-आलोक सिंघई-
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लेखनी के जादूगर मुंशी प्रेमचंद के पात्र जुम्मन शेख और अलगू चौधरी के न्याय की कहानी किसने नहीं पढ़ी . कम से कम हिंदुस्तान के तो हर बच्चे के जेहन में ये कहानी आज भी वैसी ही ताजा है जैसी कभी उन्होंने बचपन में पढ़ी थी . मध्यप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने शासन व्यवस्था में वही पंचायती न्याय स्थापित करने की कोशिश की है . ये शायद देश का एसा पहला राज्य होगा जहां मुख्यमंत्री के कार्यकलापों का खुला पोस्टमार्टम चीरघर के बजाए बीच सड़क पर किया जाता है . कई बार तो उन आयोजनों में ही टिप्पणियां कर दी जाती हैं जहां मुख्यमंत्री स्वयं मौजूद होते हैं .
बडी़ मजेदार बात तो ये है कि यदि आलोचना सटीक होती है तो मुख्यमंत्री जी स्वयं आगे बढ़कर उसका स्वागत करते हैं . आवश्यक सुधार का आश्वासन देते हैं , पर यदि आरोप बढ़ा चढ़ाकर या कपोलकल्पित लगाया जाता है तो फिर आरोप लगाने वाले को खरा और सटीक जवाब भी तत्काल मिल जाता है जिसके बाद वह आंखें चुराकर खसक लेने में ही अपनी भलाई समझता है . इससे भी बढ़कर आगे की बात ये कि इस पूरे संवाद में कहीं कटुता नहीं पनपती और न ही स्वयं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और न ही उनके समर्थक कोई गांठ बांधते हैं . ये पंचायती राज शैली का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण माना जा सकता है . इसी शैली से शासन संचालित करते हुए मुख्यमंत्री जी ने अपने शासनकाल में कई पंचायतें बुलाईं. मुख्यमंत्री निवास पर महिलाओ, किसानों, आदिवासियों, वन कर्मियों, अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों, कोटवारों, लघु उद्यमियों, खिलाड़ियों, शिल्पियों, निःशक्त जनों, मछुआ, स्वसहायता समूहों, मंडी हम्माल-तुलावटियों, साईकिल रिक्शा- हाथठेला चलाने वालों की पंचायतें बुलाई गईं.इन सबके पीछे उद्देश्य ये था कि जिन कारोबारों से ज्यादा बड़ा वर्ग सीधे तौर पर जुड़ा है
उनकी समस्याओं पर चर्चा की जाए और समाधान के रास्ते तलाशे जाएं. हाल ही में जब जबलपुर के पत्रकारों ने अपने आयोजन को सफल बनाने के लिए जनता के सहयोग के बजाए बिल्डरों की मदद से सम्मान समारोह आयोजित किया तो मुख्यमंत्री महोदय ने उस आयोजन में पत्रकारों की पंचायत बुलाए जाने की घोषणा करके सबको चौंका दिया.पूरे देश में चौथे स्तंभ को जिस तरह से लाचारी की हालत में छोड़ दिया गया है उसे देखकर कोई भी व्यथित हो सकता है. जैसी मूर्खता पूर्ण चुनौतियों के बीच पत्रकारों को अब तक झोंका जाता रहा है उन्हें तो आजादी के बाद न जाने कितने पहले ही दूर कर दिया जाना था. आज भी देश की पत्रकारिता भ्रमों में जी रही है.संवाद का कोई सशक्त तंत्र पूरे देश में विकसित नहीं किया जा सका है. इन स्थितियों से निपटने की मांग बरसों से की जाती रही है लेकिन अब तक की सरकारों ने सूचना तंत्र को सुधारने की कोई पहल नहीं की.
ये स्वागत करने लायक बात है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की संवेदनशीलता ने इस स्थितियों को बदलने की इच्छा तो जताई. पूरे देश में पत्रकारों और पत्रकारिता की दुर्दशा पर भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्केण्डेय काटजू भी व्यथित हैं और वे कई मंचों से पत्रकारिता की स्थितियों पर तीखी टिप्पणियां भी कर चुके हैं. भारत गणराज्य के संविधान में भले ही कानून स्थापित करने का अधिकार संसद को दिया गया है पर उन कानूनों को बनाने के लिए मार्गदर्शन करने का अधिकार राज्यों को भी दिया गया है. इस लिहाज से राज्यों को देश की सर्वोच्च सत्ता माना जा सकता है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान संविधान के उसी महत्व को प्रतिपादित करने जा रहे हैं. एक शक्तिशाली राज्य यदि सामाजिक परिस्थितियों पर कोई कानून बनाता है या कोई व्यवस्था करता है तो वह उदाहरण पूरे देश में लागू किया जा सकता है. इसका असर पूरे देश पर पड़ना स्वाभाविक है.
