bhopal // विनोद उपाध्याय
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मध्य प्रदेश सरकार की दोहरी नीति के कारण प्रदेश के जंगल तेजी से खत्म हो रहे हैं। एक तरफ तो सरकार जंगल बचाने और बढ़ाने के लिए हर साल करोड़ों रुपए खर्च कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ इन्हीं जंगलों में खदानों को अनुमति देकर राजस्व कमा रहे हैं। सरकार की इस दोहरी नीति के कारण जंगल पर एक बार फिर माफिया हावी हो गया है। आलम यह है कि प्रदेश में तीन साल के अंदर 33590 हेक्टेयर जंगल की जमीन पर वैध रूप से खदानें खुद गई हैं तो माफियाओं ने सालभर में करीब 40,000 अवैध गड्ढे खोद डाले हैं। इतना ही नहीं इन गड्ढों से लाखों घन फुट पत्थर भी निकाला जा चुका है।
इस बात का खुलासा वन महकमे की जांच रिपोर्ट से होता है। बावजूद इसके वन महकमे ने पूरे मामले पर चुप्पी साध रखी है। हद तो यह है कि जांच रिपोर्ट पर कार्रवाई के बजाय उसे दबा दिया गया है। इस पूरे मामले में चौंकाने वाली बात यह है कि मैदानी अमले की लगातार रिपोर्ट के बाद भी आला अधिकारियों ने जंगल को बचाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए। वन महकमे का यह रवैया माफिया से उसकी मिलीभगत का संकेत देता है। क्योंकि आला अधिकारियों ने जंगल में माफिया की गतिविधियों की रिपोर्ट देने वाले ग्वालियर के डांडा ख़ेड़ा वन चौकी के दो लोगों को निलंबित कर दिया तथा रेंजर को नोटिस थमा दिया। महकमे के उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक जंगल में माफिया की गतिविधियों को लेकर हाल ही में हल्ला मचा तो आला अधिकारियों ने एक टीम गठित कर जंगल में हो रहे अवैध उत्खनन की जांच करने को कहा। इस टीम ने जो रिपोर्ट सौंपी, वह चौंकाने वाली है। रिपोर्ट में टीम ने अकेले ग्वालियर वन मंडल में करीब 3700 अवैध गड्ढे पाये।
इन गड्ढों से लाखों घन फुट पत्थर भी निकाला गया है। इस दौरान सबसे ज्यादा अवैध उत्खनन ग्वालियर के घाटीगांव (उत्तर) रेंज में मिला है। इसके अलावा माफिया के दूसरे निशाने पर रहा सोनचिरैया अभयारण्य क्षेत्र रहा। इस क्षेत्र से भी जांच टीम को सैकड़ों गड्ढे मिले हैं। ऐसे में सवाल यह है कि जंगल कैसे बचेंगे और बढ़ेंगे? आज स्थिति यह है कि प्रदेश के जंगल गंजे होते जा रहे हैं। सख्त वन नीति के बाद वन भूमि तो नहीं घट रही है लेकिन सघन वन तेजी से विरल वनों में तब्दील हो रहे हैं। वर्ष 1995 तक यहां प्रति हेक्टेयर 52 घनमीटर जंगल की जगह 2005 में 41 घनमीटर ही रह गया और एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में यह 35 घनमीटर हो गया है। 31 फीसदी जमीन पर जंगल की हकीकत सिर्फ कागजों पर ही है।
प्रदेश के 95 लाख हेक्टेयर वन भूमि में से मात्र सात फीसदी वन ही ऐसे बचे हैं जिन्हें सघन जंगल की श्रेणी में शुमार किया जा सकता है। 50 लाख हेक्टेयर से ज्यादा वन भूमि पर वन के नाम पर सिर्फ बंजर जमीन या उजड़ा जंगल बचा है। सत्रह लाख हेक्टेयर वन भूमि तो बिल्कुल खत्म हो चुकी है। 38 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर दोबारा जंगल खड़ा करने के लिए 35 हजार करोड़ की रकम और बीस साल के वक्त की दरकार है लेकिन न तो रकम है और न इच्छाशक्ति। वन भूमि पर बढ़ते आबादी के दबाव के चलते जंगल तेजी से सिकुड़ रहे हैं। प्रदेश में तीन साल यानी (2008-09 से 2010-11 के बीच 369 खदानों के लिए 33590 हेक्टेयर जंगल की जमीन परिवर्तित कर दी गई यानी हर साल जंगलों की 11 हजार 196 हेक्टेयर भूमि पर औसतन 123 खदानें शुरू की गईं। जबकि इन्हीं 3 सालों में प्रदेश शासन ने जंगलों के विकास और वन्य गतिविधियों के लिए 15 योजनाओं पर 61966.80 लाख रुपए खर्च किए हैं। यही नहीं, केंद्र सरकार (केंद्र प्रवर्तित योजनाओं के तहत) ने भी प्रदेश के जंगलों के विकास, संरक्षण और प्रबंध आदि मदों के लिए इस अवधि में 60496.25 लाख रुपए आवंटित किए।
