शिवराज के गले की हड्डी बन सकती है गैमन
Present by :
toc news internet channal
चालाकी से दर्जनों नियम तोड़े, फ्री-होल्ड कर वापस ले लिया फैसला
भोपाल में गेमन को दी सरकारी जमीन का मामला मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए परेशानी का सबब बन गया है। राज्य सरकार भले ही इसे पुनर्घनत्वीकरण योजना की सफलता बताए, लेकिन हकीकत यह है कि राज्य सरकार के खजाने को इससे करोड़ों रुपए का नुकसान हुआ है। गेमन इंडिया को फायदा पहुंचाने के लिए जिस तरह की गतिविधियां हुई, उसमें शिवराज की भूमिका संदेह के घेरे में हैं।
भोपाल (डीएनएन)। मध्य प्रदेश में इस साल होने विधानसभा की चुनाव में जीत की हैट्रिक बनाने के लिए भाजपा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छवि को लेकर मैदान में उतरने जा रही है, किंतु गेमन इंडिया लिमिटेड कंपनी ‘मुंबईÓ को राजधानी भोपाल के बीचोंबीच आवंटित 15 एकड़ सरकारी जमीन चौहान के लिए गले की हड्डी बन सकती है। आरोप है कि जमीन का यह आवंटन एक ऐसा महाघोटाला है, जिसमें राज्य के कई मंत्रियों और आला अधिकारियों ने चुप
क्या है विवाद की जड़
गेमन मामले में मुख्यमंत्री चौहान की भूमिका को समझने के लिए इस विवाद की जड़ में जाना जरूरी है। दरअसल, 2005 में राज्य की भाजपा सरकार ने पुनर्घनत्वीकरण (रिडेंसिफिकेशन) नाम की ऐसी योजना बनाई, जिसका मकसद भोपाल के मुख्य बाजार इलाके दक्षिण टीटी नगर की सरकारी कॉलोनी तोड़कर नए सिरे से बसाना था। इसी के चलते उसने पहले तो यहां के चार सौ सरकारी मकानों और एक स्कूल को तोड़कर जमीन को खाली कराया और फिर 17 अप्रैल 2008 को यह बेशकीमती जमीन गेमन कंपनी को 337 करोड़ रुपए में बेच दी। मगर इस पूरे सौदे में जिस तरीके से कंपनी के पक्ष में नीलामी करने, औने-पौने दाम पर कंपनी को जमीन बेचने, लीज रेंट माफ करने, फ्री-होल्ड (जमीन का मालिकाना हक) देने और उसे वापस लेने के अलावा कंपनी को विशेष रियायत देने जैसी कई अनियमितताएं सामने आईं उससे सरकार की नीयत पर ही सवाल खड़े हो गए। राज्य सरकार की इन्हीं अनियमितताओं को लेकर एडवोकेट देवेन्द्र प्रकाश मिश्र ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका लगाई है। मिश्र के मुताबिक इस योजना की आड़ में राज्य सरकार के नुमाइंदों ने मामला कुछ ऐसा जमाया कि हजारों करोड़ रूपये का लाभ कंपनी के पाले में जाए और उससे होने वाला घाटा शासन की झोली में। इस सौदे में कंपनी के लिए जो लीज रेंट माफ किया गया है उससे उसे 5 हजार 276 करोड़ रुपए का लाभ होगा। याचिका में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके काबिना मंत्रियों (बाबूलाल गौर, जयंत मलैया और राजेन्द्र शुक्ल आदि) पर आरोप है कि उन्होंने निजी कंपनी को उपकृत करने के लिए अधिकारियों पर दबाव बनाया और सारे नियमों को ताक में रखकर जमीन के एक बड़े घोटाले को अंजाम दिया।वहीं, 27 सितंबर, 2008 की नोटशीट मुख्यमंत्री कार्यालय की कार्यशैली और विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देती है। इस योजना की नोडल एजेंसी आवास एवं पर्यावरण विभाग को जारी इस नोटशीट पर लिखा है। नोटशीट की प्रतिलिपि करा लें और प्रकरणों में लगा लें। पुन: कोई कार्रवाई आवश्यक हो तो की जाए। जानकारों की राय में यह एक ऐसी नोटशीट है जिसे जरूरत पडऩे पर कहीं भी उपयोग में लायी जा सकती है। जांच का विषय यह है कि यह नोटशीट अब तक किन-किन प्रकरणों में लगाईं जा चुकी है।क्यों कटघरे में शिवराज सिंह
