बैतूल। हमारे देश में असंभव समझे जाने वाले तथा एक आवश्यक बुराई का रूप धारण कर चुके भ्रष्टाचार के विरूद्ध खड़े हुए आन्दोलन को व्यापक जनसमर्थन मिला। इस बीच न्यायिक अधिकारियों की जिम्मेदारी कौन तय करेगा? जैसे सवाल भी उठे। न्यायिक अधिकारियों को लोक पाल के दायरे में लाया जाय अथवा नही इस पर बसह होती रही। यह बहस ठीक उसी तरह थी कि आखिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? इस बहस में एक वर्ग वह था जो मानता था कि न्यायिक अधिकारियों को लोक पाल के दायरे के बाहर रखा जाना चाहिए। दूसरा वर्ग वह था कि जो न्यायिक अधिकारियों को लोक पाल के दायरें में रखे जाने की पैरवी कर रहा था। इन सवालों से यह तो निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता हैं कि न्याय व्यवस्था से असंतुष्टों की संख्या कम नहीं हैं। देश की शीर्ष अदालतों में लम्बित मामलों की संख्या में लगातार वृद्धि ने न्यायिक अधिकारियों की योग्यता पर सवाल खड़ा कर दिया हैं।
जबकि कानून और न्याय का मूल उद्देश्य मुकदमों की संख्या में कमी लाना हैं। एक दूसरी समस्या कानून और न्याय से जुड़ी हुई हमारे सामने आती हैं कि प्रतिभाशाली अधिवक्ता बड़ी संख्या में वकालत के पेशे को छोडक़र दूसरे कारोबार की ओर रूख कर रहे हैं, जिसका कानून और न्याय से कोई संबंध ही नही हैं। आखिर ऐसा क्यों हो रहा हैं? न्यायिक अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे है, न्यायालय के फैसलो से असंतुष्टों की संख्या बढ़ रही है और प्रतिभाशाली अधिवक्ता वकालत के पेशे को छोड़ रहे हैं?
न्याय व्यवस्था पर लग रहे आक्षेप न्यायिक अधिकारियों की योग्यता और आचरण से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं। इससे न्यायिक सेवाओं में भर्ती प्रक्रिया के मापदण्डों पर ही सवाल उठ जाता है जिस पर नए सीरे से विचार किए जाने की जरूरत हैं।
भारत की न्यायपालिका में सबसे बड़ी कमी यह रही हैं कि एक लोक सेवक के रूप में आम जनता की शिकायत सुने जाने की कोई संस्थागत व्यवस्था विद्वान न्यायधीशों ने कभी नही रखी। अगर किसी न्यायिक अधिकारी के फैसले से कोई नागरिक असंतुष्ट हैं तो उसे उच्चतर न्यायालय में केवल अपील का ही अधिकार है, शिकायत का अधिकार नही है। इतना ही नही न्यायालय पटल पर भ्रष्टाचार विरोधी बोर्ड तक नही लगवाए गए। न्यायालय अवमान कानून के चलते न्याय व्यवस्था में व्याप्त अव्यवस्था और भ्रष्टाचार को देखा तो जा सकता है लेकिन कोई विधिक पत्रकार आवाज नही उठा सकता। इसके पीछे सीधा एक संदेश छुपा हुआ है कि न्यायपालिका में कोई अव्यवस्था और भ्रष्टाचार नही है। न्यायपालिका, कानून और न्याय के सिद्धांतो पर ही चलती हैं। इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि लोकपाल के दायरे में न्यायिक अधिकारियों को लाये जाने की मांग उठ गई जो कि जायज लगती है।
भारत का समाज परंपरावादी रहा हैं जिसमें परंपरा से हटकर प्रगतिशील प्रयोग बहुत ही कम होते हैं। न्याय व्यवस्था को लेकर एक प्रयोग किया जाए जिसमें परंपरा से हटकर सभी न्यायालयों में जन शिकायत निवारण प्रकोष्ठ का गठन कर दिया जाए और एक जनसम्पर्क अधिकारी की नियुक्ति कर दी जाए, तो भला क्या होगा? भारत का नागरिक सबसे पहले सामना, तहसील न्यायालय से जिला न्यायालय और फिर उच्चतर न्यायालय का सामना करता है। एक आम आदमी जब न्यायिक प्रक्रिया का सामना करते हुए उच्चतर न्यायालय का सफर तय करता है तो उसे भी समझ में आ जाता है कि दोष रहित समझी जाने वाली न्याय व्यवस्था में दोष कहंा पर किस जगह पर हैं और न्यायिक अधिकारी इस अव्यवस्था के लिए किस हद तक जिम्मेदार हैं?