इसमें से भी मप्र शासन ने 12126.96 लाख रुपए खर्च किए हैं। इसके बावजूद अब इन्हीं जंगलों को खदानों के लिए नष्ट किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि 1956 में जब मध्य प्रदेश बना था तो 1 लाख 91 हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में जंगल पसरे थे लेकिन 1990 तक जंगल की साठ हजार वर्ग किलोमीटर भूमि (लगभग साठ लाख हेक्टेयर जमीन) बांट दी गई। इसके बाद बचे कोई 1 लाख 30 हजार वर्ग किलोमीटर जंगल में से मध्य प्रदेश में 94 हजार 689 वर्ग किलोमीटर वन भूमि बची है। 1995 तक जहां प्रति हेक्टेयर 52 घनमीटर जंगल था वहीं 2005 में यह घटकर 41 घनमीटर रह गया। अगली रपट में यह कितना घटेगा यह सोचकर ही वन अफसर घबरा रहे हैं। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी मध्य प्रदेश में जंगलों में प्रबंधन की कमी का रोना रोया लेकिन प्रबंधन के लिए जरूरी धन के नाम पर वह बगलें झांकते दिखे।
मध्य प्रदेश में कायदे से कुल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में साढ़े तीन फीसदी की भागीदारी जंगल की होनी चाहिए लेकिन यह 2.37 फीसदी है। जबकि वनों को सहेजने के लिए मिलने वाली रकम 0.03 से 0.09 फीसदी के बीच ही होती है। 35 हजार करोड़ की जरूरत है पर हर साल दो सौ से सवा दो सौ करोड़ से ज्यादा राशि वन संरक्षण और संवर्द्धन पर खर्च हो रही है। इसमें केंद्र की हिस्सेदारी 25 से 30 करोड़ की ही है। सबसे बड़ी चुनौती तो जंगलों पर पड़ते आबादी के दबाव को रोकने और बिगड़े वनों को उनकी गरिमा वापस लौटाने की है। लेकिन यह काम कैसे हो? मध्य प्रदेश के वन विभाग के अधिकारी कहते हैं, बिगड़े वनों को सुधारने के लिए प्रति हेक्टेयर साठ से सत्तर हजार रुपए का खर्च आता है लेकिन पचास लाख हेक्टेयर जमीन को फिर पेड़ों से ढंकना हो तो सैकड़ों अरब खर्च होंगे।
इतनी रकम भला कहां से मिलेगी? कौन देगा इसको? जंगलों पर सरकारी परियोजनाओं के नाम पर जो प्रहार हो रहे हैं, उसकी जगह नए जंगल लगाने (क्षतिपूर्ति वनीकरण) के नाम जमा रकम भी केंद्र सरकार राज्य को देने में आनाकानी करती है। केंद्र के पास मध्य प्रदेश का 800 करोड़ जमा है लेकिन बार-बार किए आग्रह के बावजूद उसने मात्र 53 करोड़ रुपए ही दिए हैं। जंगलों के रखरखाव के नाम पर बीते साल के दौरान तो केंद्र ने फूटी कौड़ी तक नहीं दी। इसके पहले के दो सालों में उसने क्रमश: 23 और 25 करोड़ रुपए ही दिए हैं। जहां तक राज्य के वन विभाग की कमाई का सवाल है तो उसकी सालाना कमाई मात्र एक हजार करोड़ रुपए के आसपास ही है। अब ऐसे में जंगल कहां से बढ़ेंगे और कैसे बढ़ेंगे? मध्य प्रदेश को केंद्र सरकार ने हाल ही में तीन साला बुंदेलखंड पैकेज के नाम छह जिलों के बिगड़े वनों को सुधारने के नाम पर 107 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं।
इलाके के वन क्षेत्र की जरूरत के हिसाब से देखा जाए तो यह रकम मात्र बारह हजार रुपए प्रति हेक्टेयर बैठती है। बुंदेलखंड के हालात सबसे ज्यादा भयावह हैं। इस इलाके के छह जिलों में कोई 11 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में से सत्तर से अस्सी फीसदी वन बिगड़े हुए हैं। वहां न तो जंगलों की सुरक्षा के चाक-चौबंद प्रबंध हैं और न जंगलों को सहेजने लायक पानी है। वन विभाग के एक आला अफसर की माने तो बुंदेलखंड के हालात तो प्रदेश के आदिवासी जिलों से भी ज्यादा बुरे हैं। संयुक्त वन प्रबंधन और वन विकास अभिकरण के अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक रवींद्र नारायण सक्सेना भी मानते हैं कि बुंदेलखंड पैकेज के तहत मिली रकम इलाके के सूरते हाल के लिहाज से नाकाफी है लेकिन फिर भी जो पैसा मिला है उसका अधिकतम इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है। जंगलों को बचाने के लिए भी हमने वनवासियों की आर्थिक सेहत सुधारने की योजनाएं जमीन पर उतारी हैं। जंगलों की कटाई की समस्या सिर्फ बुंदेलखंड की नहीं है।
