कसाब को फाँसी भाजपा के गले की फाँस
वीरेन्द्र जैन
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जो लोग झूठ के हथियारों से लड़ाई लड़ते हैं,
उन्हें पराजय के साथ शर्मिन्दगी भी झेलेना पड़ती है। कसाब को फाँसी के बाद भाजपा की
हालत कुछ ऐसी ही हो गयी है।
दर
असल भाजपा के पास हमेशा से ही राजनैतिक मुद्दों का अभाव रहा है और वह अपने जनसंघ
स्वरूप के समय से ही ऐसे मुद्दों का सहारा लेती रही है जो परम्परावादी लोगों के
बीच भावुकता भड़का कर चुनाव जीतने वाले
मुद्दे थे और जिनका जनहित से दूर दूर का भी नाता नहीं रहा। 1967 में उन्होंने
गौहत्या विरोध के नाम पर साधुओं के भेष में रहने वाले भिक्षुकों को एकत्रित करके
संसद पर हमला करवा दिया था, जो भारतीय संसद पर हुआ पहला हमला था, पर इसके
योजनाकारों को कभी कोई सजा नहीं मिली। सुरक्षा में मजबूरन पुलिस को गोली चलाना पड़ी
थी जिसमें छह सात निरीह भावुक लोग मारे गये थे। इस गोली कांड का सहारा लेकर
उन्होंने पूरे देश के लोगों को भड़काने की कोशिश की थी जिसमें वे काफी हद तक सफल
रहे थे और सीधे सरल आस्थावान हिन्दुओं के बीच जनसंघ उत्तर भारत में एक प्रमुख वोट
बटोरू दल के रूप में उभर आया था। बाद में तो राम मन्दिर, रामसेतु, राम वनगमन
मार्ग, ही नहीं काशी मथुरा समेत साढे तीन सौ धर्मस्थलों की सूची तैयार कर ली थी
जहाँ पर मुस्लिमों से टकराहट लेकर मतों का ध्रुवीकरण कराया जा सकता था। राम
जन्मभूमि मन्दिर के नाम पर कराये गये दंगों का इतिहास अभी पुराना नहीं हुआ है, और
बाबरी मस्जिद को ध्वंस करने वालों को अभी तक सजा नहीं मिल सकी है। 1984 से 1992 तक
कभी रामशिला पूजन और कभी अस्थिकलश यात्रा के बहाने पैदा किये गये दंगों से जनित
ध्रुवीकरण ने उन्हें दो सीटों से दो सौ तक पहुँचा दिया था। यही कारण रहा कि वे
हमेशा ही ऐसे मुद्दे तलाशते रहे। सोनिया गान्धी के राजनीति में सक्रिय होते ही
उन्होंने धर्म परिवर्तन के नाम पर ईसाई धर्मस्थलों और उनके स्कूलों व अस्पतालों पर
अकारण हमले शुरू कर दिये थे, व ईसाई मिशनरियों को जिन्दा जलाने लगे थे, ताकि इस
बहाने सीधे सरल आस्थावानों को ईसाइयत विरोध के नाम पर कांग्रेस के विरुद्ध किया जा
सके। ईसाई विरोध के नये नये आयाम तलाशने के चक्कर में उन्होंने दो रुपये के उस सिक्के
को भी अपना हथियार बनाना चाहा जिस पर चार रेखायें एक दूसरे को काट रही थीं जिसे
उन्होंने ईसाइयों के क्रास की तरह प्रचारित करते हुए बड़ा विरोध किया जैसे कि इस
सिक्के पर बने क्रास जैसे चिन्ह के कारण हिन्दू चर्च में जाकर ईसाई धर्म अपना
लेगा।
यह दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्ज़िद ध्वंस की
ही प्रतिक्रिया थी कि जनवरी 1993 में पूरी मुम्बई में विस्फोट हुए व दर्जनों जानें
जाने के साथ अरबों रुपयों की सम्पत्ति नष्ट हुयी। बाद में ऐसी ही प्रतिक्रियाएं
दिल्ली, जम्मू, गुजरात, बनारस, कानपुर, पुणे, आदि पचासों जगहों पर हुयीं और जन धन