आखिर इस न्याय अव्यवस्था का खामियाजा किस तरह एक आम आदमी को भुगतना पड़ता है? अगर किसी नागरिक को देश की सबसे बड़ी अदालत से न्याय मिलता है तो इसका दूसरा मतलब यह हैं कि उस व्यक्ति ने कई वर्षो के एक लम्बे इंतजार के साथ ही एक बड़ी धन राशि इस न्याय को पाने के लिए खर्च कर दी। एैसा व्यक्ति अदालत के एक के बाद दूसरी आदलत के फैसलो और आदेश पत्रिकाओं को पढ़ते हुए वह कानून और न्याय के बुनियादी सिद्धांतो और प्रक्रिया को समझता हुआ विधिक साक्षरता का दर्जा प्राप्त कर लेता हैं। देश की सबसे बड़ी अदालत से न्याय प्राप्त करने के बाद भी इस व्यक्ति के मानस में निचली अदालतों को लेकर कई सवाल होते है जिसका कि जवाब उसे कभी नही मिलता है। लेकिन एैसे व्यक्ति की शिकायते न्याय व्यवस्था में सुधार ला सकती हैं। न्याय व्यवस्था में यह प्रयोग क्रांतिकारी साबित होगा।
देश के विद्वान न्यायधीशों ने किसी न्यायिक अधिकारी के विरूद्ध उसके अपने फैसलो को लेकर शिकायत सुने जाने की और सार्वजनिक किए जाने की कोई लोक व्यवस्था किसी असंतुष्ट नागरिक के लिए कभी नही करी हैं। न्याय व्यवस्था को लेकर जन सुनवाई की जाने लगे तो एक न्यायिक अधिकारी हजारो सवालो से घिर जायेगा। लोक तंत्र में न्यायिक अधिकारी एक लोक सेवक हैं और असंतुष्ट नागरिको को शिकायत करने का लोकतांत्रिक अधिकार है।
शिकायत भ्रष्टाचार को लेकर या फिर फैसले को लेकर हो सकती है जिसे सुने जाने की लोक तांत्रिक व्यवस्था आम आदमी की आसान पहुंच में होनी चाहिए। इसके लिए भारत के मुख्य न्यायधीश को जोखिम उठाने का साहस दिखाते हुए क्रांतिकारी पहल करनी चाहिए। अगर एैसा हो जाता हैं तो आम आदमी जो न्याय व्यवस्था से असंतुष्ट है, के भला सवाल या शिकायत क्या होगी? तहसील न्यायालय जिसे राजस्व न्यायालय भी कहते हैं को लेकर पहला सवाल तो यही होगा कि हमे राजस्व न्यायालय की भला आवश्यकता ही क्या हैं? राजस्व अधिकारी विधि स्नातक तो होते ही नही है और कानून और न्याय के बुनियादी सिद्धांतो को कभी पढ़ा और जाना ही नही है तब फिर हमारे विद्वान अधिवक्ता इनके सामने पैरवी क्यों करते हैं? इसके बाद भी राजस्व अधिकारियों को न्यायिक अधिकारी जैसा संरक्षण देने की क्या आवश्यकता है? राजस्व न्यायलयों के फैसले सिविल कोर्ट में जाकर पलट ही क्यों जाते हैं? राजस्व न्यायालयों को लेकर आम आदमी की शिकायत भ्रष्टाचार और समय की बरबादी को लेकर जुड़ी हुई हैं, जिसे कभी लोकतांत्रिक व्यवस्था के जरिए सुना नही गया है।
न्यायिक अधिकारियों को लेकर आम आदमी की जुबान से एक सवाल अक्सर न्यायालय परिसर में सुना जा सकता हैं कि हाई कोर्ट के वकील सहाब बताते हैं कि बेंच अच्छी नही चल रही है इसलिए तारीख बढ़वा लेंगे? आजकल तो जमानत केवल हाई कोर्ट से ही होती है? सहाब कहते है कि इस केस में हम लोग हाई कोर्ट से ही अपील में छूटेंगे? चार्ज के विरूद्ध हाईकोर्ट अपील करनी पड़ेगी निचली अदालत चार्ज पर नही छोड़ती हैं? महिलाओं को भी जमानत के लिए हाई कोर्ट जाना पड़ता है मजिस्ट्रेट सहाब प्रकरण की परिस्थितियां गंभीर बताकर खारिज कर देते है? जो अदालत सजा सुना सकती है वही अदालत जमानत क्यों नही दे सकती हैं? साक्ष्य के मूल्यांकन में विधि एवं तथ्यों की भूल क्यों होती है? न्याय अव्यवस्था के विरूद्ध विधिक पत्रकारिता क्यों नही होती? इस तरह के सवाल न्यायिक अधिकारियों की योग्यता पर सीधा प्रहार करते है। इन सवालों का सीधा संबंध लोक सेवको की भर्ती के मापदण्ड़ो से जुड़ा हुआ है।
