(लोकपाल बिल के विशेष संदर्भ में)
( डॉ. शशि तिवारी )
जब तक है शीशे का घर तब तक है टूटने का डर! आज भ्रष्टाचार से कोई भी वर्ग, पद, समुदाय, राजनीतिक पार्टी, समूह अछूता नहीं हैं। भ्रष्टाचार एवं महंगाई सभी के लिए गाल बजाने, अपने एवं अपनी राजनीति को चमकाने के लिए आज एक अचूक हथियार बन गई है। आज पूरा भारत भ्रष्टाचार और महंगाई की बाढ़ से प्लवित हैं। ऐसे में केन्द्र सरकार एक के बाद एक कंपनियों को शासनाधीन नियंत्रण से मुक्त करती जा रही है। तेल कंपनियों से सरकार का नियंत्रण हटते ही महंगाई का जिन्न, भ्रष्टाचार का जिन्न, घपले का जिन्न, मिल निरीह जनता का कत्ल करने में जुटे हुए हैं। ऐसे में केन्द्र अपनी जवाबदेही से किसी भी सूरत में बच नहीं सकता। भारत की जनता को वाकयुद्ध की राजनीति से कोई भी लेना-देना नहीं है। चूंकि मंत्रियों, सांसदों एवं अन्यो को जनता के पैसे से ही वेतन मिलता है तो यहां उनकी व्यक्तिगत् जवाबदेही तो बनती ही हेैं, कम से कम ये लोग जनता से तो नमकहरामी तो न करें। यह एक कटु सत्य है और सत्य को सुनने के लिए एवं समझने के लिए विवेक की आवश्यकता होती है। आखिर जनता किससे अपना दुखड़ा रोये?
यह तो सौ फीसदी तय है कि सरकार कठोर लोकपाल बिल बनाने के मूड में नहीं है। वह अपने अर्थात् राजनीति के माध्यम से नेतागिरी को बचाने, अपनी कौम को सुरक्षित रखने के लिए लाख जतन कर छोटे-छोटे खिड़की - दरवाजे इसमें बनाना चाहती है? यही कारण है कि अभी तक कोई भी राजनीतिक दल लोकपाल के पक्ष में नहीं है। पता नहीं कब शासन करने का मौका मिल जाए, उस समय कहीं ये अपने ही गले का फंदा न बन जाए? भ्रष्टाचार को तो ले भाजपा साथ है लेकिन, लोकपाल बिल पर मौन हैं? आखिर क्यों?
अच्छी बात अगर जनता या सिविल सोसायटी से भी आती है तो सरकार को बिना किसी हिचक के स्वीकार करने में कोई भी आपत्ति नहीं होना चाहिए? आखिर सरकार जनता के लिए ही तो हैं। इससे लोकतंत्र और भी मजबूत होगा? न स्वीकार करने से कई संदेहों का जन्म जनता के बीच में होता है। ये सरकार है या कोई गिरोह? सरकार जनता के लिए है या स्वयं के लिए? भलाई और लाभ जनता का करना है या अपना? लोकतंत्र में सरकारे तो आती-जाती रहती है? किसी भी राजनीतिक पार्टी को इसे अपनी मिल्लकियत समझने की भूल नहीं करना चाहिए?
केन्द्र में विपक्ष के रूप में सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी अभी तक तो भ्रष्टाचार को ले अन्ना के साथ, बाब रामदेव के साथ खड़ी नजर आती है लेकिन, लोकपाल को ले अपनी स्पष्ट राय से बचती ही नजर आई हैं?
संकट की इस घड़ी में भाजपा को अपना राजधर्म, लोकधर्म, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का धर्म निभाना ही चाहिए? चूंकि सभी की नजर एवं आशा अच्छों पर ही होती है। वह इससे बचने के उपाय न खोजे बल्कि डटकर मुकाबला कर जनता का साथ दे। जनता की अदालत में अपना रूख स्पष्ट करें। मसलन प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाना चाहिए या नहीं? लोकपाल की नियुक्ति एवं हटाने की प्रक्रिया में वह अन्ना के साथ है या केन्द्र सरकार के साथ? हकीकत तो यह है आज सभी राजनीतिक दल अपने-अपने नफा एवं नुकसान को तोल रहे है। बात-बात पर जनता की अदालत में जाने की दुहाई देने वाली पार्टियां आज किस तरह मठ्ठ पड़ी हुई हैं, आखिर क्यों?
