5 हजार 250 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ सकता है
भोपाल। जीत की हैट्रिक बनाने के लिए भाजपा मुख्यमंत्री चौहान की छवि को लेकर मैदान में उतरने जा रही है। किंतु गेमन इंडिया लिमिटेड कंपनी मुंबई को राजधानी भोपाल के बीचोबीच आवंटित 15 एकड़ सरकारी जमीन चौहान के लिए गले की हड्डी बन सकती है। आरोप है कि जमीन का यह आवंटन एक ऐसा महाघोटाला है जिसमें राज्य के कई मंत्रियों और आला अधिकारियों ने चुपचाप और बड़ी चालाकी से एक नहीं दर्जनों नियम तोड़े और कई सौ करोड़ रुपये की इस अमानत को कौडिय़ों के भाव बेच दिया। किंतु इसी कड़ी में अब जो नए दस्तावेज आए हैं उनमें मुख्यमंत्री कार्यालय की भूमिका साफ दिखाई दे रही है। बहरहाल इस मामले की एक याचिका हाई कोर्ट में लंबित है। लिहाजा चौहान की उम्मीद और नाउम्मीदी का फैसला अब न्यायालय की चौखट पर ही तय होने वाला है।
यह मामला 2005 में राज्य की भाजपा सरकार की उस पुनर्घनत्वीकरण रिडेंसीफिकेशन नाम की योजना से जुड़ा है जिसका मकसद भोपाल के मुख्य बाजार इलाके दक्षिण टीटी नगर की सरकारी कॉलोनी तोड़कर इसे नए सिरे से बसाना था। इसी के चलते सरकार ने पहले तो यहां के सरकारी मकानों और एक स्कूल को तोड़कर जमीन को खाली कराया। फिर 17 अप्रैल 2008 को यह बेशकीमती जमीन गेमन कंपनी को 337 करोड़ रुपये में बेच दी। मगर इस पूरे सौदे में जिस तरीके से कंपनी के पक्ष में नीलामी करने औने-पौने दाम पर कंपनी को जमीन बेचने लीज रेंट माफ करने फ्रीहोल्ड जमीन का मालिकाना हक देने और उसे वापस लेने के अलावा कंपनी को विशेष रियायत देने जैसी कई अनियमितताएं सामने आईं उससे सरकार की नीयत पर ही सवाल खड़े हो गए। राज्य सरकार की इन्हीं अनियमितताओं को लेकर एडवोकेट देवेंद्र प्रकाश मिश्रा ने हाई कोर्ट में जनहित याचिका लगाई है। मिश्र के मुताबिक इस योजना की आड़ में राज्य सरकार के नुमाइंदों ने मामला कुछ ऐसा जमाया कि हजारों करोड़ रुपये का लाभ कंपनी के पाले में जाए और उससे होने वाला घाटा शासन की झोली में। इस सौदे में कंपनी के लिए जो लीज रेंट माफ किया गया है उससे उसे तकरीबन 5 हजार 276 करोड़ रुपये का लाभ होगा। याचिका में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके काबीना मंत्रियों बाबूलाल गौर जयंत मलैया और राजेंद्र शुक्ल आदि पर आरोप है कि उन्होंने निजी कंपनी को उपकृत करने के लिए अधिकारियों पर दबाव बनाया और सारे नियमों को ताक पर रखकर जमीन के एक बड़े घोटाले को अंजाम दिया।
पुनर्घनत्वीकरण की एक ऐसी ही योजना के तहत ग्वालियर, थाटीपुर में भी काम किया जाना था। किंतु ग्वालियर में छह साल बीत जाने के बाद भी जहां यह प्रक्रिया शुरू नहीं की गई वहीं भोपाल में सरकार ने गेमन की तमाम अड़चनों को महज 24 घंटे में दूर कर दिया।