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कभी समाज सेवा के नाम पर कभी ,जातिगत आयोजनों के नाम पर कभी राजनीतिक दलों के प्रभाव पर ,कभी अधिकारियों के परिवारों एवं सगे संबंधियों की फर्म/कंपनियों एवं तथाकथित उनके परिवार एवं नौकरों के नाम पर जारी शीर्षकों के नाम पर प्रतिवर्ष करोड़ों की म.प्र.जनसंपर्क विभाग की बजट राशि आहरित हो जाती है। इस नियत कालिक भ्रष्ट प्रक्रिया के अतिरिक्त माननीयों के पूर्व के काले कारनामों को छिपाने तथा समाज में दबंगई कायम रखने के लिए और भविष्य को लक्ष्मीपति बनाने में राशि का भरपूर दोहन होता है। और सरकारी रिकार्ड में इन्दा्रज होता है जनहित में प्रचार प्रसार हेतु पत्रकारों पर किया गया व्यय।
जबकि वास्तविकता इसके विपरीत होती है। वास्तविक स्वच्छ पत्रकारित करने वाले पत्रकार भीड़ से दूर अपने निजी संसाधनों के साथ विना कोई शासन का सहयोग लिए अपने कार्य का निर्वहन करते है। वे न अपेक्षा करते है विज्ञापन का न आर्थिक सहयोग का न वाहन सुख का। जनसंपर्क विभाग की बजट राशि का किस कदर दुरूपयोग किया जाता हैजिसे सार्वजनिक होने पर अतिगंभीर परिस्थिति निर्मित हो सकती है । इस काले कारोबार को छिपाने के लिए भ्रष्ट तंत्र का गठन किया गया है । इस तंत्र में अधिकांश वे ही लोग है जो स्वयं के दाग ढंके रखने के साथ साथ मीडिया के दलाल प्रवृति के लोगो के साथ लेकर अपना सशुल्क मनमफिक प्रचार प्रसार काराने में सक्षम है।
इस विगाग का वैसे तो कार्य है प्रदेश की जनता और सरकार के बीच संवाद स्थापित कर सरकार की नीतियों का समाज के मध्य प्रचार प्रसार एवं जन भावनाओं की अपेक्षाओं को सरकार तक पहुंचाना। परन्तु विभाग का एक सूत्री कार्यक्रम है वास्तविक पत्रकारिता से जुड़े लोगों से जानकारी छिपाना ,धमकाना और चापलूस दलाल एवं कमीशन देने वालों को पुचकारना। इस संबध पूर्व में पत्रकारों के साथ मारपीट एवं विभाग के अन्दर किसी न किसी के साथ निरन्तर दुवयवहार की घटनाऐं साक्षात अनेको प्रमाण है ।
म.प्र.सरकार का एक वहुत की अच्छा एवं प्रशंसनीय लोकव्यापी कार्य पारदर्शी व्यवस्था के तहत प्रत्येक विभाग के मुखिया को कार्य करना है। शिकायत मिलने पर निश्चित समयसीमा में निदान करना है। शिकायतों के निदान हेतु प्रदेश सरकार के प्रत्येक कार्यालय में हर मंगलवार को जन सुनवाई का आयोजन होता है जिसमें कार्यालय प्रमुख की उपस्थिति में संबंधित अधिकारी उसी समय शिकायत/समस्या का निदान करते है । परन्तु कितने आश्चर्य की बात है कि जनसंपर्क संचालनालय में विभाग के मुखिया कार्यालयीन समय में शायद की ही कभी बैठते होंगें ,शायद कभी नही अगर बैठते भी होगें तो कार्यालय समय के उपरान्त अर्थात शाम छ:-सात बजे के उपरान्त अथवा देर रात्रि में । और ना ही कोई जन सुनवाई जैसा कोई आयोजन के वारे में कोई जानता है।
सीधा सा मतलव है भ्रष्टाचार को छिपाना है । जो भी प्रदेश की जनता के सामने खबर को परोसना है रात्रि में बता दो दूर अंचल से आने वाले पत्रकारों से न मिलों न किसी माननीय के वारे में पूछने का मौका दो। अगर परिचर्चा का मौका दिया बजट की बात भी होगी । विभागीय मंत्री पर पुलिस में पंजीबद्ध आपराधिक अपराध, उनके पीए की चर्चित फर्जी डिग्रीयों की वात भी करेंगें। और फर्जी पत्रकार यात्राओं से लेकर सिरोज तक बात जायेगी । अगर जानकारी दी तो मुसीबत नही दी तो आफत ।
आखिर स्वयं भी तो फंसे है लोकायुक्त के जाल में । ले दे के एक ही काम बचता है , समय पास करो पुराने भ्रष्टाचार को छिपाओं विभाग की गुटवाजी में अपना सामंजस्य बिठाओं विभाग के बजट में कमीशन लेकर नया आर्थिक लाभ कमाओ। इसमें परम्परा भी बनी रहेगी सरकार भी चलती रहेगी पाप भी छिपे रहेंगें। इसमें राष्टीय स्तर के न्यूज चैनलों एवं समाचार पत्रों के मालिको का भी कुछ ऐसा ही मत है -
"खुदा उनको मिले जिन्हें खुदा की तलाश,
हमको हमारा हिस्सा मिले बस बात ख़लास"
हमको हमारा हिस्सा मिले बस बात ख़लास"
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