- Published on Tuesday, 25 October 2011 02:08
- Written by बीपी गौतम
- SABHAR - भड़ास4मीडिया
साध्वी चिदर्पिता के जीवन में कुछ भी सामान्य नहीं रहा है. इसलिए मुझे
उनके बारे में कुछ जानने की उत्सुकता रहती है और जब भी समय मिलता है, तभी
उनकी आत्मकथा सुनने बैठ जाता हूं। उनके जीवन के बारे में जैसे-जैसे पता
चलता जाता है, वैसे-वैसे उत्सुकता व सवाल और बढ़ते जाते हैं, लेकिन वह
एक-एक सवाल का पूरी ईमानदारी से जवाब देती रहती हैं। प्रत्येक जवाब सुनने
के बाद मेरे दिमाग में विस्फोट से होने लगते हैं। अगर आप इस सबसे अब तक
अनभिज्ञ होंगे, तो यह सब पढ़ कर आप भी स्तब्ध रह ही जायेंगे।
उत्सुकता के क्रम में मैंने कल दोपहर अपनी पत्नी साध्वी चिदर्पिता गौतम
से अचानक पूछ लिया कि स्वामी जी ( उनके गुरू, आध्यात्मिक हस्ती स्वामी
चिन्मयानंद सरस्वती, पूर्व गृह राज्य मंत्री, भारत सरकार) की क्या दिनचर्या
थी, वह धार्मिक और राजनीतिक गतिविधियों में कैसे सामंजस्य बैठाते थे? मेरे
सहज भाव से पूछे गये सवाल का ऐसा जवाब मिलेगा, यह मैंने सोचा भी नहीं था।
स्वामी जी उनके गुरु हैं, लेकिन उनकी छवि को बचाने के लिये, वह पति से झूठ
कैसे बोल देतीं, सो उन्होंने हमेशा की तरह सब कुछ ईमानदारी से ही बताना
शुरू किया। स्वामी जी सुबह चार बजे उठते हैं, दैनिक क्रिया से निवृत होने
के बाद स्नान किये बिना घूमने निकल जाते हैं और वापस आकर नाश्ता करते हैं।
इस पर मैंने पूछा कि आश्रम में तो नित्य प्रार्थना होती है, वह उसमें नहीं
जाते? साध्वी जी ने सकुचाते हुए और न बोलने की जगह सिर हिलाते हुए बताया कि
व्यस्तता के चलते वह प्रार्थना में नहीं जा पाते। मैंने फिर पूछा कि पूजा
कब करते हैं, क्योंकि सन्यास में तो प्रतिज्ञा की जाती है कि मैं ईश्वर
ध्यान के बिना अन्न ग्रहण नहीं करूँगा। इस पर उन्होंने कहा कि मिलने वाले
बहुत लोग पहले से ही रहते हैं, तो देर हो जाती थी, इसीलिए वह पूजा-पाठ नहीं
कर पाते, वह इतने पर भी अपने गुरू महाराज को ही श्रेष्ठ घोषित करने का
प्रयास करती दिख रही थीं। अब मैं अपनी भोली पत्नी को कैसे समझाता कि सुबह
चार बजे उठकर आराम से तैयार होकर और विधिवत पूजा-अर्चना के बाद भी लोगों से
मिलने बैठा जा सकता है, लेकिन उनकी अध्यात्मिक प्रकृति है ही नहीं,
क्योंकि मैंने स्वयं शंकराचार्य जी और अन्य कई बड़े सन्यासियों के साथ
नेताओं को भी अति व्यस्तता के बाद भी पूजा-अर्चना करते देखा व सुना है।
खैर! मेरे मन में उनकी जो छवि थी, वह धुलती जा रही थी और मैं अपलक एक-एक शब्द बड़े ध्यान से सुनता जा रहा था। उन्होंने बताया कि चाय पीने के बाद वह तीन-चार अखबार पढ़ते हैं, इसके बाद घर में काम करने वाले स्कूल के किसी भी कर्मचारी से पूरे शरीर पर तेल से मालिश कराते हैं। मैंने फिर टोका कि किसी भी कर्मचारी से मतलब? तेल लगाने के लिए तो अलग आदमी होते हैं, तो उन्होंने कहा कि वह बहुत सरल हैं और किसी से भी लगवा लेते हैं। यह जानकर तो मैं वास्तव में अचेत वाली अवस्था में पहुंच गया कि वह घर में काम करने वाले छोटे लड़कों के साथ सफाई करने वाली और बर्तन धोने वाली महिलाओं से भी मालिश कराते हैं, साथ ही महिलाओं से ही तेल लगबाने में अधिक रुचि रखते हैं और महिलायें भी तेल लगाने को आतुर रहती हैं, क्योंकि स्वामी जी इनाम भी देते हैं।