17 अप्रैल 2008 का दिन राज्य के लिए मिसाल है जब 337 करोड़ रुपये की यह प्रक्रिया मुंबई, कंपनी कार्यालय से भोपाल, कई सरकारी विभाग तक बेरोकटोक अपने मुकाम पर पहुंच गई और इसी दिन गेमन ने दीपमाला इन्फ्रास्ट्रक्चर को योजना की सहायक कंपनी बनाते हुए सरकार के साथ एक त्रिपक्षीय समझौता किया और योजना का सारा काम दीपमाला कंपनी को सौंप दिया। कागजात में दीपमाला कंपनी द्वारा सीधे मुख्यमंत्री को लिखे गए पत्र और उसके बाद कंपनी के पक्ष में आधिकारिक तौर पर अधीनस्थ विभागों को जारी किए गए निर्देश बताते हैं कि मुख्यमंत्री कार्यालय ने दीपमाला कंपनी को किस हद तक तरजीह दी है। इस कड़ी में 27 अप्रैल 2008 का वह पत्र भी है जिसमें दीपमाला कंपनी के प्रबंधकों की मुख्यमंत्री से हुई पुरानी मुलाकात का हवाला देते हुए उनसे यह अपेक्षा की गई है कि वे हस्तक्षेप करके इस काम के लिए आधिकारिक अनुमतियां दिलवाएं इसी पत्र में आधिकारिक तौर पर एक टीप लिखी गई है जिसमें ठीक एक दिन बाद यानी 29 अप्रैल 2008 को मुख्यमंत्री की बैठक की सूचना देते हुए अधीनस्थ विभागों के आला अधिकारियों को हाजिर रहने का आदेश दिया गया है और इस तारीख से एक महीने के भीतर दीपमाला कंपनी को कई आवश्यक अनुमतियां मिल जाती हैं।
यह मामला 2005 में राज्य की भाजपा सरकार की उस पुनर्घनत्वीकरण रिडेंसीफिकेशन नाम की योजना से जुड़ा है जिसका मकसद भोपाल के मुख्य बाजार इलाके दक्षिण टीटी नगर की सरकारी कॉलोनी तोड़कर इसे नए सिरे से बसाना था। इसी के चलते सरकार ने पहले तो यहां के सरकारी मकानों और एक स्कूल को तोड़कर जमीन को खाली कराया। फिर 17 अप्रैल 2008 को यह बेशकीमती जमीन गेमन कंपनी को 337 करोड़ रुपये में बेच दी। मगर इस पूरे सौदे में जिस तरीके से कंपनी के पक्ष में नीलामी करने औने-पौने दाम पर कंपनी को जमीन बेचने लीज रेंट माफ करने फ्रीहोल्ड जमीन का मालिकाना हक देने और उसे वापस लेने के अलावा कंपनी को विशेष रियायत देने जैसी कई अनियमितताएं सामने आईं उससे सरकार की नीयत पर ही सवाल खड़े हो गए। राज्य सरकार की इन्हीं अनियमितताओं को लेकर एडवोकेट देवेंद्र प्रकाश मिश्रा ने हाई कोर्ट में जनहित याचिका लगाई है। मिश्र के मुताबिक इस योजना की आड़ में राज्य सरकार के नुमाइंदों ने मामला कुछ ऐसा जमाया कि हजारों करोड़ रुपये का लाभ कंपनी के पाले में जाए और उससे होने वाला घाटा शासन की झोली में। इस सौदे में कंपनी के लिए जो लीज रेंट माफ किया गया है उससे उसे तकरीबन 5 हजार 276 करोड़ रुपये का लाभ होगा। याचिका में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके काबीना मंत्रियों बाबूलाल गौर जयंत मलैया और राजेंद्र शुक्ल आदि पर आरोप है कि उन्होंने निजी कंपनी को उपकृत करने के लिए अधिकारियों पर दबाव बनाया और सारे नियमों को ताक पर रखकर जमीन के एक बड़े घोटाले को अंजाम दिया।
पुनर्घनत्वीकरण की एक ऐसी ही योजना के तहत ग्वालियर, थाटीपुर में भी काम किया जाना था। किंतु ग्वालियर में छह साल बीत जाने के बाद भी जहां यह प्रक्रिया शुरू नहीं की गई वहीं भोपाल में सरकार ने गेमन की तमाम अड़चनों को महज 24 घंटे में दूर कर दिया।