सभी एक ही बात क्यों नही उठाते कि जिसे भी जनता के धन से किसी भी रूप में एक भी पैसा मिलता हो उसे सभी क्यों न लोकपाल के दायरे में हो?
यह सही है कि लोकपाल में कौन हो और कौन नही हो का फैसला कुछ सिविल सोसायटी के लोग, कुछ चुनिंदा मंत्री न ले बल्कि लोकतांत्रिक ढंग से 121 करोड जनता से जनमत संग्रह कराना ही उचित एवं विधि सम्मत भी होगा। इसके लिए सरकार तरीका कुछ भी अपना सकती है। मसलन चुनाव की तर्ज पर बूथ बनाए जाए वहीं भारतीय नागरिक जा अपना मत व्यक्त करें। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि एक राजनीतिक पार्टी को दूसरे पर भरोसा नहीं है? सिविल सोसायटी को ले ऐका नहीं हैं? जब जनता जनप्रतिनिधि चुन सकती है तो विवादास्पद विधेयक पर अपनी राय क्यों नहीं दे सकती? इसके लिए सभी सांसद अपने-अपने क्षेत्रों में जाए और जनता की मर्जी पूछे। इस प्रक्रिया में समय अवश्य लग सकता है वैसे भी पिछले 42 वर्षों से यह बिल लटका ही है थोडा और सही लेकिन सभी की सहमति विधि सम्मत ही होगी।
इससे बडा मजाक और क्या होगा देश का प्रधानमंत्री कह रहा है कि प्रधानमंत्री को भी इसके दायरे आने में कोई बुराई नहीं है। वहीं मंत्री प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर करने पर क्यों तुले हुए हैं? न्यायपालिका को तो स्वयं आगे बढ़ न्याय के मंदिर की सुचिता को बनाए रखने के लिए एक पुजारी की भांति अग्रसर होना होगा। रहा सवाल सांसदों का, संसद के भीतर के विशेषाधिकार का, तो इसमें संशोधन कर इन्हें भी लेने कोई बुराई नहीं हैं? संसद में नोटो की गड्डीयों का लहराना, माईक, कुर्सी तोडना, फेंकना जैसे शर्मनाक कृत्यों पर न केवल रोक लगेगी बल्कि संविधान भी कलंकित होने से बच जायेगा। 14वीं लोकसभा में यहां आपराधिक रिकार्ड वाले सांसदों की संख्या 128 थी वही 15वीं लोकसभा में बढ़कर 150 हो गई। संसद के भीतर मछली बाजार और किसी अखाड़े से कम न समझ की जाने वाली हरकतों को सारा भारत टी.वी. के माध्यम से देखता हैं। निःसंदेह जिससे संविधान के पवित्र मंदिर में भारत का सिर शर्म से झुकता हैं ऐसे लोग लोकपाल के दायरे से बाहर क्यों हो? वक्त आ गया है साधू के भेष में शैतानों को पहचानना ही होगा। यहां मैं एक बात सभी माननीयों से करना चाहूंगी कि लोकपाल बिल किसी अदालत का केस नहीं है। इसमें किसी की जीत या हार नहीं हैं। इसमें किसी का मान या अभिमान नहीं है। यहां सिर्फ और सिर्फ देश के अंदर संविधान के तहत् कोई भी नियमों से ऊपर नहीं हैं का संदेश पारदर्शिता के साथ देने का ईमानदार प्रयास सभी को सच्चे मन से करना चाहिए। आखिर सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा जो है।
शक्ल अपनी देखने का दम नहीं है आपमें
आईनों को तोड़ना मजबूरियां है आपकी।
( डॉ. शशि तिवारी )
(लेखिका सूचना मंत्र पत्रिका की संपादिका हैं)
मो. 9425677352
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