सड़क दुर्घटनाओं में वाहनचालकों की जिम्मेदारी और अदालती फैसले
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रोजाना ही समाचार पत्रों में तेज रफ्तार वाहनों द्वारा सड़क चलते लोगों या रात में फुटपाथ पर सो रहे लोगों को कुचले जाने या किसी दूसरे वाहन को टक्कर मारने संबंधी खबरें पढ़ने को मिलती हैं। ऐसी दुर्घटनाओं में अब भारी वाहनों के साथ ही बड़ी कारें जैसी लक्जरी गाडि़यां भी शामिल हो गयी हैं। ऐसी मामलों में अक्सर वाहन चालक को गिरफ्तारी और पुलिस जांच के बाद जमानत मिल जाती है। दुर्भाग्य से इस तरह की सड़क दुर्घटनाओं की संख्या तेजी से बढ रही है।
उच्चतम न्यायालय ने अभी हाल ही में करीब 13 साल पहले हुए बहुचर्चित बीएमडब्ल्यू हिट एंड रन कांड के मुख्य अभियुक्त को मात्र दो साल की कैद की सजा और मुआवजे के रूप में 50 लाख रूपए भुगतान करने का फैसला सुनाया। लेकिन, न्यायालय ने हादसे की गंभीरता को देखते हुए वाहनचालक को लापरवाही और उपेक्षापूर्ण कृत्य के कारण मृत्यु के अपराध के लिये नहीं बल्कि गैर इरादतन हत्या के लिए दोषी ठहराया। मुआवजे की इस राशि का इस्तेमाल ऐसी सड़क दुर्घटनाओं से प्रभावित ऐसे परिवारों को मुआवजा देने के लिए किया जायेगा जिनके वाहन चालक पुलिस के चंगुल से बच निकलते हैं। इस हादसे में बीएमडब्ल्यू कार ने तीन पुलिसकर्मियों सहित छह व्यक्तियों को कुचल दिया था। अदालत ने इस मामले में वाहनचालक को गैर इरादतन हत्या से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 304 के तहत दोषी ठहरा कर इस बात के संकेत दे दिये कि वह तेज रफ्तार से दौडने वाली गाडियों से होने वाले हादसों के लिए दोषी व्यक्तियों के साथ किसी प्रकार की नरमी नहीं दिखायेगी।
न्यायालय ने शराब पीकर वाहन चलाने वालों को समाज के लिए गंभीर खतरा बताते हुए कहा कि नशे में गाड़ी चलाने वालों को हल्का दंड देकर और जुर्माना लगाकर नहीं छोड़ा जाना चाहिए बल्कि नशे में गाड़ी चलाने वालों को इतनी सजा तो मिलनी ही चाहिए जो दूसरे लोगों के लिए नजीर बन सके। उच्चतम न्यायालय की इस तरह की टिप्पणियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि लापरवाही और उपेक्षापूर्ण कृत्य के कारण मृत्यु से संबंधित धारा 304-क में अधिक कठोर सजा का प्रावधान जरूरी है।
इस समय धारा 304-क में दो साल तक की सजा या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है। सड़क दुर्घटना के मामले में आमतौर पर धारा 304-क के तहत ही मामला दर्ज होता है जिसमें अभियुक्त की जमानत भी आसानी से हो जाती है। इस धारा में चूंकि न्यूनतम सजा का प्रावधान नहीं है, इसलिए अक्सर तेज रफ्तार से वाहन चलाकर राहगीरों को कुचलने वाले चालक मामूली ही सजा पाकर बच निकलते हैं। शायद यही वजह है कि लापरवाही और उपेक्षापूर्ण तरीके से गाड़ी चलाने के अपराध में न्यूनतम सजा के लिए फिर से आवाज उठने लगी है। रफ्तार के इस दौर में सड़कदुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या देखते हुए देश की सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश भी महसूस करने लगे हैं कि इस अपराध के लिए भी भ्रष्टाचार निवारण कानून की तरह ही कानून में न्यूनतम दंड की व्यवस्था होनी चाहिए।