17 अप्रैल 2008 का दिन राज्य के लिए मिसाल है जब 337 करोड़ रुपये की यह प्रक्रिया मुंबई, कंपनी कार्यालय से भोपाल, कई सरकारी विभाग तक बेरोकटोक अपने मुकाम पर पहुंच गई और इसी दिन गेमन ने दीपमाला इन्फ्रास्ट्रक्चर को योजना की सहायक कंपनी बनाते हुए सरकार के साथ एक त्रिपक्षीय समझौता किया और योजना का सारा काम दीपमाला कंपनी को सौंप दिया। कागजात में दीपमाला कंपनी द्वारा सीधे मुख्यमंत्री को लिखे गए पत्र और उसके बाद कंपनी के पक्ष में आधिकारिक तौर पर अधीनस्थ विभागों को जारी किए गए निर्देश बताते हैं कि मुख्यमंत्री कार्यालय ने दीपमाला कंपनी को किस हद तक तरजीह दी है। इस कड़ी में 27 अप्रैल 2008 का वह पत्र भी है जिसमें दीपमाला कंपनी के प्रबंधकों की मुख्यमंत्री से हुई पुरानी मुलाकात का हवाला देते हुए उनसे यह अपेक्षा की गई है कि वे हस्तक्षेप करके इस काम के लिए आधिकारिक अनुमतियां दिलवाएं इसी पत्र में आधिकारिक तौर पर एक टीप लिखी गई है जिसमें ठीक एक दिन बाद यानी 29 अप्रैल 2008 को मुख्यमंत्री की बैठक की सूचना देते हुए अधीनस्थ विभागों के आला अधिकारियों को हाजिर रहने का आदेश दिया गया है और इस तारीख से एक महीने के भीतर दीपमाला कंपनी को कई आवश्यक अनुमतियां मिल जाती हैं।
वहीं 27 सितंबर 2008 की नोटशीट मुख्यमंत्री कार्यालय की कार्यशैली पर ही प्रश्नचिह्न लगा देती है। इस योजना की नोडल एजेंसी आवास एवं पर्यावरण विभाग को जारी इस नोटशीट पर लिखा है नोटशीट की प्रतिलिपि करा लें और प्रकरणों में लगा लें पुन: कोई कार्रवाई आवश्यक हो तो की जाए जानकारों की राय में यह एक ऐसी नोटशीट है जो जरूरत पडऩे पर कहीं भी उपयोग में लाई जा सकती है जांच का विषय यह है कि यह नोटशीट अब तक किन-किन प्रकरणों में लगाई जा चुकी है। इसी की अगली कड़ी में इस योजना की पर्यवेक्षक एजेंसी मप्र हाउसिंग बोर्ड द्वारा 2 फरवरी 2009 को जारी की गई एक नोटशीट है जिसमें उसने मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा भेजी गई सौ दिन की कार्य योजना और इस संबंध में बताए गए दिशा निर्देशों का जिक्र किया है। हम साथ ही यह भी बताते चलें कि इस मामले में मुख्यमंत्री की दिलचस्पी केवल पत्रों तक सीमित नहीं रही बल्कि उन्होंने कई बार आधिकारिक और अनाधिकारिक तौर पर निर्माण स्थल का निरीक्षण करके यह जताने की कोशिश भी की है कि योजना सरकारी है।
कहा जा रहा है कि कंपनी को लाभ पहुंचाने की भूमिका काफी पहले बना ली गई थी। इसके लिए सरकार ने शहरी इलाके को बेहतर ढंग से बसाने के लिए 2003 में बनाई गई गाइडलाइन को जिस तरह से बदला है उससे सरकार को 5 हजार 250 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ सकता है। पुरानी गाइडलाइन में साफ लिखा था कि जब तक कंपनी निर्माण पूरा नहीं करती तब तक उससे हर साल लीज रेंट लिया जाएगा मगर 2005 की गाइडलाइन में कंपनी की पक्ष में लीज रेंट माफ कर दिया गया भारतीय स्टांप की धारा 33 के मुताबिक हर लीज डील में व्यावसायिक उपयोग पर साढ़े सात प्रतिशत और आवासीय उपयोग पर पांच प्रतिशत सालाना लीज रेंट लिया जाना चाहिए याचिकाकर्ता के मुताबिक इस योजना में कंपनी को यह जमीन तीस साल के लिए लीज पर दी गई है और उसकी प्रीमियम राशि 335 करोड़ रुपये है, इस हिसाब से राज्य को कंपनी से हर साल 25.12 करोड़ रुपये मिलते।
