Saturday, March 9, 2013

चर्च के नर्क में नन का जीवन

2005 में रिलीज की गई इंगलिश और स्पेनिश में बनी फिल्म 'द नन' चर्च में ननों के शोषण की दास्तान बयान करती है
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'द नन' चर्च में ननों के शोषण की दास्तान बयान करती है


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एक और महिला दिवस सामने आ खड़ा हुआ है। पूरी दुनिया में महिला अधिकारों को लेकर शोर शराबा मचेगा। उनकी इज्जत, अस्मिता और सुरक्षा के नारे लगाये जाएंगे, दावे किये जाएंगे कानूनों की दुहाई दी जाएगी। और औरतों के प्रति अपनी इज्जत वाली प्रतिबद्धता के साथ महिला दिवस को पीछे छोड़ दिया जाएगा। जाहिर है, महिला अधिकारों की सबसे पुरजोर वकालत पश्चिमी देशों या फिर कहें, ईसाई देशों से ही शुरू होती है और दुनियाभर को ये देश बताते सिखाते हैं कि कैसे महिलाओं के प्रति समानता और सम्मान का रिश्ता रखना चाहिए। लेकिन खुद उन देशों में महिलाओं की दशा क्या है? ईसाई समाज की नियंत्रक संस्था चर्च के भीतर ही ननों की क्या दुर्दशा है? अगर चर्च अपने यहां रहनेवाली ननों की सुरक्षा और सम्मान बरकरार नहीं रख सकता है तो फिर किस मुंह से दुनियाभर को महिला सुरक्षा का उपदेश देता है? महिला दिवस पर आर एल फ्रांसिस का विशेष लेखः

हर साल महिला असुरक्षा को लेकर ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ पर जोरदार भाषण होते है तो महिला अस्मिता को लेकर सरकारे भी लम्बे-चैड़े वायदे करने में अपनी दरयादिली दिखाने से पीछे नही रहती। तमाम कोशिशों और कानूनों के बावजूद इस बात को लेकर आशंका बनी रहती है कि घर के अंदर और बाहर महिलाओं की स्थिति में कोई बड़ा फर्क आएगा। यह सब इसलिए है कि महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा बहुत जटिल है और यह तभी हल होगा जब हम समाज और परंपरा से लेकर कानून व्यवस्था की जड़ता को खत्म नहीं कर लेते। यह शायद टूट भी जाए लेकिन उन करोड़ों महिलाओं का क्या होगा जो धार्मिक रीति रिवाजों और परंपराओं की एक आटूट डोर से बंधी हुई है और सात पर्दों में ढके हुए उनके जीवन पर कोई चर्चा ही नही करना चाहता। ऐसी महिलाओं की संख्या दुनिया में लाखों-लाख है। कही वह छोटे धार्मिक समूहों में है और कही कैथोलिक चर्च की विशाल व्यवस्था में। उनमें से अधिक्तर के सामने गंभीर चुनौतियां है, ऐसी व्यवस्था में उनके लिए अंदर जाने का रास्ता तो होता है लेकिन बाहर आने के सभी दरवाजें बंद कर दिए गए है। इस कारण ज्यादातर मानसिक बिमारियों की जकड़न में है।

वेटिकन के एक अध्यन के मुताबिक सैमनरियों में पादरी तथा नन बनने के दौरान दस में से केवल चार पुरुष ही इस पेशे में टिक पाते है तथा बाकी अपने स्वाभाविक जीवन में लौट जाते है जबकि महिलाएं बहुत कम संख्या में वापिस लौट पाती है।

चार साल पहले केरल की एक कैथोलिक नन सिस्टर जेस्मी की आत्मकथा ‘आमीन’ ने कैथोलिक चर्च के दमघोंटू महौल और धर्म के आडंबर की आड़ में जारी दुराचारों को समाज के सामने लाने का काम किया। तीन साल पहले केरल के कोल्लम जिले की एक कैथोलिक नन अनुपा मैरी की आत्महत्या ने चर्च की कार्यप्रणाली पर ढेरों स्वाल खड़े कर दिये थे। इसके पहले सिस्टर अभया ने भी अनुपा मैरी वाला रास्ता चुना था और इन दोनों की लाशें कानवेंट में ही पाई गई थी। अनुपा मैरी ने अपने सुसाइड नोट में साफ लिखा था कि उसे यह रास्ता इस लिए अपनाना पड़ा क्योंकि कानवेंट में उसका मानसिक उत्पीड़न किया जा रहा था। नन के पिता ने चर्च व्यवस्था पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा था कि उसकी पुत्री का यौन शोषण किया जा रहा था और उसने अपनी तकलीफ को अपनी मां और बहन के साथ सांझा किया था।

