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राहुल गांधी का बचपन सोचकर मुझे कई बार बुरा लगता है. परिवार में कितने लोगों को बेमौत मरता देखा उन्होंने. पहले चाचा संजय गांधी की दुर्घटना. फिर दादी इंदिरा गांधी की हत्या. और फिर पापा राजीव गांधी का मर्डर. राजीव गांधी की हत्या बहुत बेदर्द थी. इतने साल हुए. आज भी उसके बारे में सुनकर और सोचकर कंपकंपी सी होती है. बुरा लगता है. कि किसी के चीथड़े उड़ गए हों. शरीर नहीं, मांस का लोथड़ा बचा हो. हमें इतना बुरा लगता है. हम, जिनका राजीव गांधी से न कोई लेना, न देना. प्रधानमंत्री थे. मगर हमारी तो यादों में भी नहीं हैं. राहुल को कितना बुरा लगता होगा फिर.
चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी और प्रियंका गांधी.
भरूच में राहुल ने जो किया, वो कर पाना बहुत ज्यादा मुश्किल है
1 नवंबर को राहुल गुजरात में थे. वहां भरूच है एक जगह. वहां राहुल का रोड शो था. कारवां चल रहा था साथ. राहुल एक गाड़ी में थे. तभी एक लड़की आगे आई. भीड़ को चीरते हुए. उसको राहुल के साथ सेल्फी लेनी थी. राहुल ने उसका मन रखा. उसको अपनी गाड़ी पर चढ़ने में हाथ बढ़ाकर मदद की.
अगर ये सब पूर्वनिर्धारित न हो, तो एक नेता के लिए अच्छी बात है.
लड़की ने नीचे खड़े एक इंसान से फूलों का गुलदस्ता मांगा. फिर हाथ में वो फूल लेकर राहुल के साथ सेल्फी ली. एक या दो बार फोन क्लिक किया. शायद पहली तस्वीर अच्छी नहीं आई होगी. राहुल साथ दे रहे थे उसका. उसके साथ खड़े थे. मुस्कुरा रहे थे. राहुल के साथ उनके जो बॉडीगार्ड्स थे, वो बेचारे परेशान थे. बार-बार लड़की के हाथ से गुलदस्ता लेने की कोशिश कर रहे थे. मगर राहुल के चेहरे पर सबकुछ सामान्य था. एक मुस्कुराहट थी. जो बनावटी नहीं लग रही थी. फिर लड़की गाड़ी से उतर गई. जब सीढ़ी पर पांव रखकर नीचे उतर रही थी, तो राहुल उसे सहारा दे रहे थे. ताकि वो गिरे न. उसका पांव न फिसले. जब तक वो नीचे नहीं उतरी, राहुल देखते रहे. उसके सही-सलामत नीचे उतरने पर ही तसल्ली आई उनको. फिर उन्होंने नीचे झुककर उससे हाथ मिलाया. बाकी कई लोगों से भी हाथ मिलाया.
: A girl gets onto Congress Vice President Rahul Gandhi’s vehicle during his roadshow in ‘s Bharuch, takes a selfie with him
— ANI (@ANI)
फूल, लड़की और रैली… राहुल के लिए ये कोई आम कॉम्बो नहीं है
राहुल को यूं देखकर मुझे ताज्जुब हुआ. बनावटी नहीं लिख रही, एकदम सच कह रही हूं. डर नहीं लगा इसको! याद नहीं आया कि यूं ही उनके पापा की जान ली गई थी. लड़की का आना, हाथ में फूल, मिलने की कोशिश करना. सब वैसा, जैसा राजीव गांधी के साथ हुआ था. उनकी जिंदगी के आखिरी पलों में. बहुत बरस हो गए उस बात को. 26 साल. एक पीढ़ी गुजर गई इस बीच. राजीव गांधी के साथ उस दिन क्या हुआ, कैसे हुए, इसकी कहानी शायद बहुत सारे लोगों को मालूम भी नहीं होगी.
राजीव गांधी को श्रीलंका सरकार और लिट्टे के बीच में आना बहुत महंगा पड़ा.