यानी तीस साल में जनता के खजाने में 753 करोड़ रुपये आते मगर योजना में लीज रेंट नहीं रखने से यह पैसा कंपनी के खाते में जाएगा वहीं राजस्व के ही नियमों के मुताबिक तीस साल बाद जब लीज का नवीनीकरण किया जाता तो लीज रेंट छह गुना बढ़ जाता और अगले तीस साल तक राज्य को सालाना 150 करोड़ रुपये मिलते मगर इस पूरी योजना के लिए किए गए अनुबंध में नवीनीकरण करने के बाद भी लीज रेंट शून्य ही रखा गया लिहाजा यहां भी जनता के खजाने को 4 हजार 522 करोड़ रुपये का चूना लगेगा दूसरी तरफ पुरानी गाइडलाइन में तोड़े जाने वाले मकानों को उसी स्थान पर बनाने की बात भी थी, मगर नई गाइडलाइन में पर्यावरण और यातायात के नजरिये से उक्त मकानों को यहां बनाना अनुचित बताया गया। सवाल है कि यदि रहवास के लिए यह स्थान अनुचित है तो दीपमाला कंपनी को रहवासी परिसर बनाने की मंजूरी क्यों दी गई है।
नीलामी के दौरान सरकार द्वारा पारदर्शिता न बरतते हुए जिस तरह से गेमन की तरफदारी की गई उसके चलते नीलामी की प्रक्रिया भी विवादों के घेरे में है। मई 2007 में जब नीलामी का विज्ञापन प्रकाशित किया गया तब 28 कंपनियों ने आवेदन दिए सरकार ने 17 कंपनियों को इस योजना के योग्य मानते हुए उनसे जमीन की प्रस्तावित कीमत मांगी सरकार का दावा है कि 17 कंपनियों में से केवल गेमन ने ही अंतिम तारीख यानी 30 नवंबर 2007 तक 337 करोड़ रुपये की प्रस्तावित कीमत भेजी थी जबकि याचिकाकर्ता का दावा है कि उनके पास रिलायंस इनर्जी प्राइवेट लिमिटेड द्वारा 23 नवंबर 2007 को शासन को लिखा वह पत्र है जिसमें रिलायंस ने अंतिम तारीख बढ़ाने की मांग की थी मगर सरकार ने इसमें कोई रुचि न लेते हुए गेमन के साथ करार किया नई गाइडलाइन में यह साफ लिखा है कि अच्छी बोली की संभावना होने पर नीलामी दोबारा की जा सकती है सवाल है कि सरकार ने गेमन के साथ करार करने में इतनी हड़बड़ी क्यों की विशेषज्ञों का मानना है कि नीलामी में गेमन के ब्रांड की बड़ी भूमिका थी किंतु गेमन को आगे करके बाद में जिस दीपमाला कंपनी को सारा काम सौंप दिया गया वह इस योजना के योग्य नहीं है रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी, मुंबई के मुताबिक इस योजना में दीपमाला की खुद की पूंजी सिर्फ एक लाख रुपये है।
नीलामी के दौरान सरकार द्वारा पारदर्शिता न बरतते हुए जिस तरह से गेमन की तरफदारी की गई उसके चलते नीलामी की प्रक्रिया भी विवादों के घेरे में है। मई 2007 में जब नीलामी का विज्ञापन प्रकाशित किया गया तब 28 कंपनियों ने आवेदन दिए गेमन को सस्ते में जमीन देने का मामला भी सरकार के लिए बड़ी मुसीबत बन सकता है ऐसा इसलिए भी कि उसने यह जमीन उसकी वास्तविक कीमत से काफी कम में बेची दरअसल जब एक आम आदमी लीज डीड रजिस्ट्रेशन में देरी करता है तो उस पर तत्काल अधिभार लगा दिया जाता है मगर दीपमाला कंपनी ने 22 सिंतबर 2011 यानी जमीन का सौदा होने के तीन साल बाद लीज डीड की इस समय तक कलेक्टर की गाइडलाइन के मुताबिक जमीन 747 करोड़ रुपये की हो चुकी थी मगर कंपनी ने 335 करोड़ रुपये ही जमा किए इस पर भी उसने 335 करोड़ रुपये तीन साल और तीन किश्तों में चुकाए।