इतने बड़े अध्यात्मिक गुरू को महिलाओं से तेल लगवाने में कोई संकोच नहीं है, यह जान कर मैं वास्तव में अभी तक आश्चर्य चकित हूं। अब मेरी उनके प्रति धारणा बदल चुकी थी, सो सवाल भी वैसे ही करने लगा, तो पता चला कि तेल लगवाते समय ही महंगी शराब भी पीते हैं और दिन भर के लिए मस्त हो जाते हैं। मैंने पूछा कि लाकर कौन देता है? इस सवाल पर साध्वी जी ने बताया कि एक महाशय कस्टम विभाग में उनकी सिफारिश पर ही लगाये गये थे, वही विदेश से उनकी पसंद के ब्रांड लाकर देते हैं।
खैर! मेरे मन में उनकी जो छवि थी, वह धुलती जा रही थी और मैं अपलक एक-एक शब्द बड़े ध्यान से सुनता जा रहा था। उन्होंने बताया कि चाय पीने के बाद वह तीन-चार अखबार पढ़ते हैं, इसके बाद घर में काम करने वाले स्कूल के किसी भी कर्मचारी से पूरे शरीर पर तेल से मालिश कराते हैं। मैंने फिर टोका कि किसी भी कर्मचारी से मतलब? तेल लगाने के लिए तो अलग आदमी होते हैं, तो उन्होंने कहा कि वह बहुत सरल हैं और किसी से भी लगवा लेते हैं। यह जानकर तो मैं वास्तव में अचेत वाली अवस्था में पहुंच गया कि वह घर में काम करने वाले छोटे लड़कों के साथ सफाई करने वाली और बर्तन धोने वाली महिलाओं से भी मालिश कराते हैं, साथ ही महिलाओं से ही तेल लगबाने में अधिक रुचि रखते हैं और महिलायें भी तेल लगाने को आतुर रहती हैं, क्योंकि स्वामी जी इनाम भी देते हैं।
इतने बड़े अध्यात्मिक गुरू को महिलाओं से तेल लगवाने में कोई संकोच नहीं है, यह जान कर मैं वास्तव में अभी तक आश्चर्य चकित हूं। अब मेरी उनके प्रति धारणा बदल चुकी थी, सो सवाल भी वैसे ही करने लगा, तो पता चला कि तेल लगवाते समय ही महंगी शराब भी पीते हैं और दिन भर के लिए मस्त हो जाते हैं। मैंने पूछा कि लाकर कौन देता है? इस सवाल पर साध्वी जी ने बताया कि एक महाशय कस्टम विभाग में उनकी सिफारिश पर ही लगाये गये थे, वही विदेश से उनकी पसंद के ब्रांड लाकर देते हैं।
यह जानकारी आश्रम में अंदर काम करने वाले
लगभग सभी कर्मचारियों को भी है, पर उनकी कृपा पर कर्मचारियों की रोजी-रोटी
चलती है, इसलिए कोई किसी से चर्चा तक नहीं करता। मेरे लिए हर जानकारी नई
थी, सो चर्चा बंद करने का मन ही नहीं कर रहा था। मैं हर सवाल के साथ अपनी
उत्सुकता शांत करने के लिए ध्यान से सब सुनता जा रहा था। तेल लगवाते समय
शराब पीते हैं, फिर स्नान करते ही नाश्ता करते हैं और स्कूल या कॉलेज में
बने अपने कार्यालय में जाकर बैठ जाते हैं। दोपहर में लौटकर भोजन करते हैं
और फिर बिस्तर पर लेटने के बाद कोई कर्मचारी महिला या पुरुष उनके पैर दबाता
रहता है और वह सोते रहते हैं। शाम को उठकर फिर चाय पीते हैं और कोई मिलने
वाला हो तो उससे मिलते भी हैं। अधिकांश लोग शाम को ही शराब पीते हैं, इसलिए
मैंने जिज्ञासावश पूछा कि स्वामीजी शराब सुबह क्यों पीते हैं?
