भोपाल। मध्य प्रदेश जनसंपर्क विभाग में लूट मची है। कारण यह कि उसने चुनिंदा अफसरों को विज्ञापन देने से लेकर पैकेज देने के अधिकार दे रखे हैं। ऐसा कहते हैं कि घर की लाज पत्नी बचाती है, बड़े से लेकर छोटे अखबार के सभी संपादक अच्छी तरह जानते है जनसंपर्क की लाज लाजपत आहूजा के हाँथ में है और आहूजा जी इज्जत देने वालों की इज्जत केसे उतार लेते है सब वाफिक है।
शिवराज सिंह अपने सलाहकारों के कहने पर समय-समय पर प्रकारांतर से मीडिया को चमकाते रहते हैं। देश का सबसे बड़ा अखबार समूह जब जरा-सी भी सरकार विरोधी चलता है तो उसकी ऑइल फैक्ट्री पर खाद्य विभाग के अधिकारी पहुंच जाते हैं। उसके माल की नपती होने लगती है। वहां टीएनसीपी और सिटी प्लानर पहुंच जाते हैं।
राजस्थान से मध्यप्रदेश में प्रवेश करने वाले एक नए-नवेले अखबार के आते ही उसमें सत्ता-विरोधी खबरें लगीं तो वह जनसंपर्क विभाग के विज्ञापन के रेट के लिए तरसता रहा। जब रेट आ गए तो उसे विज्ञापन नहीं दिए गए। विज्ञापन बंद कर दिए गए। इसे कहते हैं, सोफिस्टिकेटेड-वे में धमकाना। शिवराज सिंह को यह सीख स्वर्गीय कुशाभाऊ ठाकरे, पंडित दीनदयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने तो नहीं दी होगी।
दरअसल, यह सीख जनसंपर्क विभाग के लज्जाजनक आहूजा ने दी. सभी अखबारात को और इलेक्ट्रॉनिक चौनलों को सरकारी विज्ञापन लेने का मौलिक अधिकार है। प्रसार संख्या के अनुसार राज्य सरकार को विज्ञापन देना ही होगा, ऐसा मैं नहीं कहता। कुछ माह पूर्व कुछ अखबार मालिकों ने प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू से यह शिकायत की थी कि हमारे विज्ञापनों का पेमेंट राज्य सरकारों के जनसंपर्क विभाग द्वारा इसलिए रोक दिया गया है कि हमने सत्ता-विरोधी खबरें छापी थीं।
इस पर श्री काटजू की दलील थी कि विज्ञापन लेना अखबारों का अधिकार है और सत्ता-विरोधी खबरों के कारण सरकारें विज्ञापन न दें, यह गलत है। अब अखबार मालिकों के विवेक पर है कि वे राज्य सरकार के अघोषित आपातकाल को झेलकर और अपमानित होकर धनबल के हस्तिनापुर से बंधे रहें अथवा मुखर हों। यह मैं उनके विवेक पर छोड़ता हूं। (साई)
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