कांग्रेस के नेतृत्व में सात विपक्षी दलों की ओर से लाए गए महाभियोग प्रस्ताव को ख़ारिज करते हुए उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा कि यह राजनीति से प्रेरित है.
नवभारत टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, उपराष्ट्रपति ने महाभियोग प्रस्ताव को ख़ारिज करने के पीछे तकनीकी आधार को बताया है. इसके अलावा 20 पेज के आदेश में उपराष्ट्रपति ने लिखा है कि यह राजनीति से प्रेरित प्रस्ताव है.
आदेश में कहा गया है कि विपक्ष के 71 सांसदों के हस्ताक्षर किए गए महाभियोग प्रस्ताव में सात पूर्व सांसदों के हस्ताक्षर थे. इसलिए तकनीकी आधार पर इसे ख़ारिज किया जाता है.
मालूम हो कि कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दलों ने बीते 20 अप्रैल को उपराष्ट्रपति व राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू से मिलकर भारत के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ महाभियोग चलाने का नोटिस दिया था.
सात राजनीतिक दलों से तकरीबन 71 सांसदों ने प्रधान न्यायाधीश के ख़िलाफ़ महाभियोग का नोटिस दिया. महाभियोग के नोटिस पर हस्ताक्षर करने वाले सांसदों में कांग्रेस, राकांपा, माकपा, भाकपा, सपा और बसपा के सदस्य शामिल थे.
विपक्ष ने इन पांच आरोपों को आधार बनाकर प्रस्ताव लाया था
1. पहला आरोप प्रसाद एजुकेशनल ट्रस्ट से संबंधित हैं. इस मामले में संबंधित व्यक्तियों को ग़ैरक़ानूनी लाभ दिया गया. इस मामले को प्रधान न्यायाधीश ने जिस तरह से देखा उसे लेकर सवाल है. यह रिकॉर्ड पर है कि सीबीआई ने प्राथमिकी दर्ज की है. इस मामले में बिचौलियों के बीच रिकॉर्ड की गई बातचीत का ब्यौरा भी है.
प्रस्ताव के अनुसार इस मामले में सीबीआई ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति नारायण शुक्ला के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज करने की इज़ाज़त मांगी और प्रधान न्यायाधीश के साथ साक्ष्य साझा किए. लेकिन उन्होंने जांच की इज़ाज़त देने से इनकार कर दिया. विपक्ष का कहना है कि इस मामले की गहन जांच होनी चाहिए.
2. दूसरा आरोप उस रिट याचिका को प्रधान न्यायाधीश द्वारा देखे जाने के प्रशासनिक और न्यायिक पहलू के संदर्भ में है जो प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट के मामले में जांच की मांग करते हुए दायर की गई थी.
3. कांग्रेस और दूसरे दलों का तीसरा आरोप है कि यह परंपरा रही है कि जब प्रधान न्यायाधीश संविधान पीठ में होते हैं तो किसी मामले को शीर्ष अदालत के दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश के पास भेजा जाता है. इस मामले में ऐसा नहीं करने दिया गया.
4. प्रस्ताव में विपक्षी दलों ने कहा कि प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने वकील रहते हुए ग़लत हलफ़नामा देकर ज़मीन ली और 2012 में उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश बनने के बाद उन्होंने ज़मीन वापस की, जबकि उक्त ज़मीन का आवंटन वर्ष 1985 में ही रद्द कर दिया गया था.
5. पांचवां आरोप है कि प्रधान न्यायाधीश ने उच्चतम न्यायालय में कुछ महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील मामलों को विभिन्न पीठ को आवंटित करने में अपने पद एवं अधिकारों का दुरुपयोग किया.
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