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कहावत है कि ऊँट को उसकी ऊँचाई का अहसास तभी हो पाता है जब वह पहाड़ के नीचे आता है, ठीक वैसा ही मीडिया हाउसों के संचालकों को अहसास कराया है मजीठिया वेज बोर्ड ने। देश की आजादी के छह दशक बाद उन शोषकों को इस बात का अहसास हुआ है कि अब वह उन श्रमजीवी पत्रकारों का और शोषण नहीं कर सकेंगे, जो कि पिछले कई दशकों से करते आ रहे हैं। अगर यह मामला निचली अदालतों लेबर कोर्ट या हाईकोर्ट में होता तो भी इन शोषकों को कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि यहां ऐन-केन-प्रकारेण कोर्ट को गुमराह कर मामलों को लंबित कराना आसान होता है।
अब चूंकि मामला सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) के विचाराधीन है तो किसी की भी कारस्तानी नहीं चल पा रही है। कलम के सिपाहियों के दुख-दर्द को अगर किसी ने समझा है तो वह सिर्फ मजीठिया आयोग ने ही समझा है और उसकी जो अनुशंसाएं हैं उसने इन शोषकों के पैरों के नीचे से जमीन खिसका दी है। इसके पहले गठित वेतन आयोगों की सिफारिशों को तो ये हवा में उड़ा चुके हैं। लेकिन मामला अपने हाथ से निकलता देख अब ये अपने संस्थानों में कार्यरत कर्मचारियों को तरह-तरह की प्रताड़नायें देने पर आमादा हो गए हैं।
किसी का तबादला करके प्रताड़ित किया जा रहा है तो किसी को काम का बोझ अथवा मानसिक प्रताड़नायें देकर परेशान किया जा रहा है। यह पहला अवसर है जबकि देशभर के पत्रकार इतनी बड़ी संख्या में एकजुट होकर अपने हक के लिए श्रम विभाग से लेकर माननीय सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट)की शरण पहुंचे हैं। जिसकी मीडिया मैनेजमेंट ने कभी सपने में कल्पना भी नहीं की होगी। मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू नहीं करना पड़े इसके लिए अब प्रबंधन ने 20 (जे) नाम का एक नया हथकंडा अपनाकर माननीय न्यायालय को गुमराह करने की कोशिश शुरू की है, जिसका निराकरण भी जल्द ही होने वाला है।
इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हाल ही में 19 जुलाई को माननीय सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) में हुई सुनवाई के दौरान देखने को मिला है। कोर्ट ने मीडिया प्रबंधन की उस दलील को मानने से इंकार कर दिया है, जिसमें प्रबंधन ने यह कहते हुए कि मीडिया प्रबंधन ने अपने संस्थान में मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर दी हैं और वहां काम कर रहे कर्मचारियों ने 20 (जे) के तहत यह स्वीकार करते हुए हस्ताक्षर किये हैं कि उनको मिल रहे वेतन से वे संतुष्ट हैं। कई संस्थानों में इस तरह का छल-प्रपंच तो उसी समय शुरू हो गया था जबकि केंद्र सरकार और उच्चतम न्यायालय ने मजीठिया वेज बोर्ड की अनुशंसाओं को लागू करने के आदेश किये थे।
कर्मचारियों को बिना किसी जानकारी के किसी भी बहाने से एक सर्कुलर जारी कर सादे कागज पर हस्ताक्षर करवाते रहे हैं, जिसका दुरुपयोग अब वह मजीठिया वेतनमान देने से बचने के लिए यह कहकर कर रहे हैं कि कर्मचारियों ने स्वयं यह स्वीकार करते हुए हस्ताक्षर किये हैं कि वह संस्थान द्वारा दिये जा रहे वेतन से संतुष्ट हैं और इसी को वह 20 (जे) के तहत पेश कर रहे हैं। मजेदार बात तो यह रही कि मीडिया हाउसों की तरफ से पैरवी करने आये दिग्गज अधिवक्ता सलमान खुर्शीद,अभिषेक मनु सिंघवी, ए. सुंदरम, गोपाल जैन, ध्रुव मेहता भी कोर्ट के समक्ष अपना पक्ष नहीं रख सके।
कोर्ट ने उन्हें सुना तक नहीं, क्योंकि माननीय न्यायालय भी इनकी चालाकियों को समझ चुका है और अब वह दूध का दूध और पानी का पानी करने की ठान चुका है। अब यह बात मीडिया हाउसों के मालिकों और प्रबंधन को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि उनकी तानाशाही अब और नहीं चल पायेगी। बेहतरी इसी में है कि वह ईमानदारी से अपने कर्मचारियों को प्रसन्नतापूर्वक उनका हक दे दें, वरना सहाराश्री जैसा हश्र उनका भी हो सकता है। यह देश की सर्वोच्च संस्था ( सुप्रीम कोर्ट) है, इसे और अधिक समय तक गुमराह नहीं किया जा सकता है।