अभी और
चौंकना बाकी था, क्योंकि वह शराब सुबह इसलिए पीते हैं कि शाम की चाय के बाद
भांग का गोला गटकते हैं और सुबह तक उसी के नशे में मस्त रहते हैं। भांग
कौन लाकर देता है? जवाब मिला कि बहुत दिन तक जौनपुर के प्रतिनिधि बनारस से
डिब्बा भेजते थे, पर जब से राजनीतिक कद घटा है, तब से उन्होंने भेजना बंद
कर दिया है और शाहजहाँपुर से ही भांग का बना चूर्ण मंगा लेते हैं, जो स्कूल
में काम करने वाला कोई कर्मचारी लाकर दे देता है। इतना सब सुनने के बाद भी
मैं उनसे संध्या पूजन की अपेक्षा अब भी कर रहा था, तभी फिर सवाल किया।
जवाब में फिर वही संकोचपूर्ण न ही मिली। मेरी पत्नी के साथ उन्होंने कभी
कुछ असत्य व्यवहार किया था, इसका मन में गहरा क्षोभ था, पर इसके अतिरिक्त
भी समाज में जो जगह थी, उसको लेकर सकारात्मक भाव था, लेकिन यह सब सुनने के
बाद आध्यात्मिक गुरु के साथ अनेक धार्मिक और शैक्षिक संस्थाओं के अध्यक्ष
और भारत के गृहराज्य मंत्री के दायित्व तक पहुंचने वाली मेरे मन में जो छवि
थी, वह तार-तार हो गयी। मैं यह भी सोच रहा था कि यह तो एक दिन की सामान्य
दिनचर्या ही है, जिसने मेरे दिमाग की चूलें हिला दी हैं। ऐसा व्यक्ति जब
इरादे से कुछ गलत करता होगा, तो मानवता तो आसपास भी नहीं रहती होगी। एक दिन
ऐसा है, तो साल के तीन सौ पैंसठ दिन कैसे होते होंगे? फिर भी ऐसे लोग
आदरणीय हैं।
गाय की खाल में स्वयं को ढक कर ऐसे भेडिय़े करोड़ों मासूमों से
धर्म, आस्था और श्रद्धा के नाम पर स्वयं की पूजा कराते हुए देश और समाज को
लूट रहे हैं। यह सब जान कर क्षण भर के लिए पत्नी पर भी क्रोध आया कि यह सब
जानते-समझते हुए वह चुप क्यूं थी? फिर ध्यान आया कि वह एक भारतीय नारी हैं,
भगवान की तरह पूजने वाले अपने गुरू की, वह कैसे निंदा कर सकती थी? आज मैं
ही कुछ गलत करने लगूं, तो वह मुझे भले ही सौ बार मना करें/रोकें, पर
सार्वजानिक रूप से मेरी निंदा नहीं करेंगी। ....जब यह सोच मन में आयी, तो
उन पर तरस भी आया कि इस सात्विक आत्मा ने कैसे वो सब देखा होगा/सहा होगा?
जो भी हो, पर ईश्वर कृपा ही है, जो वह उस लंका से भी बुरी राक्षसी
साम्राज्य से दूर आ चुकी हैं, जिसका स्वामी रावण से भी बड़ा राक्षस है।
लेखक बी.पी.गौतम स्वतंत्र पत्रकार हैं. अभी हाल में ही साध्वी चिदर्पिता और बीपी गौतम एक दूजे के हुए हैं.
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12 September 2011
पूर्व केन्द्रीय गृहराज्यमंत्री स्वामी चिन्मयानंद को लगा जोर झटका
मुमुक्षु आश्रम की साध्वी चिदर्पिता लापता, लाखों के गहने और जेवरात लेकर फरार मुमुक्षु आश्रम शाहजहांपुर में अनेक शिक्षण संस्थाओं व आश्रम की गतिविधियों से जुड़ी साध्वी चिदर्पिता के आश्रम छोड़कर जाने से शहर में अटकलों का बाजार गर्म है, पूर्व केन्द्रीय गृहराज्यमंत्री व मुमुक्षु आश्रम आश्रम के अधिष्ठाता स्वामी चिन्म्यानंद सरस्वती की शिष्या साध्वी चिदर्पिता बीते लगभग 10 दिनों से अचानक बोरिया बिस्तर समेट कर यहां से चली गई।
क्षेत्र में चर्चा है कि साध्वी बदायूं जनपद की बिल्सी सीट से चुनाव लड़ने का मन बना चुकी है।जिसका विरोध उनके गुरू स्वामी चिन्म्यानंद कर रहे थे, अपनी इसी योजना के अन्र्तगत साध्वी ने बिल्सी विधान सभा क्षेत्र में हजारों पोस्टर व होर्डिग्स जन्माष्टमी की शुभकामनाओं के साथ लगवाये थे। राजनीति को ध्यान में रखते हुए उन्होेंेने कुछ अपने पंूर्व नाम कोमल गुप्ता (साध्वी चोला ग्रहण करने से पूर्व) के नाम से तथा कुछ पोस्टर व होर्डिग्स साध्वी चिदर्पिता के नाम से लगवाये थे, इन पोस्टरों व होर्डिग्स में अपना सम्पर्क सूत्र मुमुक्षु आश्रम शाहजहांपुर छपवाया था, जिससे उनके गुरू काफी क्रोधित हो गये थे, और इसी मुद्दे को लेकर दोनों के बीच कई दिनों तक तकरार होती रही, यह मामला इतना तूल पकड़ा कि वह अपना सामान लेकर यहां से चली गयीं।
