Friday, October 28, 2011

क्रांति का दूसरा नाम शहीद भगत सिंह


Thursday 27 October 2011 सख्‍शियत - आजादी के परवानें
 भारत जब भी अपने आजाद होने पर गर्व महसूस करता है तो उसका सर उन महापुरुषों के लिए हमेशा झुकता है जिन्होंने देश प्रेम की राह में अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। देश के स्वतंत्रता संग्राम में हजारों ऐसे नौजवान भी थे जिन्होंने ताकत के बल पर आजादी दिलाने की ठानी और क्रांतिकारी कहलाए। भारत में जब भी क्रांतिकारियों का नाम लिया जाता है तो सबसे पहला नाम शहीद भगत सिंह का आता है।
शहीद भगत सिंह ने ही देश के नौजवानों में ऊर्जा का ऐसा गुबार भरा कि विदेशी हुकूमत को इनसे डर लगने लगा। हाथ जोड़कर निवेदन करने की जगह लोहे से लोहा लेने की आग के साथ आजादी की लड़ाई में कूदने वाले भगत सिंह की दिलेरी की कहानियां आज भी हमारे अंदर देशभक्ति की आग जलाती हैं। माना जाता है अगर उस समय देश के बड़े नेताओं ने भी भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों का सहयोग किया होता तो देश वक्त से पहले आजाद हो जाता और तब शायद हम और अधिक गर्व महसूस करते। लेकिन देश के एक नौजवान क्रांतिकारी को अंग्रेजों ने फांसी की सजा दे दी। लेकिन मरने के बाद भी भगत सिंह मरे नहीं। आज के नेताओं में जहां हम हमेशा छल और कपट की भावना देखते हैं जो मुंबई हमलों के बाद भी अपना स्वाभिमान और गुस्से को ताक पर रख कर बैठे हैं, उनके लिए भगत सिंह एक आदर्श शख्सियत हैं जिनसे उन्हें सीख लेनी चाहिए।

भगतसिंह का जीवन
 

भारत की आजादी के इतिहास में अमर शहीद भगत सिंह का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। भगतसिंह का जन्म 28 सितम्बर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गांव (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ था। भगतसिंह के पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम सरदारनी विद्यावती कौर था। उनके पिता और उनके दो चाचा अजीत सिंह तथा स्वर्ण सिंह भी अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई का एक हिस्सा थे। जिस समय भगत सिंह का जन्म हुआ उस समय ही उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया था। भगतसिंह की दादी ने बच्चे का नाम भागां वाला (अच्छे भाग्य वाला) रखा। बाद में उन्हें भगतसिंह कहा जाने लगा. एक देशभक्त परिवार में जन्म लेने की वजह से ही भगतसिंह को देशभक्ति का पाठ विरासत के तौर पर मिला। 


भगतसिंह का बचपन
 

भगतसिंह जब चार-पांच वर्ष के हुए तो उन्हें गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिला दिलाया गया। भगतसिंह अपने दोस्तों के बीच बहुत लोकप्रिय थे। उन्हें स्कूल की चारदीवारी में बैठना अच्छा नहीं लगता था बल्कि उनका मन तो हमेशा खुले मैदानों में ही लगता था।

भगतसिंह की शिक्षा
प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के पश्चात भगतसिंह को 1916-17 में लाहौर के डीएवी स्कूल में दाखिला दिलाया गया। वहां उनका संपर्क लाला लाजपतराय और अम्बा प्रसाद जैसे देशभक्तों से हुआ। 1919 में “रॉलेट एक्ट” के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग काण्ड हुआ।

गांधीजी का असहयोग आंदोलन
 

1920 के महात्मा गांधी के “असहयोग आंदोलन” से प्रभावित होकर 1921 में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया। असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए लाला लाजपतराय ने लाहौर में नेशनल कॉलेज की स्थापना की थी। इसी कॉलेज में भगतसिंह ने भी प्रवेश लिया। पंजाब नेशनल कॉलेज में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी। इसी कॉलेज में ही उनका यशपाल, भगवती चरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था। इसी क्लब के माध्यम से भगतसिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया।

1923 में जब बड़े भाई की मृत्यु के बाद उन पर शादी करने का दबाव डाला गया तो वह घर से भाग गए। इसी दौरान उन्होंने दिल्ली में ‘अर्जुन’ के सम्पादकीय विभाग में ‘अर्जुन सिंह’ के नाम से कुछ समय काम किया और अपने को ‘नौजवान भारत सभा’ से भी सम्बद्ध रखा।

