Thursday, November 29, 2012

दावों से ज्यादा दवा की दरकार



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इस बार भी ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट के बाद मध्य प्रदेश सरकार ने लाखों करोड़ रुपये के निवेश के दावे किए, लेकिन अतीत के अनुभव बताते हैं कि इन पर यकीन करना मुश्किल है. शिरीष खरे की रिपोर्ट.

यह एक संयोग ही था कि बीते दिनों इंदौर में मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार जब अपने मुखिया शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट का समां बांधने में जुटी हुई थी तभी सूबे के पूर्व मुखिया और भाजपा के वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से एक संदेश आया. संदेश में मोदी ने गौर को गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव के प्रचार में आने का न्योता दिया. गौर ने भी फोन पर ब्रिटिश उच्चायुक्त द्वारा व्यापार के सिलसिले में गुजरात पहुंचकर मोदी से भेंट करने को बड़ी उपलब्धि बताते हुए उन्हें बधाई दी. बाद में पत्रकारों से बातचीत में गौर ने कहा कि यदि आपके प्रदेश में बेहतर सुविधाएं हों तो विदेश जाने और मीट करने की जरूरत नहीं है बल्कि निवेश खुद-ब-खुद आपके पास चलकर आता है. गौरतलब है कि हाल के दिनों तक अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों द्वारा मोदी को अपने यहां आने के लिए प्रतिबंधित करने के बावजूद गुजरात में विदेशी निवेश की कमी नहीं है. वहीं शिवराज हर ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट के पहले अपने दल बल के साथ विदेशी निवेशकों को लाने के लिए कई देशों की यात्राएं करते हैं. बावजूद इसके पीथमपुर (इंदौर) में कपारा इंजीनियरिंग के अलावा विदेशी निवेश का कोई भी करार अब तक यहां साकार नहीं हो पाया है.

बीते आठ साल के अपने कार्यकाल में शिवराज देशी-विदेशी निवेशकों को रिझाने के लिए अरबों रुपये खर्च करके तीन ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट कर चुके हैं. उनकी यह लंबी कवायद जमीन पर कोई नतीजा नहीं ला पाई है. अपेक्षा थी कि वे अपने तजुर्बे से सबक लेंगे, लेकिन करारों पर मंथन करने के बजाय उन्होंने औद्योगिक नगरी इंदौर में 28 से 30 अक्टूबर के बीच एक और ग्लोबल मीट का आयोजन कर दिया.
इसमें एक बार फिर अनिल अंबानी से लेकर आदि गोदरेज, कुमार मंगलम बिड़ला और शशि रूइया जैसे कई चिर-परिचित धनकुबेर दिखे. एक बार फिर सरकार ने अति उत्साह दिखाते हुए कुछ ऐसा प्रचार किया कि जैसे सूबे की औद्योगिक तस्वीर तेजी से बदली है. यह और बात है कि उसी के सांख्यिकी विभाग की मौजूदा रिपोर्ट यह बताती है कि यहां औद्योगिक विकास गति नहीं पकड़ पा रहा है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि द्वितीयक क्षेत्र (खनन, विनिर्माण, बिजली आदि) में विकास दर जहां 2008-09 में 17.31 फीसदी थी वह 2009-10 में 7.70 और 2010-11 में 7.60 पर आकर अटक गई है. वहीं सरकारी विज्ञापनों में यह दावा किया गया है कि इस दौरान 15 हजार लोगों को रोजगार मिला है. प्रदेश में करोड़ों की संख्या में बेरोजगारों को देखते हुए यह दावा अपने आप में हास्यास्पद है.

इस साल भी 548 करारों में निवेशकों ने दो लाख करोड़ रुपये से अधिक के निवेश का वादा किया है. मगर बीते वादों पर निगाह डालें तो इसके पहले हुए कुल 333 करारों में से 111 निरस्त हो चुके हैं. सरकारी विज्ञापन ही बताता है कि इनमें से केवल सात कारखाने उत्पादन की स्थिति में हैं. बाकी 215 करारों की वस्तुस्थिति स्पष्ट नहीं. सच तो यह है कि 2004 से 2012 के दौरान साढ़े चार लाख करोड़ रुपये का निवेश आकर्षित करने के बड़े दावे खोखले साबित हुए हैं. सरकारी आंकड़ों की मानें तो यहां केवल 27 हजार करोड़ रुपये का निवेश हो पाया है. उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय इसका ठीकरा आर्थिक मंदी और कोलब्लॉक आवंटन के सिर फोड़ते हैं.

लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि प्रदेश के 50 में से 27 जिलों में कोई उद्योग नहीं है. आर्थिक प्रेक्षकों के मुताबिक माल ढुलाई के लिए परिवहन का गंभीर संकट इसकी बड़ी वजह है. गौरतलब है कि 1880 में इंदौर में ही होल्कर राजघराने ने जब कपड़े का कारखाना खोला तो अंग्रेजों ने कहा था कि बिना रेल के यह संभव नहीं. तब पहली बार इंदौर के लिए रेल लाइन बिछाई गई. मगर आज मध्य में स्थित होने के बावजूद इस प्रदेश का रेल नेटवर्क जहां देश के औसत नेटवर्क से काफी कम है वहीं प्रदेश के 38 प्रतिशत इलाकों तक सड़कें नहीं पहुंची हैं. यहां कुल एक लाख 10 हजार किलोमीटर तक सड़कें हैं, जो भौगोलिक दृष्टि से इससे कहीं छोटे महाराष्ट्र की दो लाख 45 हजार किलोमीटर सड़कों से काफी पिछड़ी हैं. इसी के साथ बीते एक दशक से सूखे की मार झेलते बुंदेलखंड और चंबल सहित पूरे सूबे में पानी का घोर संकट तो है ही, बिजली की मांग 5,200 मेगावॉट के मुकाबले 4,100 मेगावॉट की आपूर्ति के बीच भारी कमी के चलते भी पहले से ही कई उद्योगों का भविष्य अंधेरे में है. आर्थिक विश्लेषक राजेंद्र कोठारी की राय है, ‘निवेश में वास्तविक दिलचस्पी रखने वाले निवेशक इसलिए यहां से हाथ खींचते हैं कि उन्हें जैसा बताया जाता है वैसी सुविधाएं नहीं मिलतीं.’

बीते एक दशक के दौरान यदि निवेश की स्थिति देखी जाए तो राज्य का नंबर अपने से विभाजित हुए  छत्तीसगढ़ के बाद आता है. विशेषज्ञ बताते हैं कि राज्य में औद्योगिक निवेश को लेकर स्पष्ट नीति का अभाव है. गौरतलब है कि मौजूदा सरकार अपने कार्यकाल में आधे दर्जन से अधिक बार औद्योगिक नीति बदल चुकी है. नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के मुताबिक, ‘मुख्यमंत्री कभी एफडीआई का विरोध करते हैं तो कभी कृषि योग्य जमीन उद्योगों को न देने की बात. मगर मीट में जब वे अपनी ही बात से उलट उद्योगों के लिए सुविधाओं का पिटारा खोलते हैं तो आम जनता में भ्रम की स्थिति तो बनती ही है, उद्योगपतियों के लिए भी भरोसा कर पाना मुश्किल हो जाता है.’