कहां गई और कैसे गई यह किसी को नहीं मालूम, चर्चा है कि वह आश्रम का कई करोड़ रूपये लेकर चम्पत हुई हैं जिसमें लाखों रूपये की नकदी व जेवरात है। लाॅ कालेज व शंकर मुमुक्षु विद्यापीठ की प्रधानाचार्या होने के नाते उनके पास काफी नकद पैसा रहता था वह लाॅ कालेज की पदाधिकारी भी थीं। बताया जाता है कि उन्हें कुछ भाजपा व संघ के नेताओ ने आश्वस्त किया हुआ है कि वह उन्हें बिल्सी से भाजपा का पार्टी टिकट दिला देंगे, इधर साध्वी ने गुपचुप बिल्सी विधानसभा क्षेत्र का कईबार दौरा भी किया था।
यह भी सुना जा रहा है कि साध्वी बरेली व बिल्सी के साथ - साथ दिल्ली ़क्षेत्र में आजकल प्रवास कर रही हैं उन्हें यह भय है कि स्वामी चिन्म्यानंद जैसा व्यक्तित्व भाजपा टिकट मिलने में बाधा उत्पन्न कर सकता है, बताया जाता है कि साध्वी ने जिस प्रेस वाले से अपने पोस्टर व होर्डिग्स छपवाये थे, उसका पेमेन्ट न होने से वह भी काफी परेशान है यह प्रेस वाला आश्रम की छपाई का काम करता है जिसे साध्वी अपने देखरेख में करवाती थीं।
साध्वी के फरार हो जाने के बाद जब इस सम्बन्ध में पूर्व केन्द्रीय गृहराज्यमंत्री स्वामी चिन्म्यानंद से सम्पर्क करने का प्रयास किया गया तो उनका मोबाइल निरंतर स्विच आफ चल रहा है। साध्वी के गायब होने की चर्चा पूरे जनपद में है लोग तरह - तरह के कयास लगा रहे है। कितना धन लेकर वह फरार हुई हैं इस बात पर भी अनेक मत है कोई इस रकम को करोड़ो में बता रहे हैं तो कुछ लोग लाखों में बता रहे हैं। साध्वी की इस करतूत से आश्रम के मुख्य अधिष्ठाता स्वामी चिन्म्यानंद सरस्वती काफी सदमें हैं और उन्होंने अपना मोबाइल भी बंद कर रखा है।
उल्लेंखनीय है, कि साध्वी आश्रम द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थाओं में पदाधिकारी होने के साथ - साथ अनेक सामाजिक, सांस्कृृतिक व साहित्यक संस्थाओं से जुड़ी थीं तथा नगर में अनेक आयोजनों में मुख्य अतिथि के रूप में भी भाग लेती थीं। इससे एक ओर जहां आश्रम की शान बढ़ी हुई थी वहीं साध्वी का नाम भी दिनों दिन चमक रहा था, लेकिन उनके इस कृत्य से आश्रम की छवि तो धूमिल हुई ही है साथ में पूर्व केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री स्वामी चिन्मयानंद की साख पर भी बट्टा लग गया है। देखना यह है कि साध्वी अपने लिये बिल्सी सीट से टिकट ले पाती है या नहीं या फिर स्वामी चिन्म्यानंद उनकी राह में कोई रोड़ा अटका सकते हैं।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
upnewslive.com
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विवाह का निर्णय क्यों?
बचपन से ही ईश्वर में अटूट आस्था थी...माँ के साथ लगभग रोज़ शाम को मंदिर
जाती थी...बाद में अकेले भी जाना शुरू कर दिया...जल का लोटा लेकर सुबह
स्कूल जाने के पहले मेरा मंदिर जाना आज भी कुछ को याद है...दक्षिणी दिल्ली
के कुछ-कुछ अमेरिका जैसे माहौल में भी सोमवार के व्रत रखती...इसी बीच माँ
की सहेली ने हरिद्वार में भागवत कथा का आयोजन किया और मुझे माँ के साथ जाने
का अवसर मिला...उसी समय स्वामी चिन्मयानन्द सरस्वती जी से परिचय हुआ...वे
उस समय जौनपुर से सांसद थे...मेरी उम्र लगभग बीस वर्ष थी...घर में सबसे
छोटी और लाडली होने के कारण कुछ ज्यादा ही बचपना था...फिर भी ज्ञान को
परखने लायक समझ दी थी ईश्वर ने...स्वामी जी की सामाजिक और आध्यात्मिक सूझ
ने मुझे प्रभावित किया...मेरे पितृ विहीन जीवन में उनका स्नेह भी
महत्वपूर्ण कारण रहा जिसने मुझे उनसे जोड़ा...उन्हें भी मुझमें अपार
संभावनाएं दिखाई दीं...उन्होंने कहा कि तुम वो बीज हो जो विशाल वटवृक्ष बन
सकता है...वे मुझे सन्यास के लिये मानसिक रूप से तैयार करने लगे...कहा कि
ईश्वर को पाने का सबसे उचित मार्ग यही है कि तुम सन्यास ले लो...लड़की होकर
किसी और नाते से तुम इस जीवन में रह भी नहीं पाओगी...यह सब बातें मन पर
प्रभाव छोड़तीं रहीं...मेरी ईश्वर में प्रगाढ़ आस्था देखकर वे आश्रम में