पुनर्घनत्वीकरण योजना में राज्य की भाजपा सरकार ने जिस तरीके से भोपाल की सबसे कीमती जमीन गेमन को दी है ठीक उसी तर्ज पर और उसी के साथ उसे ग्वालियर (थाटीपुर) में भी यही प्रक्रिया अपनानी थी। किंतु ग्वालियर में छह साल बीत जाने के बाद भी जहां यह प्रक्रिया शुरू नहीं की गई है वहीं भोपाल में सरकार ने गेमन की तमाम अड़चनों को महज 24 घंटे में ही दूर करते हुए योजना की सारी औपचारिकताएं निपटा दीं। 17 अप्रैल 2008 का दिन राज्य के लिए मिसाल है जब 337 करोड़ रुपए की यह प्रक्रिया मुंबई (कंपनी कार्यालय) से भोपाल (कई सरकारी विभागों) तक बेरोक-टोक अपने मुकाम पर पहुंच गई। और इसी दिन गेमन ने दीपमाला इंफ्रास्ट्रक्चर को योजना की सहायक कंपनी बनाते हुए सरकार के साथ एक त्रिपक्षीय समझौता भी करती है। इसी के साथ योजना का सारा काम और लेन-देन दीपमाला कंपनी को सौंप दिया जाता है। मिले कागजात में दीपमाला कंपनी द्वारा सीधे मुख्यमंत्री को लिखे गए पत्र और उसके बाद कंपनी के पक्ष में अधिकारिक तौर पर अधीनस्थ विभागों को जारी किये गए निर्देश और फिर अधीनस्थ विभागों द्वारा मुख्यमंत्री को समय-समय पर इस योजना के कामों की स्थिति से अवगत करते हुए उनसे मार्गदर्शन लेते रहना बताता है कि मुख्यमंत्री कार्यालय ने दीपमाला कंपनी को किस हद तक तरजीह दी है। इस कड़ी में 27 अप्रैल 2008 का वह पत्र भी है जिसमें दीपमाला कंपनी के प्रबंधकों की मुख्यमंत्री से हुई पुरानी मुलाकात का हवाला देते हुए उनसे यह अपेक्षा की है कि वे इस काम के लिए अधिकारिक अनुमतियां दिलवाएंगे। इसी पत्र में अधिकारिक टीप में 29 अप्रैल 2008 को अधीनस्थ विभागों के आला अधिकारियों को हाजिर रहने का आदेश दिया गया।आम जनता का कोई हित नहीं है
इसी की अगली कड़ी में इस योजना की पर्यवेक्षक एजेंसी मप्र हाउसिंग बोर्ड द्वारा 2 फरवरीए 2009 को जारी की गई एक नोटशीट है जिसमें उसने मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा भेजी गई सौ दिन की कार्य योजना और इस संबंध में बताये गए दिशा-निर्देशों का जिक्र किया गया है। हम साथ ही यह भी बताते चलें कि इस मामले में मुख्यमंत्री की दिलचस्पी केवल पत्रों तक सीमित नहीं रही बल्कि उन्होंने कई बार अधिकारिक और अनाधिकारिक तौर पर निर्माण-स्थल का निरीक्षण करके यह जताने की कोशिश भी की है कि योजना सरकारी है। मगर जब तहलका ने दीपमाला कंपनी के महाप्रबंधक रमेश शाह से बातचीत की तो उन्होंने बताया, यह योजना प्राइवेट है। इससे होने वाले लाभ में सरकार की कोई हिस्सेदारी नहीं है। सवाल है कि इस पूरी योजना में जब आम जनता का कोई हित या हिस्सा नहीं है तो एक कंपनी की व्यवसायिक योजना के लिए मुख्यमंत्री ने अपने स्तर पर और इस हद तक मेहरबानी क्यों दिखाई।मेहरबानियां मांगती जवाब