उद्योगपतियों में भरोसा न बन पाने की दूसरी वजह यह है कि प्रदेश में पहले से मौजूद उद्योग धीमे-धीमे अपनी पहचान खोते जा रहे हैं. उद्योग विभाग के मुताबिक पीथमपुर में 609 में से 200 कारखाने बंद हो चुके हैं. इसके अलावा मंडीदीप (भोपाल) में 550 में से 110, मालनपुर (ग्वालियर) में 200 में से 151 और देवास में 15 बड़े कारखानों में भी ताले लग चुके हैं. कई औद्योगिक संगठनों की राय में इन मीटों के पहले मध्य प्रदेश के लिए मध्य प्रदेश केंद्रित नीति बनाने की जरूरत है. प्रदेश में बेकारी एक बड़ी समस्या है और सरकार ने भी रोजगार की संभावना वाले उद्योगों को वरीयता देने की बात की है. मगर इसके उलट उसने बीते मीटों के दौरान प्रस्तावित निवेश का आधा हिस्सा उस खनन और बिजली क्षेत्र में लगाया है जो अब तक धरातल पर कोई आकार नहीं ले पाया. जबकि कपड़ा उद्योग को लेकर उसने कोई पहल नहीं की. जानकार बताते हैं कि एक कपड़ा उद्योग यदि 500 करोड़ रुपये का भी निवेश करता है तो न्यूनतम ढाई हजार लोगों को रोजगार देता है. वहीं बिजली संयंत्र में यदि 20 हजार करोड़ रुपये का भी निवेश किया जाए तो भी उससे बमुश्किल एक हजार लोगों को काम मिलता है. गौरतलब है कि इंदौर के 120 साल पुराने, कपड़े और बुरहानपुर के विश्वविख्यात पावरलूम उद्योग के बर्बाद होने से हजारों लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है.
सूबे की पूरी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है और इसीलिए कई विशेषज्ञों का मत है कि यदि ऐसे आयोजनों में कृषि को बढ़ावा देने वाले उद्योगों को महत्व दिया जाए तो प्रदेश के औद्योगिक विकास में नए आयाम जुड़ेंगे. स्थानीय अर्थव्यवस्था के मामलों के जानकार चिन्मय मिश्र के मुताबिक, ‘यहां हर साल बोरों की कमी एक बड़ी समस्या बन जाती है तो सरकार ने अब तक प्रदेश में जूट फैक्टरी लगाने की दिशा में कोई पहल क्यों नहीं की.’ दूसरी तरफ, कई औद्योगिक क्षेत्रों में उद्योग लगाने के नाम पर आवंटित लाखों हेक्टेयर जमीन खाली पड़ी है. पीथमपुर औद्योगिक केंद्र विकास निगम की सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक कई रसूखदार कारखाने की जमीन गोदाम में बदलकर उसे किराये पर दे रहे हैं. औद्योगिक इकाइयों की मांग है कि उद्योगों में इस्तेमाल नहीं होने वाली ऐसी जमीनों की लीज निरस्त करके उन्हें नए निवेशकों को दे दिया जाए. मगर इससे उलट सरकार कृषि योग्य जमीन खाली कर रही है. अब तक राज्य में दो लाख 44 हजार हेक्टेयर कृषि योग्य जमीन उद्योगपतियों को सौंपी जा चुकी है. लिहाजा इन आयोजनों के चलते किसानों के भीतर उद्योगों को लेकर भय और असंतोष की स्थिति बनी है. वहीं एक तबका ऐसा भी है जिसके मुताबिक  यदि इन आयोजनों की रणनीति के तहत उन उद्योगों को बढ़ावा दिया गया जिनका प्रदेश के विकास से कोई सीधा रिश्ता नहीं है तो भविष्य में इसका उल्टा असर पड़ेगा. मजदूर नेता प्रमोद प्रधान का मानना है, ‘सिंगरौली जैसे क्षेत्र में बिजली संयंत्र लगाने से किसानों की जमीनें छीनी जाएंगी और बिजली की कीमत भी यदि कंपनियां ही तय करेंगी तो आक्रोश बढ़ेगा.’
इन सबसे अलग कई आर्थिक विश्लेषकों का मत है कि बड़े उद्योगपति निवेश के मकसद से इन आयोजनों में नहीं आते. असल में उनकी दिलचस्पी चूने और कोयले की खदानों तथा जमीन लेकर उनका उपयोग अन्य स्थानों पर करने में है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रदेश सचिव बादल सरोज जेपी कंपनी के उदाहरण से बताते हैं कि प्रदेश सरकार ने इस व्यावसायिक घराने को सिंगरौली और सीधी जिलों में न केवल हजारों हेक्टेयर जमीन लीज पर दी है बल्कि उस जमीन को बैंक में बंधक रखकर लोन लेने की विशेष सुविधा भी दी है. बादल का आरोप है, ‘जेपी ने लोन से ली सैकड़ों करोड़ की रकम हिमाचल प्रदेश के बिजली संयंत्रों और हाइवे क्षेत्र में खर्च कर दी.’ दरअसल सिंगरौली प्रदेश की नई औद्योगिक नगरी के तौर पर विकसित हो रही है तो इसलिए कि यहां दुनिया का बेहतरीन कोयला पाया जाता है. सिंगरौली में बड़े पैमाने पर हुआ निवेश इस बात की तस्दीक  करता है कि निवेश आयोजनों से नहीं बल्कि निवेशकों की जरूरत से आता है.

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