21 मई, 1991 की वो तारीख…
वो साल था 1991. तारीख, 21 मई. बहुत गर्म दिन था. चुनाव का वक्त था. राजीव गांधी प्रचार करने में जुटे थे. जगह थी तमिलनाडु. ठीक-ठीक बताएं, तो विशाखापत्तनम. राजीव का वो दिन वहीं बीता था. वहां से उड़कर उनको चेन्नै पहुंचना था. उस दिन चीजें थोड़ी गड़बड़ तो हुई थीं. राजीव जिस विमान में सफर कर रहे थे, उसका संचार सिस्टम काम नहीं कर रहा था. तकनीकी खामी थी. ऐसे में चेन्नै कैसे जाते. योजना में बदलाव हुआ. राजीव ने फैसला किया, आज की रात गेस्ट हाउस में बिताएंगे. लगातार चुनाव प्रचार के कारण थकान तो बहुत हो रही थी उनको. मगर चुनाव करीब था. राजीव ज्यादा से ज्यादा जगहों पर पहुंचना चाहते थे. ताकि अपने लिए, अपनी पार्टी के लिए वोट मांग सकें. विशाखापत्तनम में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रही थीं उमा गजपति राजू. उन्होंने राजीव के लिए खाना बांधकर दिया. इडली थी. रसम था. रात के खाने का पूरा इंतजाम साथ था. तो बदले हुए रूटीन के मुताबिक रात गुजारने के लिए राजीव सर्किट हाउस की ओर रवाना हुए. रास्ते में ही थे कि एक पुलिसवाला पीछे से आया. मोटरसाइकिल चलाता हुआ. उसने राजीव की टीम को बताया कि उनका जहाज ठीक हो गया है. जो दिक्कत थी, वो सही कर दी गई है.
एक चुनावी रैली के दौरान भाषण देते हुए राजीव गांधी. अगर राजीव ने श्रीलंका में सेना को न भेजा होता, तो उनका ये अंजाम न हुआ होता.
…तो बच जाते राजीव गांधी
राजीव के काफिले ने रास्ता बदल लिया. पीछे मुड़ गया. तय हुआ, चेन्नै चला जाए. राजीव एयरक्राफ्ट में बैठ गए. विमान ने उड़ान भरी. इस वक्त घड़ी ने शाम के साढ़े छह बजाए थे. राजीव को भूख लगी थी. उन्होंने वो खाना खोजा, जो उमा गजपति राजू ने बांधकर दिया था. मालूम चला कि खाना तो छूट गया. वहीं गाड़ी में रह गया. उस दिन बड़ी सारी गड़बड़ियां हुई थीं. खाना रहते हुए राजीव को भूखा रहना पड़ा. उनकी इच्छा नहीं हो रही थी आगे जाने की. वो आराम करना चाहते थे. मगर पार्टी और कार्यकर्ताओं का मुंह देखकर आगे बढ़ गए थे. पड़ाव था चेन्नै.
पिता राजीव गांधी के शव को मुखाग्नि देते राहुल गांधी.
बाकी दिनों जैसा ही लग रहा था वो दिन
राजीव पायलट थे. प्रफेशनल पायलट. विमान उड़ाना उनका शौक था. उस दिन भी वो खुद ही विमान उड़ा रहे थे. लैंडिंग का समय था रात का 8:20. विमान से उतरकर राजीव एक बुलेटप्रूफ गाड़ी में बैठे. काफिला रवाना हुआ. श्रीपेरंबदूर के लिए. उनके साथ कांग्रेस के नेता भी थे. मारगाथम राममूर्ति और जी के मुपनार भी राजीव के ही साथ थे. ये काफिला 10:10 बजे श्रीपेरंबदूर पहुंचा. अच्छी-खासी रात हो गई थी. मगर चुनाव के समय क्या दिन और क्या रात. नेता ही नहीं, समर्थक भी दिन-रात की परवाह नहीं करते थे. वहां समर्थकों की भीड़ जमा थी. राजीव लोकप्रिय थे बहुत. वो जहां जाते, भीड़ उमड़ पड़ती. वो दिन भी बाकी दिनों सा ही लग रहा था. राजीव समर्थकों से मिलने लगे. पहले पुरुष समर्थकों से मिले. फिर उधर मुड़े, जिधर की तरफ महिलाएं खड़ी थीं.
ये राजीव गांधी के दाह-संस्कार की तस्वीर है. इसमें राहुल के साथ सोनिया भी नजर आ रही हैं.
एक मिनट में सब खून-खून हो गया
इधर राजीव महिला समर्थकों की ओर बढ़े. उधर मंच पर उनके लिए स्वागत गान गाया जा रहा था. राजीव महिला समर्थकों के बीच पहुंच चुके थे. उन महिलाओं के बीच थी एक लड़की. कद थोड़ा नाटा. रंग गहरा. भरे बदन की. गठीला शरीर. उसके हाथ में चंदन की एक माला थी. वो राजीव की ओर बढ़ी. राजीव के लिए ये आम था. माला-वाला लेकर बहुत लोग आते थे. न उनको कोई शुबहा हुआ, न उनके अंगरक्षकों को. फिर वो महिला नीचे झुकी. लगा, राजीव का पैर छूने नीचे झुकी है. मगर तभी एक जोरदार धमाका हुआ. इस वक्त घड़ी में रात के 10:21 बज रहे थे. इतनी जोर का ब्लास्ट था कि आस-पास खड़े लोगों को लगा कि कान बहरे हो गए. उस ब्लास्ट में जिंदा बचे लोगों को आज भी वो धमाका याद है. आज भी उसे याद करके उनके कानों में कंपा देने वाली सीटी बजती है.
