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भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कडेय काटजू ने हाल ही में पत्रकारों के लिए न्यूनतम योग्यता का प्रावधान तय करने के लिए एक कमेटी गठित की है। काटजू कहते है कि पत्रकारों की योग्यता कम होने के कारण पत्रकारिता क्षेत्र में लगातार गिरावट आ रही है। खुद एक पत्रकार होने के कारण उनकी इस बात पर मैं भी सहमत हुँ। मैं तो यहां तक कहता हुँ कि पत्रकारिता अब सिर्फ कुछ लोगों के लिए सामाजिक मिशन हो सकती है। जबकि अधिकांश लोग इसे अधिकारियों के सामने झूठी रौब झाड़ने, भ्रष्टाचार को बढ़ावा और गलत विचारों को ज्यादा प्रकाशित करने मात्र रह गई है। लेकिन यह कहकर, लिखकर मैं अपने पेशे को गाली नहीं दे रहा है। बल्कि पेशे की परेशानियों को उजागर करना चाहता हूं।
काटजू कहते है कि एक पत्रकार की योग्यता वकीलों की भांति होनी चाहिए। तो काटजू जी से मैं कहना चाहुँगा कि यदि आप योग्यता तय ही करना चाहते हैं तो पहले एक पत्रकार का सही वेतन तो तय कर दो। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भूखों मरने को तैयार है। यह देखकर दु:ख होता है कि 8 से 10 साल पत्रकारिता में लगाने के बाद भी पत्रकार दस हजार रुपए प्रति माह का वेतन भी नहीं पाता। अंशकालीन संवाददाता के नाम पर पत्रकारिता में जितना शोषण होता है, उसे देखकर तो आंखों में आंसू आ जाते हैं। ग्लैमर भरी टीवी पत्रकारिता को देखकर माँ-बाप अपने बच्चे को पत्रकारिता में भेजने का निर्णय लेते हैं। पत्रकारिता संस्थान अपना संस्थान चलाने के लिए झूठ का सहारा लेते है, मोटी-मोटी रकम लेकर एक से दो वर्षीय कोर्स कराते हैं। लेकिन जब नौकरी का बात आती है तो कह देते हैं कि अभी तुझे पत्रकारिता सीखनी है, इसलिए छह महीने इंटर्नशिप करो यानि फ्री काम करो। इसके बाद आपके बारे में सोचा जाएगा। लेकिन छह माह सोचने के बाद भी वेतन दिया जाता है मात्र दो हजार रुपए। ये है पत्रकारिता करने वाले छात्रों का हाल।
दो-तीन वर्ष बाद जब उसका कैरियर खराब हो जाता है तो बेचारे इसी वेतन में अपना घर-पालने लगता है और कथित भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है, अन्य संसाधनों से आर्थिक संपन्न बनता है। ये वेदना सिर्फ मेरी नहीं, बल्कि पत्रकारिता में आने से डर रहे हजारों छात्रों की है। क्योंकि इतने वर्षों बाद भी इस पेशे में निश्चिता कहीं दिखाई नहीं देती। अखबार मालिक का मन हुआ तो वह एक झटके में अपना कारोबार बंद कर देता है। उसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि सैकड़ों पत्रकारों का परिवार रोड पर आ जाएगा। लेकिन आश्चर्य तब होता है जब शोषित पत्रकार अपनी बात भी अखबारों के माध्यम से कह नहीं सकता। न तो वह ट्रेड यूनियनों की भांति मालिक के खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंक सकता है और न ही अन्य साधनों का प्रयोग कर सकता है। एक अंशकालीन पत्रकार से लेकर संपादक स्तर का पत्रकार भी अपने भावों का प्रकट करने में स्वच्छंद नहीं है। पता नहीं कब अखबार मालिक उसे नौकरी छोड़ने पर मजबूर कर दे। ऐसा नजारा मेरे कुछ साल के पत्रकारिता जीवन में कई बार सामने आ चुका है। शोषित पत्रकारों की व्यथा सुनकर मेरा दिल दुखी है।
काटजू महोदय, योग्यता तय करना अच्छा है। लेकिन क्या आप पहले एक पत्रकार की जिंदगी चलाने वाले वेतन पर भी कुछ कह सकते है। क्योंकि उसका भी परिवार होता है, महोदय। लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी एक पत्रकार की जरूर है, लेकिन उस पत्रकारिता से उसे रोटी भी तो मिलनी चाहिए। एक पत्रकार बेहद संवेदनशील होता है, इसलिए भ्रष्टाचार उससे कोसों दूर रहता है। लेकिन भरपेट भोजन न मिलने की सूरत में एक जानवर भी अपने बच्चों को खा जाता है। तो उसका क्या कसूर। मेरी इन बातों से यदि कोई भी महानुभाव आहत होते है तो मैं क्षमा प्रार्थी हूं। लेकिन मेरा मानना है कि एक पत्रकार को भी यथार्थ में जीने का अधिकार है।
मुकेश कुमार
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