का नुकसान हुआ। इस प्रतिक्रिया के बहाने हुए ध्रुवीकरण को तेज करने के लिए संघ-भाजपा
परिवार के संघटनों से जुड़े लोगों ने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सफाई के साथ आतंकी
घटनाएं कीं व मीडिया मैनेजमेंट द्वारा सारा सन्देह मुस्लिमों की ओर मोड़ दिया गया
था, जिसके बारे में प्रैस परिषद के अध्यक्ष बनने के बाद जस्टिस काटजू ने बहुत
स्पष्ट ढंग से मीडिया की निन्दा की थी। यदि मालेगाँव, मडगाँव, कानपुर आदि में
निर्माणाधीन बमों में असमय विस्फोट होने की दुर्घटनाएं नहीं हुयी होतीं तो किसी को
पता भी नहीं चलता कि अजमेर, हैदराबाद, समझौता एक्सप्रैस आदि में विस्फोट की घटनाओं
के पीछे वे लोग नहीं थे जो प्रचारित किये गये थे, और वर्षों से जेलों में बन्द थे।
मुम्बई में पाकिस्तान से आये हुए तालिबानी
आतंकवादियों द्वारा ताज, ओबेराय, ट्राईडेंट होटलों तथा इजरायलियों की बस्ती वाले
नरीमन प्वाइंट वाले स्थान पर किये गये हमलों में चुन चुन कर अमेरिकियों को मारने व
रेलवे स्टेशन पर और एक अस्पताल पर अँधाधुन्ध फायरिंग से सुरक्षा बलों का ध्यान
भटकाने की योजना को पूरा करते हुए जिस हमलावर को जीवित पकड़ा गया था उसका नाम कसाब
था। शायद यह सन्योग ही हो कि इन घटनाओं में आतंकवाद विरोधी सैल के वे महत्वपूर्ण
अधिकारी भी मारे गये थे जिन्होंने आतंकी घटनाओं में हिन्दुत्ववादी आतंकियों को
पकड़ा था और जल्दी ही कोई बड़ा रहस्य उजागर करने वाले थे। जीवित पकड़े गये आतंकी को
जल्दी से जल्दी मार देने के लिए, नेतृत्व में वकीलों के बाहुल्य वाला दल भाजपा
सर्वाधिक उतावला था, व इस माँग को वह अपनी राष्ट्रभक्ति की नकाब से में लपेट कर
उठा रहा था। ऐसा करते हुए वह भारतीय न्याय प्रक्रिया के प्रावधानों के प्रति भी
आँखें बन्द किये हुए था। उसने एक ऐसे कैदी के बारे में अतिरंजित व्ययों का प्रचार
करना शुरू किया जिसमें किसी सम्वेदनशील कैदी को दी गयी सुरक्षा का खर्च भी सम्मलित
था। ऐसा करके वे और सभी तरह के मीडिया में फैले हुए उनके प्रचारक यह दुष्प्रचार
करने में लगे हुए थे कि देश की सरकार, पुलिस, और न्याय व्यवस्था इस दुर्दांत
हमलावर को बचाने में लगी है व उसे विशिष्ट स्वादिष्टतम भोजन और सुख सुविधाएं
उपलब्ध करा रही है। सुरक्षा व्यवस्था व न्याय व्यवस्था के ऊपर आने वाले सारे व्यय
को उसके ऊपर हुए व्यय के रूप में प्रचारित किया जा रहा था व कसाब को सरकार के
दामाद के रूप में बता कर पूरे देश की व्यवस्थाओं का अपमान किया जा रहा था। सच यह
था कि कसाब के खाने पर चार साल में 42,313 रूपये, कसाब के कपडों पर 1,878 रूपये और चिकित्सा पर 39,829रूपये मात्र खर्च
किए गए।इन
प्रचारकों ने इस दौरान कभी भी इस मापदण्ड से साध्वी के भेष में रहने वाली प्रज्ञा
सिंह ठाकुर, दयानन्द पाँडे आदि पर हुए व्यय का हिसाब नहीं लगाया और लगाया हो तो
उसे सार्वजनिक नहीं किया। उल्लेखनीय यह भी है कि जब तक ये हिन्दू आतंकवादी नहीं
पकड़े गये थे तब तक आतंकवाद सरकार के खिलाफ भाजपा का मुख्य मुद्दा हुआ करता था पर