आयोजित होने वाले अधिकांश अनुष्ठानों में मुझे बैठाते...धीरे-धीरे
आध्यात्मिक रूचि बढ़ती गयी और एक समय आया जब लगा कि यही मेरा जीवन है...मैं
इसके सिवा कुछ और कर ही नहीं सकती...स्वामी जी से मैंने कहा कि अब मैं
सन्यास के लिये मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार हूँ...आप मुझे दीक्षा दे
दीजिये...उन्होंने कहा पहले सन्यास पूर्व दीक्षा होगी, उसके कुछ समय बाद
संन्यास होगा....२००२ में मेरी सन्यास पूर्व दीक्षा हुई और मुझे नाम दिया
गया – साध्वी चिदर्पिता...अब पूजा-पाठ, जप-तप कुछ अधिक बढ़ गया...नित्य
गंगा स्नान और फिर कोई न कोई अनुष्ठान...स्वाध्याय और आश्रम में चलने वाले
कथा-प्रवचन....इसी बीच स्वामी जी ने आदेश दिया कि तुम शाहजहांपुर स्थित
मुमुक्षु आश्रम में रहो.... तुम आगे की पढ़ाई करने के साथ ही वहाँ मेरी आँख
बनकर रहना...कुछ समय वहाँ बिताने के बाद मैं उनकी आँख ही नहीं हाथ भी बन
गयी...मुमुक्षु आश्रम का इतना अभिन्न भाग बन गयी कि लोग आश्रम को मुझसे और
मुझे आश्रम से जानने लगे....इस बीच वहाँ महती विकास कार्य हुए जिनका श्रेय
मेरे कुछ खास किये बिना ही मुझे दे दिया जाता...अब स्वामी शुकदेवानंद पी जी
कॉलेज और उसके साथ के अन्य शिक्षण संस्थानों का बरेली मंडल में नाम
था...आश्रम की व्यवस्था और रमणीयता की प्रशंसा सुनने की मानो आदत सी हो गयी
थी..दूसरे लोगों के साथ स्वामीजी को भी लगने लगा कि इस सब में मेरा ही
सहयोग है...अब उनके लिये मुझे आश्रम से अलग करके देखना असंभव सा हो
गया...इतना असंभव कि प्रमुख स्नान पर्वों पर भी मेरा शाहजहाँपुर छोड़कर
हरिद्वार जाना बंद कर दिया गया...गंगा की बेटी के लिये यह कम दुखदायी नहीं
था पर कर्तव्य ने मुझे संबल दिया....इन वर्षों में जाने कितनी बार मैंने
अपने संन्यास की चर्चा की...उन्होंने हर बार उसे अगले साल पर टाल
दिया...आखिर में उन्होंने संन्यास दीक्षा को हरिद्वार के कुम्भ तक टाल कर
कुछ लंबी राहत ली...मैंने धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की....कुम्भ भी बीत
गया...मेरी बेचैनी बढ़ने लगी...बेचैनी का कारण मेरा बढ़ा हुआ अनुभव भी
था...इस जीवन को पास से देखने और ज्ञानियों के संपर्क में रहने के कारण मैं
जान गयी थी कि स्वामीजी सरस्वती संप्रदाय से हैं और शंकराचार्य परंपरा में
महिलाओं का संन्यास वर्जित है...जो वर्जित है वो कैसे होगा और वर्जित को
करना किस प्रकार श्रेयस्कर होगा मैं समझ नहीं पा रही थी...मैंने सदा से ही
शास्त्रों, परम्पराओं और संस्कृति का आदर किया था....इस सबको भूलकर, गुरु
आदेश पर किसी प्रकार से संन्यास ले भी लेती तो भी शास्त्रोक्त न होने के
कारण स्वयं की ही उसमें सम्पूर्ण आस्था नहीं बन पाती...साथ ही देश के पूज्य
सन्यासी चाहकर भी मुझे कभी मान्यता नहीं दे पाते....और फिर उस मान्यता को
मैं माँगती भी किस अधिकार से?...खुद शास्त्र विमुख होकर उनसे कहती कि आप भी
वही कीजिये? इन्ही सब बातों पर गहन विचार कर मैंने साहसपूर्वक स्वामी जी
से कहा कि आप शायद मुझे कभी संन्यास नहीं दे पायेंगे....अपने मन में चल
रहे मंथन को भी आधार सहित बताया, जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि परम्पराएँ
और वर्जनाएं कभी तो तोड़ी ही जाती हैं...हो सकता है यह तुमसे ही शुरू
हो...संन्यास देना मेरा काम है....इसके लिये जिसे जो समझाना होगा वह मैं
समझाऊंगा...तुम परेशान मत हो...यह कह कर उन्होंने अगली तिथि इलाहबाद कुम्भ
की दी...यह बात होने के बाद हरिद्वार में रूद्र यज्ञ का आयोजन
हुआ...स्वामीजी ने मुझे तैयार होकर यज्ञ में जाने को कहा...मैं
गयी...शास्त्रीय परम्परा को निष्ठा से निभाने वाले आचार्य ने मुझे यज्ञ में
बैठने की अनुमति नहीं दी, जबकि वे मेरा बहुत सम्मान करते थे..स्वामीजी को
पता चला तो उन्होंने आचार्य से कहा कि वो तो शुरु से सारे ही अनुष्ठान
करती रही है...पर वे न माने और स्वामीजी चुप हो गये...उनकी उस चुप्पी पर
