By आर एल फ्रांसिस
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मीडिया और बाजार वेलेंटाइन-डे के प्रचार-प्रसार में जुट गए है। आर्थिक मामलों के जानकारों का मानना है कि देश में वेलेंटाइन डे मार्किट 1200 करोड़ रुपए के आंकड़े को पार कर गया था। बढ़त का यह सिलसिला पिछले कई वर्षो से 20 प्रतिशत से भी ज्यादा की दर से बढ़ रहा है। देश की आधी से ज्यादा आबादी युवा है और मंदी के इस दौर में भी इसे आगे बढ़ाने के प्रयासों के तहत ही वेलेंटाइन डे समर्थक इसका विरोध करने वालों को मीडिया की मदद से आम भारतीयों की नजर में खलनायक बनाने में जुटे हुए है।
पिछले कुछ वर्षो से 14 फरवरी वाले दिन भारतीय संस्कृति के कुछ तथाकथित झंडाबरदार धमाचौकड़ी मचाकर खुश होते आ रहे है। आधुनिक सभ्यता की विकृतियों का मुकाबला धमाचौकड़ी मचाकर नही किया जा सकता। संसार के सभी धर्म और सुधार आंदोलन स्वच्छंद यौनाचार का समर्थन नही करते। लेकिन आज देश के अंदर व्यतिगत स्वातंत्रय और आधुनिकीकरण के नाम पर उच्छृखल जीवनशैली की वकालत करना फैशन बनता जा रहा है। आज भी पूरे विश्व में नारी पुरुष संबधों में पवित्रता का आर्दश पूरी तरह मान्य है। परिवारों में टूटन से पश्चिमी समाज में गहन चिंतन हो रहा है।
हाल ही में आए कुछ सर्वो के मुताबिक विवाहक संबध टूटने के मामले लगातार बढ़ रहे है लेकिन सुखद पहलू यह है कि भारत में यह बहूत कम है क्योंकि यहा शादी को जन्मों का रिश्ता माना गया है। सर्वे के मुताबिक स्वीडन 54.9 अमेरिका 54.8 ब्रिटेन 42.6 जर्मनी 39.4 फ्रांस 38.3 कनाडा 37.0 भारत 1.1 है। लेकिन आज भारत का मीडिया भारी अन्तर्विरोध में फंसा हुआ है एक तरफ वह रोजाना अनैतिक कार्यो के दुष्टपरिणामों वाले समाचार प्रकाशित एवं प्रसारित करता है वहीं दूसरी और वह नये-नये लव गुरु ढूंढकर फैशन और सेक्स को बेशर्मी के साथ बेचता है। लव से लेकर लिव-इन रिलेशनशिप तक के फायदे गिनाता है।
भारतीय संस्कृति की चिंता करने वालो को यह समझना जरुरी है कि संत वेलेंटाइन अचानक भारत नही आ गए उनकों यहा लाने में 150 सालो से ज्यादा का समय लगा है और अब मैकले को भारत में स्थापित किये जाने के प्रयास किए जा रहे है। हैरानी नहीं होगी कि आने वाले पचास सौ सालो में मैकले भी भारतीय युवा पीढ़ी के नायक बन जाए। मैकाले और संत वेलेंटाइन में गहरा रिश्ता है। 19 वीं सदी में मैकाले द्वारा भारत को दी गई शिक्षा प्रणाली ही इसकी देन है। 1835 में मैकाले द्वारा जारी मेमो में इस का उल्लेख मिलता है उसका मकसद एक ऐसे समूह का निर्माण करना था जो रक्त और रंग में तो भारतीय हो किंतु रुचि, राय, नैतिकता तथा सूझबूझ में अंग्रेज। वह अपने पिता को लिखे एक पत्र में लिखता है कि ‘‘मैं भारत में एक ऐसी प्रणाली विकसित कर रहा हूं जो ऐसे ‘काले अंग्रेज’ पैदा कर देगी, जो अपनी ही संस्कृति का उपहास उड़ाने में गर्व महसूस करेंगे। वह भारत की प्राचीन सभ्यता को आमूल नष्ट करने में हमारे सहायक होंगे। इसके बाद हम अगर परिस्थितिवश भारत छोड़कर चले भी गए तो यह काले अंग्रेज हमारा काम करते रहेंगे।’’