इन आतंकियों के पकड़ में आने के बाद भाजपा ने आतंकवाद का विरोध करना बन्द कर दिया
क्योंकि वह तो आतंकवाद के नाम पर पूरे मुस्लिम समाज को कटघरे में खड़ा कर ध्रुवीकरण
ही कराना चाहती थी जो अब सम्भव नहीं रह गया था। अब जब कसाब पर हुए खर्च के आँकड़े
सामने आ गये हैं तब भी इन्होंने अपने दुष्प्रचार पर शर्मिन्दा होकर क्षमा माँगने
की जरूरत नहीं समझी।
देश में सब जानते और चाहते थे कि कसाब को
फाँसी ही होगी और होना भी चाहिए थी क्योंकि किसी भी न्याय के पास इससे बड़ी कोई
दूसरी सजा नहीं है। वह एक क्रूरतम अपराध का औजार था और अधिकतम सम्भव दण्ड का पात्र
था। एक लोकतांत्रिक देश की न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान करते हुए यह सजा हुयी भी,
किंतु संघ परिवार ने जिस तरह से इस स्वाभाविक प्रक्रिया के बीच में जो दुष्प्रचार
किया वह परोक्ष में बहुत कपटपूर्ण था। प्रचारित यह किया गया कि यूपीए सरकार वोट
बैंक के चक्कर में कसाब जैसे दुर्दांत अपराधी की सजा को टाल रही है और उस पर
करोड़ों फूंक रही है। जाहिर है कि वोट बैंक से उनका मतलब मुस्लिम वोट बैंक से था और
इस तरह वे परोक्ष में देश के पूरे मुस्लिम समाज को पाकिस्तान के इस आतंकी से
सहानिभूति रखने वाला बताते हुए उन्हें गद्दार बता रहे थे, जबकि पूरे देश में कहीं
भी किसी मुस्लिम संगठन ने इन आतंकियों के प्रति सहानिभूति नहीं दिखायी थी। मुम्बई
के मुस्लिम समाज ने तो मारे गये आतंकियों को अपने कब्रिस्तान में दफनाने से ही मना
कर दिया था। पर ध्रुवीकरण से अपने दल का विस्तार करने वाले इनके संगठक ऐसा कोई भी
अवसर नहीं छोड़ते हैं अपितु जो नहीं होता है उसे भी अपने झूठ के सहारे पैदा करने की
कोशिश करते हुए इससे होने वाले देश के नुकसान के बारे में भी नहीं सोचते।
उल्लेखनीय है कि कसाव और उसके स्थानीय सहयोगी
बताये गये लोगों का मुकदमा लड़ने वाले वकील की गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी जिस
के कारण उन दो लोगों को अदालत ने ससम्मान बरी कर दिया था जिन पर सहयोग का आरोप
बनाया गया था। यदि उन लोगों को यह वकील नहीं मिला होता तो शायद उन्हें भी
आरोपानुसार सजा मिल गयी होती, पर उस वकील की हत्या किसने की यह अभी तक रहस्य बना
हुआ है, इस हत्या की जाँच की माँग भाजपा ने करना जरूरी नहीं समझा क्योंकि न्याय और
अन्याय की उनकी अपनी परिभाषाएं या मान्यताएं हैं जो भारतीय संवैधानिक न्याय
व्यवस्थाओं से भिन्न हैं। बहरहाल कसाब की फाँसी से इकलौते बच रहे आतंकी का अंत भी
हो गया है, पर भाजपा के हाथ से दुष्प्रचार का एक बड़ा कार्ड छिन गया है और वे यह भी
नहीं बता पा रहे हैं कि अगर अपनी न्याय व्यवस्था को धता बताते हुए यही काम कुछेक
महीने पहले हो जाता तो देश का कितना भला हो जाता! कोई आश्चर्य नहीं कि ये लोग कोई
और नया मुद्दा तलाश लें पर जैसे जैसे इनकी कलई खुलती जा रही है इनके मुद्दे भी
मुर्दों में बदलते जा रहे हैं।