कहावत है कि ऊँट को उसकी ऊँचाई का अहसास तभी हो पाता है जब वह पहाड़ के नीचे आता है, ठीक वैसा ही मीडिया हाउसों के संचालकों को अहसास कराया है मजीठिया वेज बोर्ड ने। देश की आजादी के छह दशक बाद उन शोषकों को इस बात का अहसास हुआ है कि अब वह उन श्रमजीवी पत्रकारों का और शोषण नहीं कर सकेंगे, जो कि पिछले कई दशकों से करते आ रहे हैं। अगर यह मामला निचली अदालतों लेबर कोर्ट या हाईकोर्ट में होता तो भी इन शोषकों को कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि यहां ऐन-केन-प्रकारेण कोर्ट को गुमराह कर मामलों को लंबित कराना आसान होता है।
अब चूंकि मामला सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) के विचाराधीन है तो किसी की भी कारस्तानी नहीं चल पा रही है। कलम के सिपाहियों के दुख-दर्द को अगर किसी ने समझा है तो वह सिर्फ मजीठिया आयोग ने ही समझा है और उसकी जो अनुशंसाएं हैं उसने इन शोषकों के पैरों के नीचे से जमीन खिसका दी है। इसके पहले गठित वेतन आयोगों की सिफारिशों को तो ये हवा में उड़ा चुके हैं। लेकिन मामला अपने हाथ से निकलता देख अब ये अपने संस्थानों में कार्यरत कर्मचारियों को तरह-तरह की प्रताड़नायें देने पर आमादा हो गए हैं।
किसी का तबादला करके प्रताड़ित किया जा रहा है तो किसी को काम का बोझ अथवा मानसिक प्रताड़नायें देकर परेशान किया जा रहा है। यह पहला अवसर है जबकि देशभर के पत्रकार इतनी बड़ी संख्या में एकजुट होकर अपने हक के लिए श्रम विभाग से लेकर माननीय सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट)की शरण पहुंचे हैं। जिसकी मीडिया मैनेजमेंट ने कभी सपने में कल्पना भी नहीं की होगी। मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू नहीं करना पड़े इसके लिए अब प्रबंधन ने 20 (जे) नाम का एक नया हथकंडा अपनाकर माननीय न्यायालय को गुमराह करने की कोशिश शुरू की है, जिसका निराकरण भी जल्द ही होने वाला है।
इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हाल ही में 19 जुलाई को माननीय सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) में हुई सुनवाई के दौरान देखने को मिला है। कोर्ट ने मीडिया प्रबंधन की उस दलील को मानने से इंकार कर दिया है, जिसमें प्रबंधन ने यह कहते हुए कि मीडिया प्रबंधन ने अपने संस्थान में मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर दी हैं और वहां काम कर रहे कर्मचारियों ने 20 (जे) के तहत यह स्वीकार करते हुए हस्ताक्षर किये हैं कि उनको मिल रहे वेतन से वे संतुष्ट हैं। कई संस्थानों में इस तरह का छल-प्रपंच तो उसी समय शुरू हो गया था जबकि केंद्र सरकार और उच्चतम न्यायालय ने मजीठिया वेज बोर्ड की अनुशंसाओं को लागू करने के आदेश किये थे।
कर्मचारियों को बिना किसी जानकारी के किसी भी बहाने से एक सर्कुलर जारी कर सादे कागज पर हस्ताक्षर करवाते रहे हैं, जिसका दुरुपयोग अब वह मजीठिया वेतनमान देने से बचने के लिए यह कहकर कर रहे हैं कि कर्मचारियों ने स्वयं यह स्वीकार करते हुए हस्ताक्षर किये हैं कि वह संस्थान द्वारा दिये जा रहे वेतन से संतुष्ट हैं और इसी को वह 20 (जे) के तहत पेश कर रहे हैं। मजेदार बात तो यह रही कि मीडिया हाउसों की तरफ से पैरवी करने आये दिग्गज अधिवक्ता सलमान खुर्शीद,अभिषेक मनु सिंघवी, ए. सुंदरम, गोपाल जैन, ध्रुव मेहता भी कोर्ट के समक्ष अपना पक्ष नहीं रख सके।
कोर्ट ने उन्हें सुना तक नहीं, क्योंकि माननीय न्यायालय भी इनकी चालाकियों को समझ चुका है और अब वह दूध का दूध और पानी का पानी करने की ठान चुका है। अब यह बात मीडिया हाउसों के मालिकों और प्रबंधन को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि उनकी तानाशाही अब और नहीं चल पायेगी। बेहतरी इसी में है कि वह ईमानदारी से अपने कर्मचारियों को प्रसन्नतापूर्वक उनका हक दे दें, वरना सहाराश्री जैसा हश्र उनका भी हो सकता है। यह देश की सर्वोच्च संस्था ( सुप्रीम कोर्ट) है, इसे और अधिक समय तक गुमराह नहीं किया जा सकता है।
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