इसके लिए सरकार ने उससे न अतिरिक्त ब्याज की मांग की और न ही कंपनी ने यह ब्याज दिया वहीं इस पूरे प्रकरण का दिलचस्प पहलू यह है कि इन विवादों के बावजूद सरकार द्वारा दीपमाला कंपनी पर की जा रही मेहरबानियों का सिलसिला है कि थमने का नाम नहीं लेता इसी कड़ी में कंपनी ने नगर निगम को नर्मदा उपकर, पेयजल टैक्स के रूप में 3.41 करोड़ रुपये की जगह 1.41 करोड़ रुपये जमा किए।
इस संबंध में तत्कालीन नगर निगम आयुक्त रजनीश श्रीवास्तव ने 13 दिसंबर को जब इस कंपनी को नोटिस थमाते हुए बकाया रकम जमा करने को कहा तो मामला तूल पकड़ गया। हालांकि बाद में दीपमाला कंपनी ने नर्मदा उपकर जमा किया लेकिन इसी के साथ श्रीवास्तव को उनके पद से हटा दिया गया। ऐसा ही एक और वाकया है जिसमें सरकार ने कंपनी के साथ मिलकर यहां के सैकड़ों पेड़ों को उखाड़कर कहीं दूसरी जगह स्थापित करने की अनोखी योजना बनाई थीण् किंतु उनकी यह अनूठी और विचित्र योजना परवान नहीं चढ़ सकी और सारे पेड़ों को रातोंरात काट दिया गया। (बिच्छू रोजाना)
कहा जा रहा है कि कंपनी को लाभ पहुंचाने की भूमिका काफी पहले बना ली गई थी। इसके लिए सरकार ने शहरी इलाके को बेहतर ढंग से बसाने के लिए 2003 में बनाई गई गाइडलाइन को जिस तरह से बदला है उससे सरकार को 5 हजार 250 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ सकता है। पुरानी गाइडलाइन में साफ लिखा था कि जब तक कंपनी निर्माण पूरा नहीं करती तब तक उससे हर साल लीज रेंट लिया जाएगा मगर 2005 की गाइडलाइन में कंपनी की पक्ष में लीज रेंट माफ कर दिया गया भारतीय स्टांप की धारा 33 के मुताबिक हर लीज डील में व्यावसायिक उपयोग पर साढ़े सात प्रतिशत और आवासीय उपयोग पर पांच प्रतिशत सालाना लीज रेंट लिया जाना चाहिए याचिकाकर्ता के मुताबिक इस योजना में कंपनी को यह जमीन तीस साल के लिए लीज पर दी गई है और उसकी प्रीमियम राशि 335 करोड़ रुपये है, इस हिसाब से राज्य को कंपनी से हर साल 25.12 करोड़ रुपये मिलते।
यानी तीस साल में जनता के खजाने में 753 करोड़ रुपये आते मगर योजना में लीज रेंट नहीं रखने से यह पैसा कंपनी के खाते में जाएगा वहीं राजस्व के ही नियमों के मुताबिक तीस साल बाद जब लीज का नवीनीकरण किया जाता तो लीज रेंट छह गुना बढ़ जाता और अगले तीस साल तक राज्य को सालाना 150 करोड़ रुपये मिलते मगर इस पूरी योजना के लिए किए गए अनुबंध में नवीनीकरण करने के बाद भी लीज रेंट शून्य ही रखा गया लिहाजा यहां भी जनता के खजाने को 4 हजार 522 करोड़ रुपये का चूना लगेगा दूसरी तरफ पुरानी गाइडलाइन में तोड़े जाने वाले मकानों को उसी स्थान पर बनाने की बात भी थी, मगर नई गाइडलाइन में पर्यावरण और यातायात के नजरिये से उक्त मकानों को यहां बनाना अनुचित बताया गया। सवाल है कि यदि रहवास के लिए यह स्थान अनुचित है तो दीपमाला कंपनी को रहवासी परिसर बनाने की मंजूरी क्यों दी गई है।