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पत्रकारों की पंचायत बुलाने का आव्हान करके एक बहादुरी का फैसला लिया है. आम तौर पर शासक पत्रकारों के बीच में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करने की कोशिश ही नहीं करते हैं. उन्हें लगता है कि ये मेंढकों को तौलने जैसा कठिन काम है. जितने भी नपुंसक और भ्रषट राजनेता रहे हैं वे तो प्रेस के मुंहफट वर्ग को चंद चांदी के टुकड़े फेंककर अपनी जायदाद बनाना अधिक सहज और सरल काम मानते रहे हैं इसीलिए जब मुख्यमंत्री जी ने पत्रकारों की पंचायत बुलाने की घोषणा की तो सत्ता के दलालों के सीने पर सांप लोट गया. उन्हें लगा कि यदि मुख्यमंत्री सीधे पत्रकारों से संवाद करने लगेंगे तो उनका क्या महत्व रह जाएगा. लेकिन उन्हें नहीं मालूम कि ये घोषणा मुख्यमंत्री के अनुभव की उपज है. जब मुख्यमंत्री ने सत्ता संभाली थी तो जनसंपर्क विभाग के खाते से पत्रकारों को मात्र चालीस करोड़ रुपये विज्ञापन,सत्कार आदि सुविधाओं के नाम पर दिए जाते थे. लेकिन पिछले बजट में पत्रकारों के नाम पर 180 करोड़ का प्रावधान किया गया था.ये राशि बढ़कर दो सौ करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी है. आज हालत ये है कि ये बजट भी बांटा जा चुका है और पिछले तीन महीनों से पत्रकारों के बिलों का भुगतान लंबित है. जब इस बात की समीक्षा की गई तो स्वाभाविक है कि किसी भी शासक के कान खड़े होंगे ही. लगभग साढे़ चार या पांच गुना बजट बढ़ाने के बाद भी जन संवाद की हालत पहले से बदतर हो तो सवाल उठेगा ही कि ये पैसा आखिर गया कहां. पत्रकारों को ये पैसा मिला नहीं अखबार वाले पहले की तरह ही मुंह पसारे खड़े हैं. इन सब स्थितियों की असलियत उजागर करने के लिए जरूरी था कि पत्रकारों से सीधा संवाद किया जाए.
जब मुख्यमंत्री जी ने पत्रकारों की पंचायत बुलाने की घोषणा की तो सबसे पहले तो चिंतित वे सत्ता के दलाल हुए जिन्होंने प्रदेश से बाहर के अखबारों को विज्ञापन जारी करने के नाम पर करोड़ों रुपयों का खजाना उड़ा दिया. इनमें जनसंपर्क विभाग के अफसरों के अलावा, भारतीय जनता पार्टी के ही कई नेता और पत्रकार भी शामिल हैं. यदि ये पोल खुलती है कि इस राशि का भुगतान किस किस को किया गया तो फिर वे झमेले में भी पड़ सकते हैं. इसीलिए सत्ता के दलालों ने पत्रकारों के एक संगठन को पटाया और उसकी बैठक भी राजधानी में आयोजित करवा दी. इसकी व्यवस्था भी पर्दे के पीछे से इन्हीं सत्ता के दलालों ने की थी. इस संगठन के पत्रकारों के नाम से एक प्रस्ताव पारित किया गया कि मुख्यमंत्री पत्रकारों के समूहों को बुलाकर उनकी समस्याओं का निदान करें. यदि वे पंचायतों की रेवड़ में पत्रकारों को भी बुलाएंगे तो चौथे स्तंभ की बेइज्जती हो जाएगी. इसी बजट के हम्माम में नहाने वाले कुछ पत्रकारों ने कहना शुरु कर दिया कि यदि पत्रकारों की पंचायत बुलाई गई तो मुख्यमंत्री जी को दारू, आदि का इंतजाम भी करना पडे़गा.
