सुंदरचंद ठाकुर
मुझे हमेशा नेताओं की वाक कला ने अपनी ओर खींचा है। स्कूल के दिनों में और बाद में भी विभाजन के समय का नेहरू का भाषण हमेशा मेरी स्मृति में रहा। करोड़ों लोगों को संबोधित उस भाषण ने मुझे हमेशा अभिभूत किया। पर हर नेता ऐसे भाषण नहीं दे सकता। आज बहुत से पार्टी प्रवक्ता स्वयं को नेता समझते हैं, पर नेता वह होता है, जो जनता के दिलों पर राज करता है। मगर जनता के दिलों में राज करने के लिए यह भी जरूरी है कि आप उनके लिए दिल से कुछ करना चाहें। उनके आंसू आपको कचोटते हों, उनकी मुश्किलें आपको तकलीफ देती हों। उन्हें उनके अधिकार दिलवाना और उन्हें हर संभव बेहतर सुविधाएं देना, आपकी चिंता के विषय होते हैं। असल में यही चिंता होती है, जो लफ्जों में जब निकलती है, तो आग बन जाती है और लोग सम्मोहित खड़े रह जाते हैं।
यह बेवजह नहीं है कि बाला साहेब ठाकरे जब मंच पर चढ़ते थे तो उनकी नजर की हद तक उनके चाहने वाले बिखरे होते थे। लोग उन्हें सुनने भर के लिए मीलों का फासला तय करके आते थे। बाला साहेब में कहीं गहरे हमेशा गुस्सा पैठा दिखता था। लोगों को उनके गुस्से से प्यार था क्योंकि यह गुस्सा असल में उनकी अपनी अस्मिता को लेकर उठाया गया था। यह गुस्सा अपने लोगों के अस्तित्व को बचाने के लिए था।
भारत में यह एक ट्रैजिडी की तरह मुझे दिखता है कि यहां जननेता लगातार कम होते जा रहे हैं। जननेता के पास एक खास तरह का उग्र तेवर होता है। अब अच्छी वकालत करने वाले लोग नेता बन रहे हैं। यानी ऐसे लोग जो तर्कों में बात करते हैं। मगर दिल तर्कों की भाषा नहीं जानता। दिल तो सिर्फ दिल की भाषा जानता है। मोंटेक सिंह अहलूवालिया गरीबी रेखा और भुखमरी पर जब बात करते हैं, तो उनकी आंखों में आंसू नहीं आते क्योंकि वह आंकड़ों वाले नेता हैं। अरुण जेटली या कपिल सिब्बल तर्कों के उस्ताद हैं। कांग्रेस ने मनीष तिवारी को अगर मंत्री बना दिया, तो वह भी उनकी तार्किक क्षमता और भाषाई ज्ञान के चलते किया। इस लिहाज से सोनिया गांधी, राहुल गांधी या दूसरे कितने ही बड़े नेताओं के भाषण मुझे खोखले लगते हैं क्योंकि वे बनाए गए भाषण होते हैं। उन्हें कोई और ड्राफ्ट करता है। ये नेता अपने भाषण खुद तैयार क्यों नहीं कर पाते? क्योंकि वे मुद्दों को ही नहीं जानते। मगर बाला साहेब के पास मुद्दे ही मुद्दे थे। अपने अंतिम इंटरव्यू में मैंने उन्हें कहते सुना कि कैसे वे युवा दिनों में एक ही दिन में पांच-पांच सभाएं करते थे। सुबह से रात तक भाषण ही भाषण देते थे। उन्हें कभी इन भाषणों की तैयारी की जरूरत नहीं पड़ी। वे जनता के बीच रहते थे इसलिए जनता के मुद्दों को जानते थे। अब पार्टियां कॉर्पोरेट की तरह चलने लगी हैं और नेता कॉर्पोरेट लीडर ज्यादा हो गए हैं। उनके शब्द दिमाग से निकलते हैं। इसलिए उन्हें इन शब्दों को सुनने वाले खरीदकर लाने पड़ते हैं।
मुझे यह भी लगता है कि बाला साहेब ने अगर खुद को महाराष्ट्र तक सीमित रखा, तो ऐसा उन्होंने जानबूझकर किया। शायद उन्हें कभी ऐसा लगा ही नहीं कि उन्होंने अपने लोगों की समस्याओं को हल कर लिया है और अब वह उन्हें छोड़कर जा सकते हैं। उनके मन में अगर केंद्र की सत्ता तक पहुंचने का अरमान होता, तो वे तिकड़म बिठाकर कर ऐसा भी कर सकते थे। उत्तर में लालुओं और पासवानों ने अपनी जरा-सी अल्पकालीन ताकत का फायदा उठाकर यही तो किया। उनके ऐसा करते ही उनका जनाधार और सीमित हो गया।
यह किसी से नहीं छिपा कि लोग बाला साहेब के जनाधार के कारण ही उनसे खौफ खाते थे। उनके लिए शिवसैनिकों का अपने नेता के प्रति समर्पण हैरान करने वाला था। उनकी एक हुंकार में मुंबई बंद हो जाती थी। मगर वह यह नहीं देखते थे कि अपने लोगों पर उनकी पकड़ ऐसे ही नहीं बनी। उन्होंने अपना पूरा जीवन महाराष्ट्र और यहां के लोगों की अस्मिता को दे दिया। ऐसा करते हुए उन्होंने किसी बात का लिहाज नहीं किया। उत्तर भारतीय उनसे नाराज हुए। दक्षिण भारतीय भी उनसे नाराज हुए। उनकी विचारधारा के कई पहलुओं से मेरी गंभीर असहमति है। मगर कहना होगा कि उनके मन में सत्ता का लोभ होता, तो शायद वह बिना किसी को नाराज किए पतली रस्सी पर संतुलन बनाकर चलते। मगर तब उनके लफ्ज बेजान हो जाते, उनकी आग मारी जाती। तब उन्हें सुनने के लिए लाखों लोगों का हुजूम न आता।
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