एशिया में पुलिसिया यातना के अंत के लिए कुछ बुनियादी तर्क
Mani Ram Sharma
यह बासिल फर्नान्डो,
निदेशक नीति एवं
कार्यक्रम विकास, एशियन
ह्योमन राइट्स कमीशन
(एएचआरसी), हांगकांग
द्वारा यातना के खिलाफ
एशियाई सांसदों की बैठक
में 22 जुलाई 2012 को दिए गए
भाषण का मूल पाठ है. यह
बैठक एशियन अलायंस
अगेंस्ट टॉर्चर एंड
इल-ट्रीटमेंट द्वारा
बुलाई गयी है.
पुलिसिया
यातना के अंत के लिए
बुनियादी तर्क
पुलिसिया यातना क्या
है?
अगर हम यह सवाल पूछें
और इसके जवाबों की तलाश
शुरू करें तो कोई हमसे
भी पलट कर पूछ सकता है कि
‘रुकिए, आप कैसे जानते
हैं कि पुलिसिया यातना
क्या होती है? इस किस्म
के प्रतिप्रश्न हमें
ज्ञानमीमांसा के उस
बिंदु तक ले जाते हैं,
जहाँ मूल सवाल ही यह
होता है कि “किसी भी
चीज के बारे में आखिर हम
जानते कैसे हैं”?
ऐसे सवाल सदियों से
पूछे जाते रहे हैं. और
विगत तीन-चार सदियों की
जद्दोजहद में जो जवाब
निकलकर सामने आया है वह
यह है कि हम किसी चीज के
बारे में उससे जुड़े
आंकड़ों और तथ्यों के
संकलन और विश्लेषण की
मदद से जानते हैं. यही
वजह है कि दूरबीन और
सूक्ष्मदर्शी इस युग के
सबसे बड़े प्रतीक बनकर
उभरे हैं. आज हम किसी भी
सवाल का जवाब जानने की
कोशिश आंकड़ों के अवलोकन
और विश्लेषण के द्वारा
करते हैं.
यातना के सवाल पर आंकड़ों का महत्व
यातना से जुड़े आंकड़े
हमें पीड़ितों की
वास्तविक कहानियों में
मिलते हैं. पीड़ितों की
असली कहानियों के सहारे
यातना का अध्ययन सिर्फ
सांख्यिकीय विश्लेषण
से यातना को समझने के
तरीके से बिलकुल अलग है.
असली कहानियों को ठीक-
ठीक दर्ज कर हम जान सकते
हैं कि यातना क्या है और
क्यों दी जाती है. साथ
ही, इससे जुड़े अन्य सभी
सवालों के जवाब तक हम
पंहुच सकते हैं.
यातना पर अब तक उपलब्ध
और ज्ञात आंकड़े हमें
क्या बताते हैं? वह हमें
हमारी संस्थाओं में
मौजूद अंतर्विरोधों के
बारे में बताते हैं. इन
आंकड़ों का अध्यनन और
विश्लेषण हमें बताता है
कि कैसे संस्थाओं का
त्रुटिपूर्ण संचालन
क़ानून पर आधारित शासन
को हासिल करने की हमारी
तमाम कोशिशों को विफल
करती हैं. इस प्रकार
यातना का अध्ययन, दरअसल
हमारे समाज में मौजूद
बुनियादी और
महत्वपूर्ण संस्थाओं
और उनमे मौजूद खामियों
का अद्ययन बन जाता है.
पीड़ितों की कहानियों
से मिलने वाले आंकड़े
हमें दिखाते हैं कि
हमारी बुनियादी
संस्थाएं किस कदर
अतार्किक ढंग से कार्य
करती हैं. और यह भी कि
यातना महज निर्ममता का
अध्ययन भर नहीं है. इसके
ठीक उलट, यह उस
अतार्किकता का, शक्ति
के अवैध और अनुचित
प्रयोग का अध्ययन है, जो
हमारी संस्थाओं की
कार्यप्रणाली में
व्याप्त हो गयी हैं.
इसीलिये, ‘यातना का
मतलब क्या है’ जैसा
सवाल न्यूमोनिया,
मलेरिया या किसी भी और
रोग का मतलब पूछने जैसा
निरर्थक सवाल ही है,
खासतौर पर तब जब आज इन
बीमारियों के कारण और
इलाज दोनों ही ठीक से
समझ लिए गए हैं. हमारे
बुनियादी संस्थानों
में फ़ैली बीमारियों के
अध्ययन के लिए भी इन्ही
सिद्धांतों का उपयोग
किया जा सकता है.
प्रभावी संस्थाओं की
अनुपस्थिति में
लोकतंत्र एक अर्थ-शून्य
भावाभिवाक्ति बन कर रह
जाता है, ठीक किसी ऐसे
खाली गुब्बारे की तरह
जो अंतरिक्ष में बेवजह
तैर रहा हो. सिर्फ
निष्पक्ष और प्रभावी
सार्वजनिक संस्थाओं की
उपस्थिति ही है, जो एक
लोकतंत्र को सही अर्थ
प्रदान करती है. इन
संस्थाओं का सफल संचालन
ही वो पैमाना है जो
बताता है कि वे क़ानून के
शासन के तहत काम करने
में सक्षम हैं या नहीं.
अगर एक सार्वजनिक
संस्था ‘कानून के
शासन’ के मापदंडों के
आधार पर निष्क्रिय और
अन्यायपूर्ण हो गयी हो,
तो इसका सीधा अर्थ यह
होता है कि अब वह
लोकतंत्र का उपकरण होने
की बजाय किसी और चीज में
तब्दील हो गयी है.