वास्तव में पिछले दो दशकों में पत्रकारिता और पत्रकारों की इतनी बेईज्जती की गई है कि आज पत्रकारों का बड़ा तबका अपने ऊपर भी भरोसा खो चुका है. उन्हें केवल यही लगता है कि शराबखोरी, और लिफाफे बांटकर ही खबरें छपवाई जा सकती हैं. दरअसल पत्रकारों और पत्रकारिता को बदनाम करने का षड़यंत्र पिछली दिग्विजय सिंह की भ्रष्ट सरकार ने किया था. उसने पत्रकारों के नाम पर एसे दोयम दर्जे के लोगों को इस कारोबार में उतार दिया जिन्होंने सामाजिक विकास की खबरें लिखने के बजाए चाटुकारिता की और सच कहने वालों को हर कदम पर कुंठित करने का काम किया.धीरे धीरे मक्कारों का ये गिरोह ईमानदार अफसरों को लतियाने में सफल हो गया. तबसे लेकर आज तक प्रदेश में कोई कार्य संस्कृति विकसित नहीं हो पाई है.
अब जबकि मुख्यमंत्री करीब चौदह पंचायतें बुला चुके हैं उन्हें साफ समझ आ गया है कि जब तक सरकार के कार्यों से सफल जनसंवाद नहीं उपजेगा तब तक प्रदेश को प्रगति के पथ पर अग्रसर नहीं किया जा सकता है. एसा नहीं कि ये बातें उन्हें कभी नहीं बताई गईं थीं. प्रदेश में भाजपा के सत्तासीन होने के बाद से ही ये लगातार कहा जा रहा था कि पत्रकारों के सूचना तंत्र को नए सिरे से संयोजित करना जरूरी है. पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने चूंकि सत्ता संग्राम में सीधे भाग लिया था इसलिए उन्होंने इस जरूरत को पहले ही समझ लिया था. लेकिन उनके बाद आए बाबूलाल गौर ने जिस भद्दे तरीके से सुधारों की इस प्रक्रिया को मटियामेट किया उससे पूरी तस्वीर ही बदल गई. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सत्ता संभालने के बाद सुधारों पर जोर दिया, इसके बाद भी जब उन्हें सुधार होते नजर नहीं आए तब जाकर उनका ध्यान मीडिया की दुर्दशा पर गया. अब उन्होंने जान लिया है कि जब तक मीडिया का सदुपयोग नहीं किया जाएगा तब तक जनता को शिक्षित और उत्साहित नहीं किया जा सकता. सत्ता की ये पहली जरूरत है कि जब तक जनता संकल्प नहीं लेती कि उसे प्रदेश की तस्वीर और तकदीर बदलनी है तब तक कोई भी सत्ताधीश कितना ही पराक्रमी क्यों न हो वह किसी सामाजिक लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भले ही देर से पर सत्ता के सबसे प्रमुख सूत्र को पकड़ ही लिया है.
पत्रकारों की पंचायत बुलाकर वे बड़े सामाजिक उद्देश्य को साधने के लिए निकल पड़े हैं.यदि वे सत्ता के दलालों के बहकावे में न आकर पत्रकारों की पंचायत बुलाने में सफल हो जाते हैं और वास्तविक पत्रकारों को उनका हक दिलवाने की राह प्रशस्त करते हैं तो फिर कोई शक नहीं कि वे मध्यप्रदेश की सत्ता के प्रतिभाशाली मुख्यमंत्रियों की कतार में शामिल हो जाएंगे. क्योंकि प्रदेश के वास्तविक पत्रकारों को उनका हक दिलाकर वे सामाजिक परिवर्तन के सबसे सशक्त हथियार को सफल बनाएँगे. जो लोग पत्रकारों की पंचायत को चौथे स्तंभ की बेइज्जती बता रहे हैं वे ही इस पंचायत की सबसे अग्रिम कतार में बैठे भी मिलेंगे. पत्रकारों की पंचायत से डरने वाले वही लोग हैं जिन्होंने अब तक लोकतंत्र के नाम पर चल रही लूट की मलाई खाई है. लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को सशक्त बनाने का एसा अभिनव प्रयोग अब तक देश में कहीं हुआ भी नहीं है. माननीय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस साहसिक पहल के लिए बधाई के पात्र हैं. उन्हें बस ये ध्यान रखा चाहिए कि प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो बढ़े चलो.
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