प्रशासनिक अधिकारियों और न्यायिक अधिकारियों की भर्ती के मापदण्ड लगभग एक जैसे ही है। पहले प्रारंभिक परीक्षा फिर मुख्य परीक्षा के बाद साक्षात्कार होता हैं। न्यायिक अधिकारियों की परीक्षा हाईकोर्ट आयोजित करती है लेकिन मापदण्ड एक जैसे ही बने हुए हैं। सारभूत रूप से देखा जाये तो परीक्षा स्तर में एक वकील का सामान्य ज्ञान, विधिक ज्ञान का परीक्षण किया जाता हैं।
न्यायपालिका पर लग रहे आक्षेप को ध्यान में रखा जाए तो इस व्यवस्था ने न्यायपालिका को एैसे न्यायिक अधिकारी दिए है जिनके पास इन्फारमेंशन, सूचनाएं तो बहुत है लेकिन विजडम याने पाण्डित्य बहुत कम दिखाई पड़ता हैं। ये लोक सेवक विधि स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद किसी महंगी कोचिंग क्लास में जाकर दो तीन वर्ष पढ़ाई करते है जिसमें उन्हे यह सिखाया जाता हैं कि प्रतियोगी परीक्षा में सर्वाधिक अंक किस तरह से प्राप्त किये जाते हैं? इस प्रक्रिया में उनके विधिक पाण्डित्य या विजडम का आकलन किया जाना संभव नही है। इस परीक्षा प्रणाली से गुजर कर बना न्यायिक अधिकारी अदलत के बाबूओं के भरोसे होता हैं जिन्हे इतना तो आता ही हैं कि आदेश में क्या लिखा जाना चाहिए? अगर अपील स्वीकार करनी हो तो आदेश उस तरह से बाबू सहाब खुद लिख देते हैं और अस्वीकार करना हो तो बाबू सहाब को मालूम हैं कि सुप्रिम कोर्ट के कौन कौन से फैसलों का हवाला देकर खारीज करना हैं। इसका परिणाम आम आदमी भुगत रहा है।
किसी अधिवक्ता की योग्यता का आकलन कैसे किया जा सकता हैं? इसका जवाब बिलकुल सीधा हैं। प्रतिपरीक्षण की कला ही अधिवक्ता की विधिक योग्यता का सही पैमाना हैं। प्रतिपरीक्षण की कला का विकास विधि के ज्ञान और अनुभव से होता हैं। इसे किसी कोचिंग क्लास में नही सिखाया जा सकता। प्रतिपरीक्षण की कला में निपुण अधिवक्ता से विधि एवं तथ्यों की भूल संभव ही नही हैं। प्रतिपरीक्षण की कला में निपुण अधिवक्ता ही सही मायने में न्यायधीश बनने योग्य होता हैं। सबसे बड़ी बात तो यह हैं कि प्रतिपरीक्षण की कला को साक्षात्कार से भी नही आंका जा सकता। इसके लिए तो मुकदमों में पैरवी को ही आधार बनाया जा सकता है। प्रतिपरीक्षण की कला को आधार बनाकर न्यायिक अधिकारी का चयन किया जाएगा तो इसका लाभ न्यायपालिका को मिलेगा। हमारी व्यवस्था में विद्वान न्यायधीश निचली अदालतो में भी होगे और आम नागरिको को उनके फैसलों से संतुष्टि मिल सकेगी जिससे मुकदमों की संख्या में कमी आयेगी।
न्यायिक सेवाओं में भर्ती के मापदण्डों को बदलते हुए अधिवक्ता की निश्चित संख्या में प्रकरणों की पैरवी एवं प्रतिपरीक्षण की योग्यता का केवलआंकलन किया जाना चाहिए और न कि उससे जुड़े परीणाम को याने की फैसले को नही देखा जाना चाहिए। फैसलों में विधि एवं तथ्यों की भूल हो सकती है। बहुत सारी परिस्थितियॉ एैसी होती है जिसे अधिवक्ता प्रतिरीक्षण में स्थापित करता है और अंतिम बहस के दौरान बड़ी अदालतो की नजीरे पेश करता हैं जिन्हे न्यायिक अधिकारी अपने फैसले में लिखना अपनी मंशा के अनुसार आवश्यक नही समझता है। इसे बड़ी अदालतो में कानून की भाषा में विधि एवं तथ्यों की भूल कहा जाता हैं।
इसतरह प्रतिपरीक्षण की कला और पैरवी से किसी अधिवकता की न्यायधीश हो सकने की योग्यता का पता चलता है। पाण्डित्य, ज्ञान और अनुभव से विकसित होता है। पाण्डित्य को उम्र से जोडक़र देखना सबसे बड़ी भूल आज के समय में हो सकती है। इसलिए न्यायिक अधिकारी के लिए उम्र का बंधन समाप्त किया जाना चाहिए। सेवानिवृत्ति की आयु के बाद वह जितने भी वर्ष निशुल्क सेवा देना चाहे, न्याय व्यवस्था को जनहित में स्वीकार करना चाहिए। इससे विधि की शिक्षा का महत्व बढ़ेगा और अधिवक्ता इस पेशे को कभी नही छोड़ेंगे।
भारत सेन
लेखक पेशे से विधिक पत्रकार है।
9827306273
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