15 लोगों की मौत हुई थी, मरने वालों में एक नाम राजीव का भी था
बहुत देर तक तो उथल-पुथल की स्थिति रही. लोगों को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या हुआ है. फिर धुआं हटा. लोग चेतना में आए. एक बदहवासी में राजीव को खोजा जाने लगा. फिर नजर आए राजीव. जमीन पर पड़े थे. मगर साबुत नहीं. हिस्सों में. टुकड़ों में. एक हिस्सा जमीन पर औंधा पड़ा था. सिर फट चुका था. सिर के भीतर से निकले दिमाग के लोथड़े उनके सुरक्षा अधिकारी प्रदीप गुप्ता के पैरों पर पड़े थे. गुप्ता मरने की कगार पर थे. उनकी आंखें हमेशा के लिए बंद हो रही थीं. उस ब्लास्ट में 15 लोग मारे गए थे. मरने वालों की इस गिनती में राजीव गांधी का नाम भी शामिल था. जब सोनिया गांधी को फोन पर मालूम चला, तो वो जोर-जोर से चीखने लगीं. उनको अस्थमा का अटैक आया. न राहुल उतने बड़े थे और न प्रियंका ही इतनी बड़ी थीं. प्रियंका महज 19 साल की थीं और राहुल 17 के थे.
कभी-कभी लगता है कि क्या हर बार चुनावी रैली के दौरान लोगों से मिलते समय राहुल के दिमाग में अपने पिता का ख्याल नहीं आता होगा.
उस पल का हाल पढ़कर हलक सूख जाता है
वहां मौजूद लोगों ने कई बार कहानी सुनाई है उस दिन की. कि कैसे उन्होंने लोगों के शरीर को जलते देखा. कि कैसे उनके ऊपर खून का फव्वारा आकर गिरा. कि कैसे लोगों का शरीर मांस के लोथड़ों में तब्दील होकर चारों ओर बिखर गया था. जी के मुपनार ने उस दिन के बारे में लिखा है. उनके शब्द हैं:
लोग दौड़ने लगे. मेरे सामने लाशें पड़ी थीं. उधड़ी हुईं. राजीव के सुरक्षा अधिकारी प्रदीप गुप्ता जिंदा थे. उन्होंने मेरी तरफ देखा. कुछ बुदबुदाए और उन्होंने मेरे सामने ही दम तोड़ दिया. ऐसा लगा मानो वो राजीव गांधी को किसी के हवाले करना चाह रहे हों. मैंने उनका सिर उठाना चाहा. लेकिन मेरे हाथ में बस मांस और खून ही आया. मैंने तौलिये से उन्हें ढक दिया.
उस दिन जयंती नटराजन भी वहीं मौजूद थीं. वो लिखती हैं:
सारे पुलिसवाले मौके से भाग गए थे. मैं हैरान खड़ी थी. मैं लाशों को देख रही थी. मेरे अंदर उम्मीद जिंदा थी. कि काश, इन लाशों के बीच मुझे राजीव न दिखें. मेरी नजर प्रदीप गुप्ता पर पड़ी. उनके घुटने के पास जमीन की तरफ मुंह किए एक सिर पड़ा था. उसे देखकर मेरे मुंह से निकला. ओह माई गॉड, हि लुक्स लाइक राजीव. (हे भगवान, ये तो राजीव की तरह लग रहा है)
राजनीति अलग चीज है. मगर पिता की मौत और इतनी कड़वी यादें अलग जगह हैं.
राहुल, प्रियंका और सोनिया उस दिन को कभी नहीं भूल सकते
ये हमला लिट्टे ने कराया था. लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम. श्रीलंका के आंतरिक मामलों में हाथ डालना राजीव को बहुत महंगा पड़ा. राजीव कभी राजनीति में नहीं आना चाहते थे. वो अपने परिवार के साथ खुश थे. उनको राजनीति में आना ही नहीं था. संजय गांधी की अचानक मौत न हुई होती, तो वो अपनी छोटी सी प्यारी दुनिया में खुश रहते. शायद कभी पलटकर राजनीति की ओर नहीं देखते. संजय की मौत ने उनकी जिंदगी का रास्ता बदल दिया. रातो-रात. कुछ फर्ज मां के लिए भी थे उनके. मां ने हाथ बढ़ाया था, राजीव को हाथ थामना पड़ा. ये दिन भारत की राजनीति के सबसे अंधेरे दिनों में से एक है. जैसी मौत राजीव को मिली, वैसी मौत के बारे में सुनकर ही इंसान कांप जाएगा. जाहिर है, राहुल को भी अपने पापा का अंत याद होगा. ये 21 मई की तारीख तो शायद वो कभी भूल नहीं पाएंगे. इसके बावजूद अगर राहुल वैसा बर्ताव कर पाते हैं, जैसा उन्होंने भरूच में किया, तो ये बहुत हिम्मत की बात है. बहुत कम ही लोग ऐसी हिम्मत दिखा पाते हैं.
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