डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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सूचना का अधिकार कानून के तहत उपलब्ध व्यवस्था के अनुसार केन्द्रीय मामलों में केन्द्रीय सूचना आयोग और प्रादेशिक मामलों में राज्य सूचना आयोग को सूचना अधिकार कानून की रक्षा और क्रियान्वयन की सर्वोच्च जिम्मेदारी दी गयी है। कुछेक मामलों को छोड़कर एक आम नागरिक सूचना आयोगों के निर्णय को मानने को बाध्य होता है। जिन लोगों के मामलों में सूचना आयोग सही निर्णय नहीं करते हैं, उनमें यदि व्यथित व्यक्ति के पास पर्याप्त आर्थिक संसाधन होते हैं, तो ही उनकी ओर से मामले हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जा पाते हैं। ऐसे में यदि सूचना आयोग स्वयं ही स्पष्ट कानूनी व्यवस्था का सरेआम मजाक उड़ाने लगें तो फिर आरटीआई की कौन रक्षा करेगा?
अत्यन्त दु:खद विषय है कि पिछले दिनों राजस्थान राज्य सूचना आयोग ने एक मामले की अपील के निपटारे में ऐसा ही निर्णय सुनाया है! जिसे जानकर किसी भी आरटीआई कार्यकर्ता को गहरा आधात पहुँचेगा!
भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के सक्रिय पदाधिकारी तथा अधिवक्ता मनीराम शर्मा ने 23 जुलाई 2010 को राजस्थान के भ्रष्टाचार अन्वेषण ब्यूरो (एसीबी) से कुछ सूचनाएँ प्राप्त करने के लिये सूचना-अधिकार कानून के तहत विधिवत आवेदन किया। लेकिन एसीबी द्वारा निर्धारित एक माह की अवधि में चाही गयी सूचना उपलब्ध नहीं करवाई गयी। केवल इतना ही नहीं, बल्कि निर्धारित 1 माह की अवधि गुजर जाने के बाद सूचना अधिकार कानून के प्रावधानों के तहत सूचनाएँ उपलब्ध करवाने के लिये राज्य सरकार द्वारा निर्धारित दो रुपये प्रतिपेज की दर के बजाय तीन रुपये प्रतिपेज की दर से शुल्क का भुगतान करने का हेतु आवेदक मनीराम शर्मा को पत्र लिखा गया। ऊपर से यह और कि विधि-विरुध्द और मनमाने तरीके से तीन रुपये प्रतिपेज की दर से राशि भुगतान करवाने हेतु एसीबी की ओर से 23 सितम्बर, 2010 को लिखा गया पत्र बारह दिन बाद 05 अक्टूबर, 2010 को श्री शर्मा के नाम से डाक द्वारा प्रेषित किया गया। इस पर श्री शर्मा ने प्रथम अपील की, जिसमें भी विधि सम्मत निर्णय नहीं दिए जाने से क्षुब्ध होकर अन्तत: राजस्थान राज्य सूचना आयोग के समक्ष द्वितीय अपील प्रस्तुत की गयी।
द्वितीय अपील की सुनवाई के दौरान यह तथ्य दस्तावेजों से पूरी तरह से प्रमाणित हो जाने के बाद भी कि निर्धारित एक माह की अवधि में श्री शर्मा द्वारा चाही गयी सूचना उसे प्रदान नहीं की गयी और एसीबी द्वारा सूचना प्रदान करने के लिये राज्य सरकार द्वारा निर्धारित शुल्क से डेढ गुनी दर से सूचना का शुल्क मांगा गया। इसके उपरान्त भी राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त टी श्रीनिवासन, ने आश्चर्यजनक रूप से इन सभी तथ्यों की अनदेखी करते हुए अपने आदेश दिनांक 06.01.12 द्वारा व्यथित पक्षकार मनीराम शर्मा की अपील को निरस्त कर दिया है। इस पर श्री शर्मा का कहना है कि मुख्य सूचना आयुक्त श्री श्रीनिवासन ने भ्रष्टाचार अन्वेषण ब्यूरो द्वारा विधिरुद्ध तरीके से मांगे गए अनुचित डेढ गुने शुल्क 3 रुपये प्रतिपेज को सही ठहराते हुए अपने निर्णय में निर्लज्जतापूर्वक यह भी लिखा है कि एसीबी ने अपना दायित्व बखूबी निभाया है।
श्री मनीराम शर्मा ने इस मामले में जहॉं एक ओर मुख्य सूचना आयुक्त के समक्ष रिव्यू पिटीशन दायर करके राज्य सूचना आयोग को अपनी गलती को ठीक करने का अवसर प्रदान किया है, वहीं दूसरी ओर राज्य के राज्यपाल के नाम पत्र लिखकर आग्रह किया है कि मुख्य सूचना आयुक्त श्री श्रीनिवासन ने इस प्रकार का विधि-विरुद्ध निर्णय करके अपनी नियुक्ति के समय ली गयी शपथ को ही भंग करके न केवल राज्य की जनता के साथ धोखा किया है, बल्कि अपनी नियुक्ति की सारभूत शर्त को भंग कर नियुक्ति अनुबंध का एकपक्षीय खंडन भी कर दिया है।
भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के सक्रिय पदाधिकारी श्री शर्मा ने राज्यपाल को आगे लिखा है कि यहॉं यह निवेदन करना भी प्रासंगिक होगा कि श्री श्रीनिवासन, विपक्षी अर्थात् एसीबी के प्रभाव में आकर कार्य करते हैं और पत्रावली पर एसीबी के विरुद्ध उपलब्ध कोई भी सामग्री उन्हें दिखाई ही नहीं देती है और वे निष्पक्षता खो चुके हैं। इस प्रकार श्री शर्मा के अनुसार एक अयोग्य व्यक्ति को मुख्य सूचना आयुक्त जैसे प्रतिष्ठित पद पर नियुक्त करने में, राज्यपाल के गरिमामयी कार्यालय से पात्र व्यक्ति को पहचानने में, गंभीर भूल हुई है।
श्री शर्मा ने अपने पत्र में लिखा है कि चूँकि श्री श्रीनिवासन अपने सेवा अनुबंध का स्वयं एकपक्षीय खंडन कर चुके हैं। अतएव यदि उनके शपथ पत्र का कोई महत्व हो तो उन्हें पद से हटाने में कोई कानूनी कठिनाई नहीं है। ठीक इसके विपरीत यदि शपथ-पत्र का कोई महत्त्व नहीं हो तो इस शपथ को लिए जाने अथवा शपथ ग्रहण समारोहों में जनता का समय व धन बर्बाद करने से परहेज किया जाना चाहिए। पत्र के अन्त में श्री शर्मा ने राज्यपाल को लिखा है कि जनहित को सर्वोपरि समझते हुए इस भूल को सुधारने हेतु आवश्यक कार्यवाही में शीघ्रता करें।
यहॉं यह तथ्य विशेष रूप से नोट करने योग्य है कि न्यायपालिका, पुलिस, भ्रष्टाचार अन्वेषण ब्यूरो, विभागीय सतर्कता विंग, आदि के मामलों में अधिकतर यह देखा गया है की केन्द्रीय सूचना आयोग और राज्यों के सूचना आयोग सूचना अधिकार कानून को लागू करने के बजे भयभीत और सहमे हुए नजर आते हैं। जिसे आरटीआई कानून और लोकतन्त्र की रक्षा के लिये अशुभ संकेत ही माना जाना चाहिये।
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