नीलामी के दौरान सरकार द्वारा पारदर्शिता न बरतते हुए जिस तरह से गेमन की तरफदारी की गई उसके चलते नीलामी की प्रक्रिया भी विवादों के घेरे में है। मई 2007 में जब नीलामी का विज्ञापन प्रकाशित किया गया तब 28 कंपनियों ने आवेदन दिए सरकार ने 17 कंपनियों को इस योजना के योग्य मानते हुए उनसे जमीन की प्रस्तावित कीमत मांगी सरकार का दावा है कि 17 कंपनियों में से केवल गेमन ने ही अंतिम तारीख यानी 30 नवंबर 2007 तक 337 करोड़ रुपये की प्रस्तावित कीमत भेजी थी जबकि याचिकाकर्ता का दावा है कि उनके पास रिलायंस इनर्जी प्राइवेट लिमिटेड द्वारा 23 नवंबर 2007 को शासन को लिखा वह पत्र है जिसमें रिलायंस ने अंतिम तारीख बढ़ाने की मांग की थी मगर सरकार ने इसमें कोई रुचि न लेते हुए गेमन के साथ करार किया नई गाइडलाइन में यह साफ लिखा है कि अच्छी बोली की संभावना होने पर नीलामी दोबारा की जा सकती है सवाल है कि सरकार ने गेमन के साथ करार करने में इतनी हड़बड़ी क्यों की विशेषज्ञों का मानना है कि नीलामी में गेमन के ब्रांड की बड़ी भूमिका थी किंतु गेमन को आगे करके बाद में जिस दीपमाला कंपनी को सारा काम सौंप दिया गया वह इस योजना के योग्य नहीं है रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी, मुंबई के मुताबिक इस योजना में दीपमाला की खुद की पूंजी सिर्फ एक लाख रुपये है।
नीलामी के दौरान सरकार द्वारा पारदर्शिता न बरतते हुए जिस तरह से गेमन की तरफदारी की गई उसके चलते नीलामी की प्रक्रिया भी विवादों के घेरे में है। मई 2007 में जब नीलामी का विज्ञापन प्रकाशित किया गया तब 28 कंपनियों ने आवेदन दिए गेमन को सस्ते में जमीन देने का मामला भी सरकार के लिए बड़ी मुसीबत बन सकता है ऐसा इसलिए भी कि उसने यह जमीन उसकी वास्तविक कीमत से काफी कम में बेची दरअसल जब एक आम आदमी लीज डीड रजिस्ट्रेशन में देरी करता है तो उस पर तत्काल अधिभार लगा दिया जाता है मगर दीपमाला कंपनी ने 22 सिंतबर 2011 यानी जमीन का सौदा होने के तीन साल बाद लीज डीड की इस समय तक कलेक्टर की गाइडलाइन के मुताबिक जमीन 747 करोड़ रुपये की हो चुकी थी मगर कंपनी ने 335 करोड़ रुपये ही जमा किए इस पर भी उसने 335 करोड़ रुपये तीन साल और तीन किश्तों में चुकाए।
इसके लिए सरकार ने उससे न अतिरिक्त ब्याज की मांग की और न ही कंपनी ने यह ब्याज दिया वहीं इस पूरे प्रकरण का दिलचस्प पहलू यह है कि इन विवादों के बावजूद सरकार द्वारा दीपमाला कंपनी पर की जा रही मेहरबानियों का सिलसिला है कि थमने का नाम नहीं लेता इसी कड़ी में कंपनी ने नगर निगम को नर्मदा उपकर, पेयजल टैक्स के रूप में 3.41 करोड़ रुपये की जगह 1.41 करोड़ रुपये जमा किए।
इस संबंध में तत्कालीन नगर निगम आयुक्त रजनीश श्रीवास्तव ने 13 दिसंबर को जब इस कंपनी को नोटिस थमाते हुए बकाया रकम जमा करने को कहा तो मामला तूल पकड़ गया। हालांकि बाद में दीपमाला कंपनी ने नर्मदा उपकर जमा किया लेकिन इसी के साथ श्रीवास्तव को उनके पद से हटा दिया गया। ऐसा ही एक और वाकया है जिसमें सरकार ने कंपनी के साथ मिलकर यहां के सैकड़ों पेड़ों को उखाड़कर कहीं दूसरी जगह स्थापित करने की अनोखी योजना बनाई थीण् किंतु उनकी यह अनूठी और विचित्र योजना परवान नहीं चढ़ सकी और सारे पेड़ों को रातोंरात काट दिया गया। (बिच्छू रोजाना)
No comments:
Post a Comment