Wednesday, July 27, 2011

भ्रष्टाचार को आम लोगों की पहुंच से दूर बनाएगा लोकपाल


भोपाल // आलोक सिघंई (टाइम्स ऑफ क्राइम)

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देश भर की सरकारें शराब बंदी न कर सकीं तो उन्होंने शराब पर इतने सारे टैक्स लाद दिए कि आम आदमी उसका सेवन न कर सके. इसी तरह भ्रष्टाचार को बड़ी सामाजिक बुराई बताने वालों का जोश देखकर सरकार ने जो तिकड़म भिड़ाई उसकी काट करने के लिए उसे लोकपाल से अच्छा विकल्प नजर नहीं आ रहा है. सरकार खुद चाहती है कि लोकपाल बना दिया जाए. उससे एक ओर तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए बनाई गई जांच एजेंसियों के कामकाज को सुधारने के लिए कानूनी फेरबदल संभव हो सकेगा. दूसरी ओर भ्रष्टाचार से लड़ने में बुरी तरह असफल यूपीए की सरकार को जनता का कोपभाजन बनने से भी बचाया जा सकेगा. सरकार ने अपना लोकपाल बिल तैयार कर लिया है और उसे कैबिनेट की अगली बैठक में मंजूर भी करा लिया जाएगा. दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाए जाने के संबंध में सर्वदलीय बैठक के दौरान कुछ सुझाव जरूर आए थे पर उनके बारे में कोई फैसला कैबिनेट ही ले सकती है. हालांकि संयुक्त मसौदा समिति में शामिल पांचों मंत्रियों का कहना है कि प्रधानमंत्री के पद को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए.

भ्रष्टाचार को लेकर देश भर में जो बहस चल रही है वह लगभग विचार मंथन के अंतिम दौर में पहुंच गई है. देश की जनता चाहती है कि भ्रष्टाचार पर कोई प्रभावी कार्रवाई की जाए. इस बात से तमाम राजनीतिक दल भी सहमत हैं लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था के भारी भरकम बोझ तले कुचले जा रहे लोगों को इससे कोई राहत की उम्मीद नजर नहीं आती,क्योंकि कांग्रेस और भाजपा के दिग्गज नेता लोकपाल के नाम पर तरह तरह के मुंह बनाकर भागते फिर रहे हैं. कपिल सिब्बल ने तो इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के बैनर तले चलाए जा रहे जनमत संग्रह को दो टूक शब्दों में खारिज कर दिया है. उनका कहना है कि ये न तो जनमत संग्रह है और न ही सर्वे.

आजादी के बाद सन् 1968 में लोकपाल बिल का पहला ड्राफ्ट देश के जाने माने कानूनविद शांतिभूषण ने तैयार किया था. चौथी लोकसभा ने वर्ष 1969 में इसे पारित भी कर दिया था लेकिन राज्य सभा ने इसे वापस कर दिया.इसके बाद वर्ष 1971, 1977, 1985, 1989, 1996 ,1998, 2001, 2005 और फिर 2008 में इस बिल को पारित करवाने की मुहिम चलाई गई. लेकिन आज तैतालीस साल बीत जाने के बाद भी लोकपाल बिल भारत का कानून नहीं बन सका है.

देश की सरकारें हर साल सैकड़ों कानून बनाती हैं और उम्मीद करती हैं कि देश विकास की राह पर आगे बढ़ निकलेगा. हजारों कानून लागू होने के बावजूद देश में भ्रष्टाचार की गटर गंगा दिन दूनी रात चौगुनी गति से गंदगी फैला रही है और आज हालत ये हो गए हैं कि इस गंदगी के सैलाब ने लोगों का जीवन दूभर कर दिया है. लोगों की बैचेनी का आलम ये है कि वे पिछले पांच सालों से चलाए जा रहे बाबा रामदेव के आंदोलन को सफल बनाने के लिए हर दिन सुबह ठंडी सांसें लेकर केन्द्र सरकार को कोसते हैं. जब स्व.राजीव दीक्षित ने देश में स्वदेशी आंदोलन को आवाज दी तो लोगों ने उसे पसंद किया पर असंभव कहकर उसे नजरंदाज भी कर दिया. बाबा रामदेव का आंदोलन जब इसी मुद्दे पर आगे बढ़ा तो लोगों को कुछ उम्मीद जगी. लेकिन जब अन्ना हजारे जन लोकपाल बिल को मंजूर कराने के लिए दिल्ली पहुंचे तो लोगों के सब्र का बांध जैसे फूट गया. अन्ना हजारे के आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन की वजह बहुत गंभीर थी. उनके आंदोलन की नींव देश के वरिष्ठ कानूनविद शांतिभूषण के मार्ग दर्शन में रखी गई थी. अरविंद केजरीवाल और कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े, श्रीमती किरण बेदी जैसे लोग इस आंदोलन के साथ खड़े थे.

इन सबसे बढ़कर देश का मीडिया इस आंदोलन में कूद पड़ा और रातोरात भ्रष्टाचार की बैचेनी का झरना धमाके के साथ फूट पड़ा.

