश के 18 विभागों में अपनी सेवाएं दी। अपने कार्यकाल के आरंभिक वर्षों में वह तीन जिले रतलाम, होशंगाबाद व रायसेन की कलेक्टर भी रहीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि श्रीमती चौधरी एक सख्त व कुशल प्रशासक रहीं। अपनी कार्यकुशलता के दम पर ही वह अपर मुख्य सचिव पद तक पहुंचीं। वर्ष 2004 से 2010 तक वह खेल एवं युवक कल्याण विभाग की प्रमुख रहीं। किसी विभाग में उनका यह सर्वाधिक लंबा कार्यकाल रहा।
इस दौरान प्रदेश में खेलों की दशा सुधारने के लिए उन्होंने लीक से हटकर प्रयास किए। इसके चलते विभाग को मप्र को पहली बार राष्ट्रीय खेल प्रोत्साहन पुरस्कार-2010 हॉसिल हुआ। इससे पहले वर्ष 2009 में ही इस विभाग को मुख्यमंत्री एक्सलेंसी अवार्ड भी मिला। विभाग में कुल सृजित पदों की संख्या 152 से बढ़ कर 565 हुर्इं। उनके कार्यकाल में ही विभाग का बजट 5 करोड़ से बढ़ कर 60 करोड़ तक जा पहुंचा। यह ‘खेलों’ के प्रति उनके अनुराग का ही नतीजा था,कि इन वर्षों में प्रदेश के खिलाड़ियों ने विभिन्न र्स्पधाओं में 118 गोल्ड ,96 सिल्वर व 89 ब्रांज पदक हॉसिल किए।
इसके बाद वह कृषि उत्पादन आयुक्त बनीं तो प्रदेश की तत्कालीन कृषि दर में 10 प्रतिशत का इजाफा हुआ। प्रदेश के करीब 58 लाख किसानों को उनके कार्यकाल में ही केंद्र प्रवर्तित किसान क्रेडिट कार्ड आवंटित किए गए। यहीं नहीं मछुआरों के लिए लागू क्रेडिट कार्ड योजना भी उन्हीं के दिमाग की उपज है। प्रदेश की नई मछुआ नीति,खेल नीति,खाद्य प्रसंस्करण नीति व युवा नीति ने भी उनके कार्यकाल में ही आकार लिया। यह अलग बात है,कि इन नीतियों का अपेक्षित लाभ संबंधितों को नहीं मिल सका।
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