गौरतलब है कि इस आवंटन में हुए गोलमोल की पोल खुलने की शुरूआत बीते साल जून में तब हुई जब सरकार ने कंपनी के पक्ष में जमीन फ्री-होल्ड (मालिकाना हक) कर दी। हालांकि विधानसभा के शीतकालीन सत्र में संसदीय मंत्री नरोत्तम मिश्र का कहना था कि सरकार ने जमीन फ्री-होल्ड नहीं की है। इस बीच, जब मामला हाईकोर्ट में सुनवाई के लिए पहुंचा तो सरकार ने 2 नवंबर 2012 फ्री-होल्ड करने का अपना फैसला वापस ले लिया। सरकार के इस कदम ने जहां खुद ही सिद्ध कर दिया कि वह गलत थी वहीं यह पूरा सौदा ही संदेहास्पद हो गया। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से पूरे मामले की सीबीआई से जांच कराने की मांग की है। उन्होंने बताया कि जमीन को फ्री-होल्ड करने का फैसला वापस लेने भर से सरकार बच नहीं सकती।पहले से तय था घोटाला
आरोप है कि कंपनी को लाभ पहुंचाने की भूमिका कहानी की शुरूआत में ही बना ली गई थी। इसके लिए सरकार ने शहरी इलाके को बेहतर ढंग से बसाने के लिए 2003 में बनाई गई गाइडलाईन को जिस तरह से बदला उससे राजस्व को 5 हजार 250 करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ेगा। पुरानी गाइडलाइन में साफ लिखा था कि जब तक कंपनी निर्माण पूरा नहीं करती तब तक उससे हर साल लीज रेंट लिया जाएगा, मगर 2005 की गाइडलाइन में कंपनी के पक्ष में लीज रेंट माफ कर दिया गया। भारतीय स्टाम्प की धारा-33 के मुताबिक हर लीज डील में व्यवसायिक उपयोग पर साढ़े सात प्रतिशत और आवासीय उपयोग पर पांच प्रतिशत सालाना लीज रेंट लिया जाए। याचिकाकर्ता के मुताबिक, इस योजना में कंपनी को यह जमीन तीस सालों के लिए लीज पर दी गई है और उसकी प्रीमियम राशि 335 करोड़ रुपए है। इस हिसाब से राज्य को कंपनी से हर साल 25.12 करोड़ रुपए मिलते। यानी तीस सालों में जनता के खजाने में 753 करोड़ रुपए आते। मगर योजना में लीज रेंट नहीं रखने से यह पैसा कंपनी के खाते में जाएगा। राजस्व के ही नियमों के मुताबिक तीस साल बाद जब लीज का नवीनीकरण किया जाता तो लीज रेंट छह गुना बढ़ जाता और अगले तीस सालों तक राज्य को सलाना 150 करोड़ रुपए मिलते। मगर इस पूरी योजना के लिए किए गए अनुबंध में नवीनीकरण करने के बाद भी लीज रेंट शून्य ही रखा गया, लिहाजा यहां भी जनता के खजाने को 4 हजार 522 करोड़ रुपए का चूना लगेगा, यह इतनी बड़ी रकम है कि इससे भोपाल के करीब दस हजार परिवारों के लिए आलीशान मकान खरीदे जा सकते थे, दूसरी तरफ पुरानी गाइडलाइन में तोड़े जाने वाले मकानों को उसी स्थान पर बनाने की बात भी थी। मगर नई गाइडलाइन में पर्यावरण और यातायात के नजरिये से उक्त मकानों को यहां बनाना अनुचित बताया गया। सवाल है कि यदि रहवास के लिए यह स्थान अनुचित है तो दीपमाला कंपनी को रहवासी परिसर बनाने की मंजूरी क्यों दी गई है।नहीं बरती पारदर्शिता
नीलामी के दौरान सरकार द्वारा पारदर्शिता न बरतते हुए जिस तरह से गेमन की तरफदारी की गई, उसके चलते नीलामी की प्रक्रिया भी विवादों के घेरे में है। मई-2007 में जब नीलामी का विज्ञापन प्रकाशित किया गया तब 28 कंपनियों ने आवेदन दिए। सरकार ने 17 कंपनियों को इस योजना के योग्य मानते हुए उनसे जमीन की प्रस्तावित कीमत मांगी। सरकार का दावा है कि 17 कंपनियों में से केवल गेमन ने ही अंतिम तारीख यानी 30 नवंबर 2007 तक 337 करोड़ रुपए की प्रस्तावित कीमत भेजी थी। जबकि याचिकाकर्ता का दावा है कि उनके पास रिलायंस एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड द्वारा 23 नवंबर 2007 को शासन को लिखा वह पत्र है जिसमें रिलायंस ने अंतिम तारीख बढ़ाने की मांग की थी। मगर सरकार ने इसमें कोई रुचि न लेते हुए गेमन के