हमारे समाज में, जहाँ
पुलिसिया यातना
सर्वव्यापी है, हम
सार्वजनिक संस्थाओं के
इसी ‘कुछ और’ में बदल
जाने का अनुभव कर रहे
हैं. यह ‘कुछ और’ कुछ
भी हो सकता है -
‘सर्वाधिकारवाद’ तक
पंहुच चुकी व्यवस्थाओं
से लेकर उसके करीब खड़े
तमाम ‘वादों’ में से
कुछ भी. परन्तु एक बात जो
सुनिश्चित है वह यह कि
ये संस्थायें न केवल
खुद अलोकतांत्रिक हो
गयी हैं बल्कि वह
लोकतंत्र के रास्ते में
बाधायें भी खड़ी कर रही
हैं.
यातना से लैस समाज में,
खासतौर पर उनलोगों जो
यातना को खत्म कर एक
सच्चे लोकतान्त्रिक
समाज के निर्माण के लिए
वचनवद्ध हैं मसलन
नेताओं, सांसदों और
उच्चाधिकारियों, में यह
विश्वास घर कर गयी है कि
बिना यातना के अधिकार
के पुलिस का काम करना
संभव ही नहीं है. परन्तु
सत्य इसके ठीक विपरीत
है. पुलिस का ठीक से काम
करना सबसे ज्यादा
मुश्किल (वस्तुतः
असंभव) वहीं होता है
जहाँ यातना का व्यापक
प्रयोग होता है.
यहाँ मैं यह भी कहना
चाहूंगा कि मेरा यह
भाषण इस मुद्दे पर कल
दिन भर चले गंभीर विचार
विमर्श में आप लोगों की
बहुमूल्य टिप्पणियों
और विचारों की
साझीदारियों के बिना
तैयार नहीं हो सकता था
और इसके लिए मैं
आपलोगों का आभारी हूँ.
वापस विषय पर लौटते
हुए मै यह कहना चाहता
हूँ एएचआरसी में इस
मुद्दे पर विचार विमर्श
करीब डेढ़ दशक पहले ही
शुरू हो गया था. और तब से
लगातार हमने यातना क्या
है और इस सवाल का जवाब
पीड़ितों पर अत्याचार की
निर्ममतम कहानियों को
ठीक ठीक दर्ज करने की
प्रविधि द्वारा दिया
है. यातना की इन
कहानियों का हमारा
दस्तावेजीकरण(डाक्यूमेंटेशन)
यातना का अर्थ समझ कर
इसे खत्म करने की हमारी
अथक कोशिशों का सबूत है.
शुरुआती दिनों में
हमारा मूलमंत्र था कि
‘सूक्ष्म(micro) से
स्थूल(macro) की तरफ बढ़ो’,
और इसका मतलब था कि
यातना की वैयक्तिक
कहानियों के माध्यम से
हम समाज की ‘मूल
संरचना की दिक्कतों’
को समझ सकें.
जब हम इन कहानियों से
रुबरु होते हैं, तब हमें
समाज की मूल संरचनाओं
और उनकी कार्यप्रणाली
की हकीकत स्पष्ट होती
हैं.
यही वजह है कि समाज के
बुनियादी ढांचे में
व्याप्त त्रुटियों को
ठीक करने के हमारे
अभियान का एक अहम अंग
है-यातना के व्यापक
प्रयोग का अध्ययन करना
और इसका खुलासा करना. इस
नजरिये से देखें तो
समाज में असली लोकतंत्र
स्थापित करने की लड़ाई
में लगे हम सभी लोगों के
लिए पुलिसिया यातना का
सवाल एक ऐसा सवाल है
जिसे नज़रंदाज़ करना
मुनासिब नहीं.
पुलिसिया यातना का
खात्मा हमारे समाज के
लोकतांत्रीकरण की दिशा
में अत्यावश्यक
कार्यों में से एक है. यह
एक ऐसा व्यावहारिक
तरीका है जिसके उपयोग
से हम लोकतंत्र के
रास्ते में खड़ी ढांचागत
दिक्कतों को खत्म कर
सकते हैं.
यही वह प्रस्ताव है जो
एशियन ह्यूमन राइट्स
कमीशन इस बैठक के
प्रतिभागियों के सामने
पेश कर रहा है. साथ ही,
एएचआरसी इस बैठक में
आये सम्माननीय सांसदों
से विशेष तौर पर यह
आग्रह करता है कि वे
लोकतंत्र स्थापित करने
के लिए उनके देशों में
लड़ी जा रही लड़ाइयों में
इस प्रस्ताव को गंभीरता
से लें और उसमे शामिल
करें.
वैसे भी, यातना के अंत
की लड़ाई अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता की लड़ाई के
साथ अभिन्न रूप से जुडी
हुयी है. पूरी तरफ से
खत्म न भी हुई हो तो भी
जैसे जैसे यातना के
प्रयोग की संभावना कम
होती जाती है,
अभिव्यक्ति की निर्बाध
स्वतंत्रता के लिए
मनोवैज्ञानिक
परिस्थितियाँ तैयार
होती जाती हैं.
अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता लोकतंत्र
का मूल आधार है क्योंकि
यही वह अधिकार है जिसके
द्वारा हम अगर सभी नहीं
तो भी अधिक से अधिक
लोगों और समूहों के
विचार जान पाते हैं और
अधिकतम संभव सहभागिता
वाली सामूहिक चेतना
का विकास कर पाते हैं.
इसीलिये, नागरिक चेतना
और सामूहिक सहभागिता के
विकास के लिए यातना का
अविलम्ब अंत
अत्यावश्यक है.
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