मैं स्तब्ध थी...सन्यासी आचार्य से अधिक ज्ञानी होता है...मैंने अपेक्षा की
थी कि स्वामीजी अपने ज्ञान से तर्क देकर उन्हें अपनी बात मनवाएंगे....पर
ऐसा नहीं हुआ...अब मेरा विश्वास डिग गया और लगा कि आचार्य को न समझा पाने
वाले अखाड़ों के समूह को क्या समझा पायेंगे....यज्ञशाला से लौटकर स्वामीजी
ने मेरी व्यथा दूर करने को सांत्वना देते हुए कहा कि दोबारा इन्हें फिर कभी
नहीं बुलाएँगे....पर इससे क्या होता...आचार्य ने तो शास्त्रोक्त बात ही की
थी...उन्होंने जो पढ़ा, वही कह दिया...अब मैं सच में दुखी थी...मुझे समझ
में आ गया था कि इलाहबाद कुम्भ भी यूँ ही बीत जायेगा...मेरे संन्यास के
निर्णय पर माँ के आँसू, भाई-भाभी के स्तब्ध चेहरे आँखों के आगे घूम
गये...लगा, मानो यह धोखा मेरे साथ नहीं, मेरे परिवार के साथ हुआ...ग्यारह
साल का जीवन आज शून्य हो गया था...उसी दौरान मैं गौतम जी के संपर्क में
आयी...उस समय उन्होंने प्रकट नहीं किया पर उनके ह्रदय में मेरे प्रति प्रेम
था...बिना बताये ही मानो वे मेरे जीवन की एक-एक घटना जानते थे...उन्होंने
बिना किसी संकोच के कहा - आप चुनाव लड़िए....मेरा सवाल था कि चुनाव और
संन्यास का क्या सम्बन्ध...तब उन्होंने समझाया कि आपकी सोच आध्यात्मिक
है...आप जहाँ भी रहेंगी यह बनी रहेगी और यह आपके हर काम में दिखेगी...मेरा
विश्वास है कि आपके जैसे लोग राजनीति में आयें तो भारत का उद्धार हो
जायेगा...सन्यास नहीं दे सकते तो कोई बात नहीं, आप स्वामीजी से अपनी चुनाव
लड़ने की इच्छा प्रकट कीजिये...क्षेत्र वगरैह भी उन्होंने ही चुना...पर, यह
इतना आसान नहीं था...अभी जिंदगी के बहुत से रंग देखने बाकी थे.... मेरे
मुँह से यह इच्छा सुनते ही बाबा (स्वामीजी) बजाय मेरा उत्साह बढ़ाने के फट
पड़े...उनके उस रूप को देख कर मैं स्तब्ध थी...उस समय हमारी जो बात हुई
उसका निचोड़ यह निकला कि उन्होंने कभी मेरे लिये कुछ सोचा ही नहीं... उनकी
यही अपेक्षा थी कि मैं गृहिणी न होकर भी गृहिणी की ही तरह आश्रम की देखभाल
करूँ....आगंतुकों के भोजन-पानी की व्यवस्था करूँ और उनकी सेवा
करूँ....आश्रम में या शहर में मेरी जो भी जगह थी, ख्याति थी वो ईश्वर की
कृपा ही थी...ईश्वरीय लौ को छिपाना उनके लिये संभव नहीं हो पाया था....इस
लिहाज़ से जो हो रहा था वही उनके लिये बहुत से अधिक था... तिस पर चुनाव
लड़ने की इच्छा ने उन्हें परेशान कर दिया...उन्होंने मना किया, मैं नहीं
मानी...उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारी टिकट के लिये किसी से नहीं
कहूँगा...पैसे से कोई मदद नहीं करूँगा, तुम्हारी किसी सभा में नहीं जाऊंगा,
यहाँ तक कि मेरी गाड़ी से तुम कहीं नहीं जाओगी....जहाँ जाना को बस से
जाना...मैंने कहा ठीक है...इस पर वे और परेशान हो गये और उन्होंने अपना
निर्णय दिया कि यदि तुम्हें चुनाव लड़ना है तो दोपहर तक आश्रम छोड़
दो....मैंने उनकी बात मानी...मेरा आश्रम छोड़कर जाना वहाँ के लिये बड़ी
घटना थी...दोपहर तक शहर के संभ्रांत लोगों का वहाँ जुटना शुरू हो
गया...स्वामीजी के सामने ही वे कह रहे थे कि यदि आज आश्रम जाना जाता है तो
आपकी वजह से, आपके जाने के बाद यह वापस फिर उसी स्थिति में पहुँच
जायेगा...आप मत जाइये....स्वामीजी ने जाने को कहा है तो क्या, आपने आश्रम
को बहुत दिया है, इस आश्रम पर जितना अधिकार स्वामीजी का है उतना ही आपका भी
है....और भी न जाने क्या-क्या...स्वामीजी यह सब सुनकर सिर झुकाए बैठे
थे...मुँह पर कही इन बातों का खंडन करना भी तो उनकी गरिमा के अनुरूप नहीं
था...मेरे स्वाभिमान ने इनमें से किसी बात का असर मुझ पर नहीं होने दिया और
मैं आश्रम छोड़कर आ गयी....शून्य से जीवन शुरू करना था पर कोई चिंता नहीं
थी...एक मजबूत कंधा मेरे साथ था...श्राद्ध पक्ष खत्म होने तक मैं गौतम जी
के परिवार के साथ रही जहाँ मुझे भरपूर स्नेह मिला...नवरात्र शुरू होते ही
हमने विवाह कर लिया...
