-रामकिशोर पंवार
वेब मीडिया में यशवंत सिंह का नाम कोई नया नहीं है। चाटुकारिता एवं भाटगीरी को करारा तमाचा मारती यशवंत सिंह की नीडर निष्पक्ष पत्रकारिता से तिलमिलाए कुछ लोगों के द्वारा उनके विरूद्ध रचे गए षड्य़ंत्र का दुखद परिणाम यह रहा कि उन्हें जेल तक जाना पड़ा। हालांकि जेल जाना कोई बुरी बात भी नहीं हैं, अगर ऐसा होता तो आज हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी न होते। राष्ट्रपिता का संघर्ष भी सड़क से जेल तक था। वे भी कई बार जेल की चौखट तक गए और जेल भी काटी। पत्रकारिता एक प्रकार से काल कोठरी है जहां पर चारो ओर सिर्फ काजल ही फैला हुआ है। उस काजल से कई आंखे और चेहरे रंगे जाते है। जिन आंखो में काजल होता है उसमें शर्म और हया होती है लेकिन जिनके चेहरे पर काजल की कालिख पोती गई होती है वे चेहरे शर्म - हया के बंधन से मुक्त होकर बेशर्म हो जाते हैं और ऐसी हरकतें करते हैं जिससे समाज भी कलुषित विचारों का शिकार हो जाता है। मेरा अपना तीस साल की पत्रकारिता का अनुभव यह कहता है कि पत्रकार समाज का आइना कहा तो जाता है लेकिन जब - जब भी इस आइने में किसी की सूरत बदसूरत दिखाई पड़ती है वह उस आइने को ही तोड़ डालने का प्रयास करता है। यशवंत सिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। मैंने पत्रकारिता की शुरूआत पत्र संपादक के नाम से की थी लेकिन अब प्रिंट मीडिया में पत्र संपादक के नाम का आधा पन्ना कुछ समाचार पत्रों में तो लगभग गायब ही हो गया है। चुनौती भरी पत्रकारिता अब पूरी तरह से पेज भरती जा रही है। इसी कारण से लोग चार पेज के समाचार पत्र को कभी चाव से पढ़ा करते थे, आज लोग चालिस पेज के समाचार पत्र के पन्ने भी ठीक ढंग से पलट नहीं पाते हैं। इसके पीछे का मुख्य कारण यह है कि प्रिंट मीडिया की पत्रकारिता पूरी तरह से व्यसायिक हो चुकी है। जहां एक ओर प्रिंट मीडिया पत्रकार सच लिखने को तैयार नहीं हैं, वहीं दूसरी ओर इलेक्ट्रानिक मीडिया का पत्रकार सच दिखाने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में आशा की एक किरण वेब मीडिया के इर्द गिर्द मंडराती नजर आ रही है। यशवंत सिंह ने एक बड़ी गलती कि अपने ही लोगों को आइना दिखाना शुरू कर दिया जिसके चलते एक ऐसा धड़ा जो कि पत्रकारिता की आड़ में धंधा करता चला आ रहा था, उसकी नज़र में यशवंत सिंह कांटे की तरह चुभने लगे। वैसे किसी नामचीन शायर ने कहा भी है कि दुसरों को आईना दिखाने से पहले स्वंय भी आईना देख लेना चाहिए या दूसरे से अपने चेहरे को आईना से दिखवा कर उसे संवार लेना चाहिए। लोग अकसर आईना को तोडऩे के पीछे यह जानने की कोशिश क्यों नहीं करते कि आईना का क्या दोष है जब उनकी सूरत ही बदसूरत होगी, ऐसी स्थिति में आईना तस्वीर या चेहरे को कैसे बदल पाएगा। पत्रकारिता आईना है, कोई फोटोशाप का साफ्टवेयर प्रोग्राम नहीं जो कि सूरत को तरह - तरह से बनाने एवं बिगाड़ने का काम करता है। यशवंत सिंह ने लीक से हट कर पत्रकारिता को एक ऐसा आईना बनाने का काम किया जो कि समाज के सुधार एवं उसके स्वंय के सुधार में सार्थक भूमिका निभा सके। आज इस देश में लोगों को सच सुनने एवं देखने तथा पढऩे का साहस नहीं है। कोई भी सच के साथ नहीं है। हर तरफ ही फरेब एवं झूठ का साम्राज्य फैला हुआ है। ऐसे में सच को उजागर करने वाला वेब मीडिया एक ऐसा सशक्त माध्यम बन गया है कि लोग उसके प्रहार से एकदम उत्तेजित एवं उग्र हो जाते है। सच की कीमत जिसने भी चुकाई, उसने सच का साथ नहीं छोड़ा है। यशवंत सिंह का यह सच का सामना इस बात का प्रमाण है कि पत्रकारिता का पूरा रास्ता सच लिखने वालों के लिए कांटों की पगडंडी के समान है जिस पर नंगे पैर चलना है। केवल पत्रकारिता उन्हीं दल्लो एवं भाट तथा चारण लोगों के लिए फूलों की सेज के समान है जिनका पत्रकारिता का पेशा रांड के कोठे से भी बड़ा बदनाम है। मैने पत्रकारिता में जो सीखा है उसके अनुसार पत्रकारिता उपासना और साधना है लेकिन कुछ लोगों ने पत्रकारिता को स्तुति और आराधना बना दिया है। भाटगीरी और भड़वागिरी पत्रकारिता की ही नाजायज औलादें हैं जो कि अपने कर्मों से कभी प्रभु की शक्ल में, तो कभी बरखा की सूरत में सामने आती है।
मैंने भाई यशवंत सिंह की भड़ास में अपने यौवन की उस पत्रकारिता को देखा जिसके चलते मुझे भी कई बार जान से हाथ तक धोने की स्थिति का सामना करना पड़ा है। मेरे लिए जेल यात्रा से बड़ी यातना तो यह रही कि विकलांग हो जाने के बाद भी मेरी कलम से डरा- सहमा शिवराज सिंह का सुशासन और प्रशासन मुझे तड़ीपार तक करना चाहा लेकिन आखिर में सच की जीत हुई। भाई यशवंत सिंह को भी हिम्मत से ज्यादा उस बात पर भरोसा करना होगा कि सच कभी पराजित नहीं हो सकता। हमारे देश में एक नहीं एक करोड़ ऐसे उदाहरण सामने आए हैं, जहां पर सच की जीत हुई है। सच का बोलबाला और झुठ का मुंह काला हुआ है। आज मैं जब इस लेख को लिखने जा रहा था उस समय टी वी चैनलों पर खबरें चल रही थी कि विज्ञान ने उस ईश्वरीय कण को खोज लिया है लेकिन ईश्वर को खोजने की अभी पुष्टि नहीं हुई है। कहने का मतलब साफ है कि प्रिंट मीडिया के आने वाले समय में असमय दम तोडऩे एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया की प्रायोजित खबरों के बीच यदि कोई जीवित रहेगा, तो वह वेब मीडिया ही होगा।
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