केरल के कन्नूर जिले की एक और नन सिस्टर मैरी चांडी ने ‘स्वास्ति’ नामक आत्मकथा लिखकर चर्च के अंदर घुट-घुट कर मरती ननों पर बहस को आगे बढ़ाने का काम किया है। सिस्टर मैरी चांडी ने बंद दरवाजों के अंदर यौन कुंठाओं के शिकार  अपने ही सहयोगी पादरियों तथा अन्य अधिकारियों के व्यवहारों की व्याख्या के साथ देह की पवित्रता बनाए रखने के नाम पर ननों के लिए गढ़े गए आडंबरों की पोल खोल दी है। यह दोनों महिलाएं 52 साल की ‘सिस्टर जेसमी’ और 67 साल की सिस्टर मैरी चांडी कोई सधारण महिलाएं नही है। वह पिछले तीस वर्षो से कैथोलिक चर्च के विभिन्न संस्थाओं में अवैतनिक सेवा कर रही है। सिस्टर जेस्मे अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक है और अगस्त 2008 तक वह त्रिसूर में चर्च द्वारा चलाए जाने वाले एक कालेज की प्राचार्या थी। तीन दशक तक चर्च की सेवा करने के बाद उन्होंने चर्च के अंदर ननों के साथ होने वाले अनाचार का खुलासा करने का साहस दिखाया है।

हालहीं में आयरलैंड में गर्भपात को लेकर एक बहस दुनिया भर में चली और बंद भी हो गई। क्योंकि वेटिकन- कैथोलिक चर्च ने इसमें कोई छूट देने से मना कर दिया क्योंकि चर्च नहीं चाहता कि धार्मिक कायदे - कानूनों में कोई बदलाव किया जाए। जहां तक कैथोलिक ननों का स्वाल है तो खुद पोप भी मानते है कि दस में से एक नन मानसिक रुप से परेशान होती है और उसे इलाज की जरुरत है। व्यवस्था के विरुद्व आवाज उठाने वालों को रिट्रीट सैंटर में भेजने और पागल करार देकर इलाज के नाम पर एक अंतहीन शोषण का सिलसिला शुरु किया जाता है (इनमें पादरी और नन दोनो होते है) जहां उनकी मर्जी के विरुद्व जबरदस्ती उनका इलाज किया जाता है जो एक नर्क से कम नही होता।
इसकी वजह यह है कि महिलाओं पर परिवारिक और सामाजिक दबाव बहुत ज्यादा होता है इसलिए वह चाहकर भी वापिस नहीं लौट पाती।ऐसे मामले यह दर्शाते है कि धर्म की आड़ में बहुत कुछ ऐसा चल रहा है जिसे उत्पीड़न की हद भी कहा जा सकता है लेकिन इसमें पीडि़तों की सुनवाई कहीं नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि दूसरों को मानवाधिकारों का पाठ पढ़ाने वाले खुद भी इन्हें अपने काम के तरीकों में अपनाएगें। देश में केरल ही एक ऐसा राज्य है जहां से सबसे ज्यादा नन और पादरी आते है। एक लाख चालीस हजार ननों में से हर तीसरी नन केरल से आती है। ऐसे ही आंकड़े पादरियों के बारे में भी मिलते है।

केरल के कुछ चर्च सुधार समर्थक ईसाइयों की तरफ से कुछ साल पहले राज्य महिला आयोग से मांग की गई की नन बनने की न्यूनतम आयु तय की जाए क्योंकि विश्वासी परिवार छोटी बच्चियों को ही नन बनने के लिए भेज देते है जबकि वह खुद फैसला लेने में सक्षम नहीं होती। नन बन चुकी लड़कियों का परिवारिक संपति में अधिकार नहीं रहता। एक तरह से वह परिवारों से बेदखल कर दी जाती है। आयोग ने उस समय की वाम-मोर्चा सरकार से कई सिफारिशे की। आयोग ने कहा कि जो मां-बाप अपनी बेटी को नन बनने के लिए मजबूर करते है, उन पर कानूनी कार्रवाही की जानी चाहिए। ननों की संपति से बेदखली रोकी जानी चाहिए अगर कोई नन वापिस लौटना चाहें तो उसके पुनर्वास की व्यवस्था की जानी चाहिए। आयोग ने सरकार से सिफारिश की वह एक जांच करवायें जिसमें यह पता चल सके कि कितनी नबालिग बच्चियों को नन बनने के लिए बाध्य किया गया और कितनी ननें ऐसी है जो सामाजिक जीवन में लौटना चाहती है। लेकिन चर्च के दबाव में किसी भी सरकार ने इस मामले में दखल देना जरुरी नहीं समझा।

चर्च के अधिकारियों ने केरल महिला आयोग के सुझावों को गैरजरुरी तथा अपने धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप करार देते हुए कहा कि यह केवल सुझाव है और इसे मानने या न मानने के लिए हम आजाद है। धर्मसम्मत नियम उन ननों पर ‘दया दिखाने’ को कहता है जो ननरी को छोड़ चुकी है। अध्यन बताते है कि एक चैथाई से भी ज्यादा नने अपने धार्मिक जीवन से असंतुष्ट है। कार्डिनल वार्की विथायथिल ने अपनी जीवनी ‘स्टेªट फ्राॅम द हार्ट आई’ में माना है कि ननें जिन ‘दयनीय परिस्थितियों में रहती है,’ अब उन्हें उससे मुक्त करने का समय आ गया है। मेरा मानना है कि हमारी ननें काफी हद तक आजाद स्त्रियां नही है।’ वैसे महिलाओं को न्याय देने में आनाकानी करने में केवल चर्च ही नही दूसरे धार्मिक संस्थानों का रुख भी वैसा ही है।

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