विवाह के बाद हज़ारों बधाइयाँ हमारा विश्वास बढ़ा रहीं थीं कि हमने सही कदम उठाया...विरोध का कहीं दूर तक कोई स्वर नहीं...शत्रु-मित्र सब एक स्वर से इस निर्णय की प्रशंसा कर रहे थे...केवल कुछ लोगों ने दबी ज़बान से कहा कि विवाह कर लिया तो साध्वी क्यों..? साध्वी क्यों नहीं...रामकृष्ण परमहंस विवाहित थे, उन्होंने न सिर्फ अपना जीवन ईश्वर निष्ठा में बिताया बल्कि नरेंद्र को संन्यास दीक्षा भी दी...ऐसे न जाने कितने और उदाहरण हैं जिनका उल्लेख इस आलेख को लंबा करके मूल विषय से भटका देगा....इसके अलावा केवल शंकराचार्य परंपरा में अविवाहित रहने का नियम है...और उसमें महिलाओं की दीक्षा वर्जित है...तो मुझ पर तो अविवाहित रहने की बंदिश कभी भी नहीं थी...सन्यासी का स्त्रैण शब्द साध्वी नहीं है...यह साधु का स्त्रैण शब्द है....वह व्यक्ति जो स्वयं को साधता है साधु है, साध्वी है...यदि साध्वी होने का अर्थ ब्रह्मचर्य है तो बहुत कम लोग होंगे जो इस नियम का पालन कर रहे हैं...इस प्रकार के अघोषित सम्बन्ध को जीने वाले और वैदिक रीति से विवाहित होते हुए सम्बन्ध में जीने वालों में से कौन श्रेष्ठ है और कौन अधिक साधु है इसका निर्णय कोई मुश्किल काम नहीं...इसके अलावा धर्म, आस्था या आध्यात्म को जीने के लिये विवाहित या अविवाहित रहने जैसी कोई शर्त नहीं है...जिसे जो राह ठीक लगती है वह उसी पर चलकर ईश्वर को पा लेता है यदि विश्वास दृढ़ हो तो...बस अन्तःकरण पवित्र होना चाहिये...
ऊपर लिखे घटनाक्रम को यदि देखें तो यह विवाह मज़बूरी लगेगा पर ईश्वर साक्षी है कि ऐसा बिलकुल नहीं था...दोनों के ही ह्रदय में प्रेम की गंगा बह रही थी पर दोनों ही मर्यादा को निष्ठा से निभाने वाले थे...सारा जीवन उस प्रेम को ह्रदय में रखकर काट देते परन्तु मर्यादा भंग न करते....मैंने पूरा जीवन ‘इस पार या उस पार‘ को मानते हुए बिताया...बीच की स्थिति कभी समझ ही नहीं आयी....जब तक संन्यास की उम्मीद थी तब तक विवाह मन में नहीं आया...दिल्ली का जीवन जीने के बाद मैं शाहजहांपुर जैसे शहर में और वो भी ५३ एकड में फैले आश्रम में नितांत अकेले कैसे रह लेती हूँ यह लोगों के लिये आश्चर्य का विषय था...पर मेरी निष्ठा ने मुझे कभी इस ओर सोचने का अवसर नहीं दिया....जब संन्यास की उम्मीद समाप्त हो गयी तो त्रिशंकु का जीवन जीने का मेरी जैसी लड़की के लिये कोई औचित्य नहीं बचा था...साहस था और परम्परा में विश्वास था, उसी कारण वैदिक रीति से विवाह किया और ईमानदारी से उसकी सार्वजनिक घोषणा की...मैंने इस विवाह को ईश्वरीय आदेश माना है...मुझे गर्व है कि मुझे ऐसे पति मिले जो बहुत से सन्यासियों से बढ़ कर आध्यात्मिक हैं, सात्विक हैं, और सच्चे हैं...मांस-मदिरा से दूर रहते हैं....उदारमना होते हुए भी मेरे मान के लिये सारी उदारता का त्याग करने को तत्पर रहने वाले वे भारतीयता के आदर्श हैं....ये उन्हीं के बस का था जो मुझे उस जीवन से निकाल ले आये वरना इतना साहस शायद मैं कभी न कर पाती और यह संभावनाओं का बीज वहीँ सड जाता...हरिः ओम्!
