एक साधारण व्यक्ति की मौत की कीमत मात्र बावन हजार रुपये है, जबकि ब्रिटिश एयरवेज में यात्रा करने में सक्षम व्यक्ति का थैला गुम हो जाने के कारण थैला धारक हो हुई परेशानी की कीमत एक लाख रुपये। विलम्ब से खाना परोसने और तीन घण्टे विलम्ब से गन्तव्य पर पहुँचने की कीमत 70 हजार रुपये। इससे ये बात स्वत: ही प्रमाणित होती है कि उपभोक्ता अदालतें, उपभोक्ता कानून के अनुसार नहीं, बल्कि उपभोक्ता अदालत के समक्ष न्याय प्राप्ति हेतु उपस्थित होने वाले पीड़ित व्यक्ति की हैसियत देखकर फैसला सुनाती हैं।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
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उपभोक्ता अदालतों के फैसलों पर यदि गौर करें तो पायेंगे कि समाज के विभेदकारी ढॉंचे की भॉंति उपभोक्ता अदालतों द्वारा भी न्याय करते समय खुलकर लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है। जिसके बारे में ऐसी कोई नियंत्रक कानूनी या संवैधानिक व्यवस्था नहीं है, जो निष्पक्षतापूर्वक स्वत: ही गौर करके या विभेदकारी निर्णयों का परीक्षण करके या शिकायत प्राप्त होने पर गलत या मनमाने निर्णय करने वाले न्यायाधीशों के खिलाफ दण्डात्मक एवं सुधारात्मक कार्यवाही कर सके।
पिछले दिनों दिल्ली की एक उपभोक्ता अदालत ने एक यात्री के सफर के दौरान सामान गुम हो जाने से ब्रिटिश एयरवेज को उसे एक लाख रुपया अदा करने का निर्देश दिया है। गुम होने वाला सामान भी मात्र एक थैला था, जिसमें कुछ जरूरी कागजात थे। जिसको उपभोक्ता अदालत ने इतनी गम्भीरता से लिया कि शिकायत कर्ता को एक लाख रुपये अदा करने का आदेश जारी कर दिया। जबकि इसके ठीक विपरीत भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा समय पर मुआवजा राशि अदा नहीं करने के कारण गुर्दा रोग पीड़ित पालिसी धारक की मृत्यु हो गयी। इस मामले में अररिया के जिला उपभोक्ता फोरम ने अपना फैसला सुनाते हुए मृतक की पत्नी को मात्र बावन हजार रुपया भुगतान करने का आदेश दिया है।
कुछ समय पूर्व एक निर्णय पढने को मिला जिसमें एक उच्च स्तरीय होटल में खाना परोसने में आधा घण्टा विलम्ब हो गया, जिसके कारण उपभोक्ता को जिस प्लेन से जाना था, वह उससे नहीं जा सका और उसे दूसरी प्लेन से जाना पड़ा जिसमें उसे कुछ अधिक राशि किराये के रूप में अदा करनी पड़ी और वह अपने गन्तव्य पर तीन घण्टे विलम्ब से पहुँच पाया। इस माललें उपभोक्ता अदालत ने उपभोक्ता को हुई परेशानी और विलम्ब के लिये होटल प्रबन्धन पर 70 हजार रुपये का हर्जाना लगाया और उपभोक्ता की ओर से प्लेन में भुगतान किया गया अतिरिक्त किराया अदा करने का आदेश भी दिया गया।
उपभोक्ता अदालतों के उपरोक्त फैसलों पर गौर करें तो हम पायेंगे कि पहले और तीसरे केस में उपभोक्ता की हैसियत इतनी है कि वह हवाई जहाज में यात्रा करने में सक्षम है, जबकि दूसरे मामले में उपभोक्ता की हालत ये है कि जीवन बीमा निगम की ओर से समय पर मुआवजा नहीं मिलने के कारण वह अपने उपचार के लिये अन्य वैकल्पिक साधनों से रुपयों की व्यवस्था नहीं कर सका और वह असमय मौत का शिकार हो गया।
ऐसे में एक साधारण व्यक्ति की मौत की कीमत मात्र बावन हजार रुपये है, जबकि ब्रिटिश एयरवेज में यात्रा करने में सक्षम व्यक्ति का थैला गुम हो जाने के कारण थैला धारक हो हुई परेशानी की कीमत एक लाख है। विलम्ब से खाना परोसने और तीन घण्टे विलम्ब से गन्तव्य पर पहुँचने की कीमत 70 हजार रुपये। इससे ये बात स्वत: ही प्रमाणित होती है कि उपभोक्ता अदालतें, उपभोक्ता कानून के अनुसार नहीं, बल्कि उपभोक्ता अदालत के समक्ष न्याय प्राप्ति हेतु उपस्थित होने वाले पीड़ित व्यक्ति की हैसियत देखकर फैसला सुनाती हैं।
ऐसे विभेदकारी निर्णयों से आम लोगों को निजात दिलाने के लिये हमारी लोकतांत्रिक सरकारें कुछ भी नहीं कर रही हैं। जनप्रतिनिधियों को जनता के साथ होने वाले इस भेदभाव की कोई परवाह नहीं है। यहॉं तक कि इस प्रकार के मनमाने निर्णयों के बारे में पूरा-पूरा कानूनी ज्ञान रखने वाले अधिवक्ताओं को भी अपने मुवक्किलों के साथ हो रहे इस प्रकार के खुले विभेदकारी अन्याय की कोई परवाह नहीं है।
उपभोक्ता अधिकारों के लिये सेवारत संगठनों की ओर से भी इस बारे में कोई आन्दोलन या इस प्रकार का कार्यक्रम नहीं चलाया जाता है, जिससे लोगों को अपने साथ होने वाले विभेद और उपभोक्ता अदालतों की मनमानी का ज्ञान हो सके और इससे बचने का कोई रास्ता मिल सके। ऐसे में संविधान के अनुच्छेद 14 में मूल अधिकार के रूप में इस बात का उल्लेख होना कि ‘‘कानून के समक्ष सभी को समान समझा जायेगा और सभी को कानून का समान संरक्षण प्राप्त होगा।’’ कोई मायने नहीं रखता।
Dr. Purushottam Meena 'Nirankush'.
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