वैसे यह पहला मौका नहीं है जब धारा 304-क में संशोधन कर सडक दुर्घटनाओं के संदर्भ में लापरवाही और उपेक्षापूर्ण कृत्य के अपराध के लिए सजा की अवधि के बारे में आवाज उठी है। करीब तीन साल पहले विधि आयोग ने भी अपनी 234वीं रिपोर्ट में धारा 304-क के तहत दंडनीय अपराध की अधिकतम दस साल और न्यूनतम दो साल की सजा की सिफारिश की थी।
विधि आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायमूर्ति डा ए आर लक्ष्मण ने विधि एवं न्याय मंत्री डा वीरप्पा मोइली को इस संबंध में अगस्त 2009 में अपनी रिपोर्ट दी थी। शराब पीकर या किसी अन्य नशे की हालत में लापरवाही से गाड़ी चलाने के कारण होने वाली मौत के मामलों पर चिंता व्यक्त करते हुए आयोग ने ऐसे अपराध के लिए धारा 304-क में न्यूनतम दो साल की कैद का प्रावधान करने की सिफारिश सरकार से की थी। विधि आयोग ने कहा था कि शराब के नशे में गाड़ी चलाने के कारण दुर्घटना होने की स्थिति में दोषी व्यक्ति को कम से कम दो साल की सजा का प्रावधान करने की भी सिफारिश की थी। विधि आयोग ने सड़क दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या पर काबू पाने के लिए अनेक महत्वपूर्ण सुझाव दिये हैं।
देश के शहरी इलाकों में हो रही सड़क दुर्घटनाओं का कारण अक्सर तेज रफ्तार ही बताया जाता है। इसी संदर्भ में उच्चतम न्यायालय भी अब यह महसूस करने लगा है कि नशे में गाड़ी चलाना अभियात्य वर्ग के लोगों का शगल बन चुका है और उनकी इस प्रवृत्ति के कारण पैदल यात्री भी सुरक्षित नहीं हैं। न्यायालय ने अपने निर्णय में शराब के नशे में चालक की मन:स्थिति और नशे में उनकी देखने और सोचने समझने की क्षमता को भी बखूबी चित्रित किया है।
यदि सड़क दुर्घटना के मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 304-क के तहत मामला दर्ज होता है तो इसमें अभियुक्त की जमानत भी आसानी से हो जाती है। शायद यही वजह है कि अब देश की सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश भी महसूस करने लगे हैं कि इस अपराध के लिए भी भ्रष्टाचार निवारण कानून की तरह ही न्यूनतम दंड निर्धारित होना चाहिए।
उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश पी सदाशिवम ने हाल ही में सुझाव दिया है कि लापरवाही और उपेक्षापूर्ण तरीके से चलने वाले वाहनों से होने वाली सड़क दुर्घटनाओं पर काबू पाने की आवश्यकता है। उनकी राय थी कि ऐसे हादसों में शामिल वाहन चालकों के लिए न्यूनतम सजा का प्रावधान जरूरी है अन्यथा वाहन चालक तो जुर्माना अदा करके निकल जायेगा और पीडि़त के परिजन मुआवजे के लिए मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण में चक्कर काटते रहेंगे।
न्यायमूर्ति सदाशिवम की यह चिन्ता स्वाभाविक भी है क्योंकि सड़क सुरक्षा के मामले में भारत का रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में हर छह मिनट में सड़क दुर्घटना में एक व्यक्ति की म़ृत्यु होती है और गाडि़यों की बढ़ती संख्या तथा रफ्तार के कारण इसके तीन मिनट में एक व्यक्ति की मौत होने की संभावना है। भारत में हर साल करीब एक लाख 20 हजार व्यक्तियों की मृत्यु सड़क दुर्घटनाओं में होती है जबकि करीब एक लाख 27 व्यक्ति ऐसे हादसों में बुरी तरह जख्मी होते हैं।
सबसे रोचक तथ्य तो यह है कि दुनिया भर में पंजीकृत वाहनों में से मात्र एक फीसदी वाहन ही भारत में पंजीकृत हैं जबकि सड़क दुर्घटना में शामिल वाहनों की संख्या नौ फीसदी है।