विवाह के बाद हज़ारों बधाइयाँ हमारा विश्वास बढ़ा रहीं थीं कि हमने सही कदम उठाया...विरोध का कहीं दूर तक कोई स्वर नहीं...शत्रु-मित्र सब एक स्वर से इस निर्णय की प्रशंसा कर रहे थे...केवल कुछ लोगों ने दबी ज़बान से कहा कि विवाह कर लिया तो साध्वी क्यों..? साध्वी क्यों नहीं...रामकृष्ण परमहंस विवाहित थे, उन्होंने न सिर्फ अपना जीवन ईश्वर निष्ठा में बिताया बल्कि नरेंद्र को संन्यास दीक्षा भी दी...ऐसे न जाने कितने और उदाहरण हैं जिनका उल्लेख इस आलेख को लंबा करके मूल विषय से भटका देगा....इसके अलावा केवल शंकराचार्य परंपरा में अविवाहित रहने का नियम है...और उसमें महिलाओं की दीक्षा वर्जित है...तो मुझ पर तो अविवाहित रहने की बंदिश कभी भी नहीं थी...सन्यासी का स्त्रैण शब्द साध्वी नहीं है...यह साधु का स्त्रैण शब्द है....वह व्यक्ति जो स्वयं को साधता है साधु है, साध्वी है...यदि साध्वी होने का अर्थ ब्रह्मचर्य है तो बहुत कम लोग होंगे जो इस नियम का पालन कर रहे हैं...इस प्रकार के अघोषित सम्बन्ध को जीने वाले और वैदिक रीति से विवाहित होते हुए सम्बन्ध में जीने वालों में से कौन श्रेष्ठ है और कौन अधिक साधु है इसका निर्णय कोई मुश्किल काम नहीं...इसके अलावा धर्म, आस्था या आध्यात्म को जीने के लिये विवाहित या अविवाहित रहने जैसी कोई शर्त नहीं है...जिसे जो राह ठीक लगती है वह उसी पर चलकर ईश्वर को पा लेता है यदि विश्वास दृढ़ हो तो...बस अन्तःकरण पवित्र होना चाहिये...
ऊपर लिखे घटनाक्रम को यदि देखें तो यह विवाह मज़बूरी लगेगा पर ईश्वर साक्षी है कि ऐसा बिलकुल नहीं था...दोनों के ही ह्रदय में प्रेम की गंगा बह रही थी पर दोनों ही मर्यादा को निष्ठा से निभाने वाले थे...सारा जीवन उस प्रेम को ह्रदय में रखकर काट देते परन्तु मर्यादा भंग न करते....मैंने पूरा जीवन ‘इस पार या उस पार‘ को मानते हुए बिताया...बीच की स्थिति कभी समझ ही नहीं आयी....जब तक संन्यास की उम्मीद थी तब तक विवाह मन में नहीं आया...दिल्ली का जीवन जीने के बाद मैं शाहजहांपुर जैसे शहर में और वो भी ५३ एकड में फैले आश्रम में नितांत अकेले कैसे रह लेती हूँ यह लोगों के लिये आश्चर्य का विषय था...पर मेरी निष्ठा ने मुझे कभी इस ओर सोचने का अवसर नहीं दिया....जब संन्यास की उम्मीद समाप्त हो गयी तो त्रिशंकु का जीवन जीने का मेरी जैसी लड़की के लिये कोई औचित्य नहीं बचा था...साहस था और परम्परा में विश्वास था, उसी कारण वैदिक रीति से विवाह किया और ईमानदारी से उसकी सार्वजनिक घोषणा की...मैंने इस विवाह को ईश्वरीय आदेश माना है...मुझे गर्व है कि मुझे ऐसे पति मिले जो बहुत से सन्यासियों से बढ़ कर आध्यात्मिक हैं, सात्विक हैं, और सच्चे हैं...मांस-मदिरा से दूर रहते हैं....उदारमना होते हुए भी मेरे मान के लिये सारी उदारता का त्याग करने को तत्पर रहने वाले वे भारतीयता के आदर्श हैं....ये उन्हीं के बस का था जो मुझे उस जीवन से निकाल ले आये वरना इतना साहस शायद मैं कभी न कर पाती और यह संभावनाओं का बीज वहीँ सड जाता...हरिः ओम्!
October 12, 2011
http://chidarpita.blogspot.com/2011/10/blog-post.html
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