चन्द्रशेखर आजाद से संपर्क
 

वर्ष 1924 में उन्होंने कानपुर में दैनिक पत्र प्रताप के संचालक गणेश शंकर विद्यार्थी से भेंट की. इस भेंट के माध्यम से वे बटुकेश्वर दत्त और चन्द्रशेखर आजाद के संपर्क में आए। चन्द्रशेखर आजाद के प्रभाव से भगतसिंह पूर्णतरू क्रांतिकारी बन गए. चन्द्रशेखर आजाद भगतसिंह को सबसे काबिल और अपना प्रिय मानते थे। दोनों ने मिलकर कई मौकों पर अंग्रेजों की नाक में दम किया. भगतसिंह ने लाहौर में 1926 में नौजवान भारत सभा का गठन किया। यह सभा धर्मनिरपेक्ष संस्था थी तथा इसके प्रत्येक सदस्य को सौगन्ध लेनी पड़ती थी कि वह देश के हितों को अपनी जाति तथा अपने धर्म के हितों से बढकर मानेगा। लेकिन मई 1930 में इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया। 


साण्डर्स की हत्या 

वर्ष 1919 से लागू शासन सुधार अधिनियमों की जांच के लिए फरवरी 1928 में “साइमन कमीशन” मुम्बई पहुंचा। देशभर में साइमन कमीशन का विरोध हुआ। 30 अक्टूबर, 1928 को कमीशन लाहौर पहुंचा। लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक जुलूस कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहा था, जिसमें भीड़ बढ़ती जा रही थी। इतनी अधिक भीड़ और उनका विरोध देख सहायक अधीक्षक साण्डर्स ने शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया। इस लाठी चार्ज में लाला लाजपतराय बुरी तरह घायल हो गए जिसकी वजह से 17 नवम्बर, 1928 को लालाजी का देहान्त हो गया। 


चूंकि लाला लाजपतराय भगतसिंह के आदर्श पुरुषों में से एक थे इसलिए उन्होंने उनकी मृत्यु का बदला लेने की ठान ली। लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, आजाद और जयगोपाल को यह कार्य दिया। क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिया. साण्डर्स की हत्या ने भगतसिंह को पूरे देश में एक क्रांतिकारी की पहचान दिला दी।

लेकिन इससे अंग्रेजी सरकार बुरी तरह बौखला गई. हालात ऐसे हो गए कि सिख होने के बाद भी भगतसिंह को केश और दाढ़ी काटनी पड़ी। लेकिन मजा तो तब आया जब उन्होंने अलग वेश बनाकर अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकी।

असेंबली में बम धमाका
 

उन्हीं दिनों अंग्रेज सरकार दिल्ली की असेंबली में पब्लिक ‘सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ लाने की तैयारी में थी। ये बहुत ही दमनकारी कानून थे और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को कानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए।

लेकिन चंद्रशेखर आजाद और उनके साथियों को यह हरगिज मंजूर नहीं था। सो उन्होने निर्णय लिया कि वह इसके विरोध में संसद में एक धमाका करेंगे जिससे बहरी हो चुकी अंग्रेज सरकार को उनकी आवाज सुनाई दे। इस काम के लिए भगतसिंह के साथ बटुकेश्वर दत्त को कार्य सौंपा गया। 8 अप्रैल, 1929 के दिन जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंका। भगतसिंह ने नारा लगाया इन्कलाब जिन्दाबाद.... साम्राज्यवाद का नाश हो, इसी के साथ अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें अंग्रेजी साम्राजयवाद के प्रति आम जनता का रोष प्रकट किया गया था। इसके पश्चात क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला. भगत सिंह और बटुकेर्श्वर दत्त को आजीवन कारावास मिला।

भगत सिंह और उनके साथियों पर ‘लाहौर षडयंत्र’ का मुकदमा भी जेल में रहते ही चला। भागे हुए क्रांतिकारियों में प्रमुख राजगुरु पूना से गिरफ्तार करके लाए गए। अंत में अदालत ने वही फैसला दिया, जिसकी पहले से ही उम्मीद थी।

अदालत ने भगतसिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 तथा 6 एफ तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया तथा 7 अक्टूबर, 1930 को 68 पृष्ठीय निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मृत्युदंड की सजा मिली।

23 मार्च, 1931 की रात
 

23 मार्च, 1931 की मध्यरात्रि को अंग्रेजी हुकूमत ने भारत के तीन सपूतों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटका दिया था। अदालती आदेश के मुताबिक भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 24 मार्च 1931 को फांसी लगाई जानी थी, सुबह करीब 8 बजे। लेकिन 23 मार्च 1931 को ही इन तीनों को देर शाम करीब सात बजे फांसी लगा दी गई और शव रिश्तेदारों को न देकर रातों रात ले जाकर व्यास नदी के किनारे जला दिए गए। अंग्रेजों ने भगतसिंह और अन्य क्रांतिकारियों की बढ़ती लोकप्रियता और 24 मार्च को होने वाले संभावित विद्रोह की वजह से 23 मार्च को ही भगतसिंह और अन्य को फांसी दे दी। अंग्रेजों ने भगतसिंह को तो खत्म कर दिया पर वह भगत सिंह के विचारों को खत्म नहीं कर पाए जिसने देश की आजादी की नींव रख दी। आज भी देश में भगतसिंह क्रांति की पहचान हैं।

sabhar - kranti4people.com  

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