साथ करार किया। नई गाइडलाइन में यह साफ लिखा है कि अच्छी बोली की संभावना होने पर नीलामी दुबारा की जा सकती है। सवाल है कि सरकार ने गेमन के साथ करार करने में इतनी हड़बड़ी क्यों की? विशेषज्ञों का मानना है कि नीलामी में गेमन के ब्रांड की बड़ी भूमिका थी। किंतु गेमन को आगे करके बाद में जिस दीपमाला कंपनी को सारा काम सौंप दिया गया वह इस योजना के योग्य नहीं है. रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी (मुंबई) के मुताबिक इस योजना में दीपमाला की खुद की पूंजी सिर्फ एक लाख रुपए है।विपक्षी पार्टियों को मिला बड़ा मुद्दा
हमने इस बारे में जब मुख्यमंत्री चौहान से बात करनी चाही तो उनके निजी स्टॉफ ने कोई रूचि नहीं दिखाई, वहीं राज्य की भाजपा सरकार ने गेमन मुद्दे को चुनावी हथकंडा बताते हुए हाईकोर्ट में इस प्रकरण से चौहान का नाम हटाने की गुहार लगायी है। दूसरी तरफ चौहान को पटकनी देने के लिए मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के हाथ एक बड़ा मुद्दा तो लगा लेकिन उसने भी इस मुद्दे पर विधानसभा में साधारण से सवाल पूछकर पल्ला झाड़ लिया। इन दिनों राज्य में होने वाले बड़े घोटालों पर दोनों पार्टी के नेताओं ने एक-दूसरे को छेडऩा बंद-सा कर दिया है। इस बारे में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह से बात करने पर उन्होंने कहा, हमारे पास इसके पुख्ता सबूत हैं कि गेमन घोटाले में सीएम का सीधा हाथ है, पर यह बात हम आपको क्यों बताएं, सही मंच और सही समय पर बताएंगे। मध्य प्रदेश में विधानसभा का चुनाव सिर पर है लेकिन कांग्रेस का सही समय पता नहीं कब आएगा। वरना यह एक बड़ा मुद्दा है कि एक कंपनी की व्यवसायिक योजना के लिए मुख्यमंत्री ने इस हद तक मेहरबानी क्यों दिखाई?नोटिस देने वाले अधिकारी को ही हटा दिया
गेमन को सस्ते में जमीन देने का मामला भी सरकार के लिए बड़ी मुसीबत बन सकता है, ऐसा इसलिए कि उसने यह जमीन उसकी वास्तविक कीमत से काफी कम में बेची। दरअसल, जब एक आम आदमी लीज डीड (रजिस्टर्ड) में देरी करता है तो उस पर तत्काल अधिभार लगा दिया जाता है मगर दीपमाला कंपनी ने 22 सिंतबर 2011 यानी जमीन का सौदा होने के तीन साल बाद लीज डीड की। इस समय तक कलेक्टर की गाइडलाइन के मुताबिक यह जमीन 747 करोड़ रुपए की हो चुकी थी। मगर दीपमाला कंपनी ने 335 करोड़ रुपए ही जमा किए। जाहिर है इस कंपनी ने अपने निवेश काल में ही दुगुना मुनाफा कमा लिया था। इस पर भी उसने 335 करोड़ रुपए तीन सालों और तीन किश्तों में चुकाए। इसके लिए सरकार ने उससे न अतिरिक्त ब्याज की मांग की और न ही कंपनी ने यह ब्याज दिया। वहीं इस पूरे प्रकरण का दिलचस्प पहलू यह है कि इन विवादों के बावजूद सरकार द्वारा दीपमाला कंपनी पर की जा रही मेहरबानियों का सिलसिला है कि थमने का नाम नहीं लेता। इसी कड़ी में कंपनी ने नगर निगम को नर्मदा उपकर (पेयजल टेक्स) 3.41 करोड़ रूपये की जगह 1.41 करोड़ रूपये जमा किया। इस संबंध में तत्कालीन नगर निगम आयुक्त रजनीश श्रीवास्तव ने 13 दिसंबर को जब इस कंपनी को नोटिस थमाया तो मामले ने तूल पकड़ लिया। बाद में दीपमाला कंपनी ने नर्मदा उपकर जमा किया लेकिन इसी के साथ श्रीवास्तव को उनके पद से हटा दिया गया।
ब्यूरो/ बिच्छू डॉट कॉम se sabhar
No comments:
Post a Comment