प्रदेश की जीवनरेखा नर्मदा नदी के किनारे जंगलों का बेरहमी से कत्लेआम हुआ है। वन माफिया सरेआम बुधनी के जंगलों को नंगा कर रहे हैं। रातोरात नर्मदा नदी में ही नाव के सहारे यह लकड़ी होशंगाबाद की ओर आरा मशीनों पर पहुँचाई जाती है। एक तरफ जंगल कट रहे हैं तो दूसरी ओर सवाल वनीकरण के दौरान लगे पौधों को बचाने का भी है। भोपाल जैसे शहर में तो नब्बे फीसदी तक नए पौधे जीवित रह जाते हैं लेकिन जंगलों में तो पेड़ों की बचे रहने की दर बीस फीसदी भी नहीं है। इसी के चलते 2009 में जारी स्टेट ऑफ रिपोर्ट में भोपाल को छोडक़र प्रदेश के किसी भी इलाके में जंगल नहीं बढ़े। भोपाल को छोडक़र प्रदेश के किसी भी इलाके में जंगल नहीं बढ़े। भोपाल में भी यह मात्र डेढ़ फीसदी ही बढ़ा है लेकिन यह वन भूमि पर बढ़ी हरियाली के आंकड़े नहीं है बल्कि शहर के आसपास और झील किनारों पर किए गए वृक्षारोपण के आंकड़ें हैं।
वन विभाग के एक अफसर स्वदेश बाघमारे कहते हैं कि प्रदेश में असली जंगल सात-आठ फीसदी से ज्यादा नहीं बचे हैं। लेकिन भोपाल में राजधानी परियोजना क्षेत्र के मुख्य वन संरक्षक अतुल श्रीवास्तव आंकड़ों के पचड़े में पडऩे के बजाए कहते हैं, वनों के हालात चिंतनीय है लेकिन आबादी का दबाव कम किए बगैर कुछ नहीं हो सकता।’ यह कैसे घटेगा? बिगड़े वन कैसे फिर संवरेंगे इसका पुख्ता हल शायद किसी के पास नहीं है। प्रदेश के वन मंत्री सरताज सिंह का मानना है कि जंगलों की मुख्यत: जो समस्याएं हैं, उनमें पहली तो वनों की अवैध कटाई से जंगलों को हो रहे नुकसान की है। दूसरी चुनौती जंगलों में घुसपैठ और वनभूमि पर अतिक्रमण की तथा तीसरी वन क्षेत्र में अवैध उत्खनन की है। फिर समस्या उन वनवासियों की भी है जो सदियों से जंगलों में रहते आए हैं। सिंह कहते हैं कि यदि वनवासियों को जंगल में ही रोजगार के वैकल्पिक साधन मिल जाएं तो वे वन माफियाओं के कहने पर जंगलों को निशाना नहीं बनाएंगे। यह बात कितनी दुर्भाग्यपूर्ण है कि जंगलों में रहने वाले डेढ़ करोड़ वनवासियों में से आधे के पास राशन कार्ड तक नहीं है। सिंह मानते हैं कि प्रदेश में अवैध कटाई दो तरह से हो रही हैं, एक तो रोजगार की कमी के चलते निस्तारी काम के लिए लकडिय़ां कटती हैं।
यह दिखने में छोटा अपराध लगता है लेकिन जंगलों की तरक्की रोकने में सबसे बड़ी बाधा यही है। वे पेड़ बढऩे के पहले ही काट देते हैं। लेकिन वन माफिया द्वारा कराई जा रही कटाई भी कम गंभीर नहीं है। सिंह का दावा है कि उनके द्वारा विभाग की कमान संभालने के बात संगठित वन अपराधियों के खिलाफ बरती गई सख्ती के कारगर नतीजे सामने आए हैं। अकेले वर्ष 2010 के दौरान लकड़ी के अवैध परिवहन में प्रयुक्त 600 गाडिय़ां जब्त की गईं इनमें से 275 गाडिय़ों को विभाग ने कब्जे में ले लिया है। इस मिलीभगत में लिप्त जंगल महकमें के कर्मचारियों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई भी की गई है। इससे पहली बार वन कर्मियों और वन माफियाओं के बीच यह संदेश गया है कि यदि वे पकड़े गए तो उनकी कहीं सुनवाई नहीं होने वाली।
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