मैकाले के बहनोई चार्ल्स एडवर्ड ट्रेविलियन ने शिक्षा प्रणाली को सम्पूर्ण भारत में फैलाने के लिए पश्चिमी समाज से सहायता की मांग की इसके लाभदायक परिणामों की चर्चा करते हुए उसने कहा कि मैकाले की योजना रंग ला रही है बंगाल में ही संभ्रात बंगाली समुदाय ने इसे अपना लिया है और इस प्रणाली के माध्यम से हम धर्म परिवर्तन के प्रयास किए बिना, धार्मिक स्वतंत्रता के प्रति तनिक भी छेड़-छाड़ किए बिना सिर्फ अपनी इस शिक्षा प्रणाली के बल पर चर्च के कार्यो को बढ़ने एवं ईसाइयत का प्रसार करने में सफल होगे। ट्रेविलियन एक उदाहरण देते हुए कहता है कि एक ‘युवा हिन्दू’ जिसने उदार अंग्रेजी शिक्षा पाई थी, अपने परिवार के दबाव में काली मंदिर गया, मैडम काली के सामने अपनी टोपी उतारी, थोड़ा झुका और बोला: ‘‘आशा है महोदया सही सलामत है।’
चार्ल्स एडवर्ड ट्रेविलियन अपनी बात स्पष्ट करते हुए आगे कहता है कि शिक्षा प्रणाली अवरोध हटा सकती है लेकिन मिशनरियों को आगे बढ़कर हिन्दू दुर्ग पर कब्जा कर लेना चाहिए। भारत को धर्मातरित लोगों की संख्या से नही मापा जाना चाहिए बल्कि इस बात को समझना चाहिए कि भारत की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी हमारी संस्कृति को आत्मसात कर रही है। मैकाले की जीत के साथ अपसंस्कृति की विजय हुई है हमारे ही लोग अपने प्रचीन मूल्यों, परम्पराओं को ध्वस्त करने में लगे हुए है। आज देश दो भागों में बंटता जा रहा है एक वो है जिनके आर्दश पश्चिमी नायक है दूसरी तरफ वह है जो आज भी वैदिक भारत, उपनिशदों के दर्शन, और अपने प्रचीन ग्रथों से प्ररेणा पाते है।
एक सोची समझी साजिश के तहत राष्ट्रीय मूल्यों की वकालत करने वालों को साम्प्रदायिक और सर्कीण मानसिकता का घोषित किया जा रहा है। जबकि कई देश अपनी संस्कृति को बचाने के लिए कठोर कदम उठा रहे है इसी वर्ष रुस के बेल्गोराद राज्य के प्रशासन ने ‘वेलेंटाइन डे’ मानने पर रोक लगा दी है। रुसी संवाद समिति के हवाले से रुस सरकार ने कहा है कि इस तरह के त्योहारों से युवाओं में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को प्रोत्साहन नही मिलता इसलिए सरकार ने इस पर रोक लगाने का निर्णय लिया है। पश्चिमी सभ्यता को अपनाने की होड़ में हमारे कथित अधुनिकतावादियों का सारा जोर इस बात पर लग रहा है कि भले ही हमारे अपने राष्ट्र नायक ‘संत कबीर, तुलसी, गुरुनानक, बुद्व, मीरा, विवेकानंद आदि विस्मृत हो जाए संत वेलेंटइन लोगों के दिमाग में रहने चाहिए, इन्हें कौन रोक सकता है? इसका अंदाजा आज आप भारतीय मीडिया के प्रचार-प्रसार के तरीके को देखकर खुद लगा सकते है। हमें इस बात का संतोष होना चाहिए कि आज भी देश का एक बड़ा वर्ग राष्ट्रीय मूल्यों को बनाये रखने के प्रति प्रतिबद्व है। राष्ट्रीय मूल्यों की रक्षा हर हाल में की जानी चाहिए और इसकी रक्षा हिंसक तरीकों से नही की जा सकती। पश्चिमी सभ्यता का मुकबला करने के लिए हमें मैकले से बड़ी लकीर खीचनी होगी।
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