यह पहला मौका नहीं है जब धारा 304-क में संशोधन कर सड़क दुर्घटनाओं के संदर्भ में लापरवाही और उपेक्षापूर्ण कृत्य के अपराध के लिए सज़ा की अवधि के बारे में आवाज उठी है। विधिआयोग ने भी तीन साल पहले अपनी 234वीं रिपोर्ट में धारा 304-क के तहत दंडनीय अपराध की अधिकतम दस साल और न्यूनतम दो साल की सज़ा की सिफारिश की थी।
विधि आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायमूर्ति डा ए आर लक्ष्मणन ने विधि एवं न्याय मंत्री डा वीरप्पा मोइली को इस संबंध में अगस्त 2009 में अपनी रिपोर्ट दी थी। शराब पीकर या किसी अन्य नशे की हालत में लापरवाही से गाड़ी चलाने के कारण होने वाली मौत के मामलों पर चिंता व्यक्त करते हुए आयोग ने ऐसे अपराध के लिए धारा 304-क में न्यूनतम दो साल की कैद का प्रावधान करने की सिफारिश की थी।
विधि आयोग ने कहा था कि शराब के नशे में गाड़ी चलाने के कारण दुर्घटना होने की स्थिति में दोषी व्यक्ति को कम से कम दो साल की सज़ा तो मिलनी ही चाहिए। आयोग का यह भी सुझाव था कि एक बार की सज़ा के बाद ऐसा व्यक्ति दुबारा सड़क दुर्घटना के लिए दोषी पाया जाए तो उसे कम से कम एक साल की सज़ा दी जानी चाहिए।
विधि आयोग ने इसी तरह धारा 336, 337 और 338 के संदर्भ में भी अनेक महत्वपूर्ण सिफारिशें अपनी रिपोर्ट में की थीं।
विधि आयोग की यह भी राय थी कि देश में एक केंद्रीय सड़क यातायात कानून होना चाहिए। इसके साथ ही रसोई गैस के सिलेण्डर से चलने वाली गाडि़यों के चालकों को गिरफ्तार करके चालक और वाहन के स्वामी पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए।
अक्सर देखा गया है कि इस तरह की सड़क दुर्घटनाओं में बड़ी और तेज रफ्तार वाली गाडि़यां ही शामिल होती हैं। इन दुर्घटनाओं का एक कारण वाहन चालक का नशे में होना भी बताया जाता है। ऐसे मामलों में वाहन चालक तो जल्दी ही जमानत पर छूट जाते हैं। लेकिन ऐसे हादसे के शिकार परिवार के सदस्यों की परेशानियां बढ़ जाती हैं। यदि दुर्घटना में किसी राहगीर या दूसरे वाहन चालक की मौत हो गयी तो ऐसे व्यक्ति के परिजन साल दर साल बीमा कंपनी से मुआवजे के लिए मुकदमा ही लड़ते रहते हैं।
उच्चतम न्यायालय ने भी अपने हाल के निर्णय में इस स्थिति को इंगित किया है।
ऐसी स्थिति में बेहतर होगा यदि विधिआयोग की 234वीं रिपोर्ट में की गयी सिफारिशों और उच्चतम न्यायालय के निर्णय में की गयी टिप्पणियों के आलोक में लापरवाही और उपेक्षापूर्ण कृत्य के कारण मृत्यु के मामलों में धारा 304-क के तहत वाहन चालक के लिए निर्धारित दंड में संशोधन करके न्यूनतम सज़ा का प्रावधान किया जाए।
विधि आयोग की सिफारिश के अनुरूप शराब पीकर या किसी अन्य नशे का सेवन करके वाहन चलाने के कारण हुई सड़क दुर्घटना के अपराध के लिए इस धारा के तहत न्यूनतम सज़ा दो साल की कैद और जुर्माने का प्रावधान करने के साथ ही अधिकतम सज़ा दस साल तक करने पर भी विचार किया जा सकता है।
इस तरह के कठोर कदम उठाकर ही नशे में तेज रफ्तार से आधुनिक वाहन चलाने वालों पर अंकुश पाना और सड़क दुर्घटनाओं की संख्या पर अंकुश पाना संभव हो सकेगा। इसके अलावा नशे की हालत में गाड़ी चलाने को गैर जमानती अपराध भी बनाना भी अधिक तर्क संगत हो सकता है।
---पत्र सूचना कार्यालय से साभार
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