ये सारी मशक्कत बेकार नहीं जाती यदि देश के शासक वर्ग भ्रष्टाचार को लेकर कोई स्पष्ट विचारधारा लेकर चल रहा होता. देश में कहने को तो लोकतंत्र है पर हकीकत में आज भी शासक और शासितों के बीच एक बड़ी खाई मौजूद है. दिन ब दिन बनते बिगड़ते कानूनों ने इस खाई को और भी चौड़ा कर दिया है. आज देश में कानून इतने ज्यादा हैं कि इस विषय के नए विद्यार्थी एक दूसरे को खारिज करते कानूनों के बीच उलझकर रह जाते हैं. भारतीय दंड संहिता पूरे देश के तमाम नागरिकों के लिए समान है लेकिन हकीकत इससे ठीक उलट है. शासक वर्ग के अपराध छुपाने के लिए दंड संहिता की व्याख्या मनमाने ढंग से कर दी जाती है.

हालत ये है कि मौजूदा लोकायुक्त व्यवस्था इस भ्रष्टाचार की परिभाषा अपने ही ढंग से करती रहती है. मध्यप्रदेश के पूर्व लोकायुक्त जस्टिस रिपुसूदन दयाल ने जब भोपाल के रिविएरा टाऊन में मकान खरीदा तो उन्हें लाभ पहुंचाने के लिए मध्यप्रदेश हाऊसिंग बोर्ड के अफसरों ने तमाम नियमों और कानूनों को ताक पर धर दिया. बोर्ड के नियमों को रातोंरात बदल दिया गया. लोकायुक्त के इशारे पर ही ये सारा खेल रचा गया. सरकारी तंत्र के इस दुरुपयोग में कई अधिकारियों ने तो कथित तौर पर बाकायदा चैक से भुगतान किए. जब इस मामले की शिकायत सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत प्राप्त किए गए वैधानिक दस्तावेजों के आधार पर लोकायुक्त संगठन की विशेष स्थापना पुलिस को की गई तो उसने बाकायदा शिकायत दर्ज की और माननीय लोकायुक्त महोदय के पद पर रहते हुए जांच भी कर डाली. रातोंरात हुई इस जांच में लोकायुक्त महोदय को क्लीनचिट दे दी गई.

लोकायुक्त अधिनियम में शिकायत कर्ता को शपथ पत्र के आधार पर शिकायत करनी होती है.इसलिए शिकायत कर्ता के रूप में बाकायदा शपथ पत्र भी प्रस्तुत किए गए थे. शिकायत में जिन दस्तावेजों को आधार बनाया गया था वे सभी सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत प्राप्त किए गए दस्तावेजों की प्रमाणित सत्य प्रतिलिपियां थीं. इसके बावजूद लोकायुक्त संगठन ने शिकायत कर्ता के रूप में पत्रकार आलोक सिंघई और उनके सहयोगी एडव्होकेट नरेन्द्र भावसार के विरुद्ध झूठी शिकायत करने का मुकदमा दर्ज करा दिया. आमतौर पर भ्रष्टाचार की शिकायतों को आधार न मिलने पर प्रारंभिक जांच के बाद ही खारिज कर दिया जाता है पर इस मामले में चूंकि लोकायुक्त के पद पर बैठे जस्टिस रिपुसूदन दयाल स्वयं सवालों के घेरे में थे इसलिए लोकायुक्त संगठन की डूबती साख बचाने के लिए विशेष पुलिस स्थापना लोकायुक्त पिछले तीन सालों से ये मुकदमा अदालत में घसीट रहा है. इस पर जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च किया जा रहा है. सरकारी दस्तावेजों के आधार पर की गई ये शिकायत जस्टिस रिपुसूदन दयाल के खिलाफ थी लेकिन उनको बेदाग बचाने के लिए मुकदमा लोकायुक्त संगठन लड़ रहा है. इस सारी कवायद में रिपुसूदन दयाल के भ्रष्टाचार की जांच पीछे छूट गई है.

जो मुकदमा जस्टिस रिपुसूदन दयाल के खिलाफ दायर किया गया था उसे मध्यप्रदेश के माननीय हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद जिला अदालतों ने बाकायदा सुना.शिकायत कर्ताओं के तथ्यों की जांच करवाकर उन्हें सही भी पाया. इसके बावजूद दो निचली अदालतों ने यह कहकर शिकायत को खारिज कर दिया कि इस मामले में प्रथम दृष्टया भ्रष्टाचार होना प्रतीत नहीं होता है. हालांकि दोनों शिकायत कर्ता इस मामले को लेकर जबलपुर उच्च न्यायालय में पहुंच गए हैं और उम्मीद है कि ऊपरी अदालत उनके तथ्यों पर गौर अवश्य करेगी. एक माननीय जस्टिस के इस अमानवीय कृत्य के लिए दो नागरिक अदालतों में एडियां घसीट रहे हैं और श्री दयाल कथित तौर पर भ्रष्ट तरीकों से अर्जित अपनी करोड़ों रुपयों की जायदाद के साथ सेवानिवृत्ति की शानदार जिंदगी का आनंद उठा रहे हैं.

भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए गठित की गईं तमाम जांच एजेंसियों को वो भ्रष्टाचार आज भी नजर नहीं आ रहा है जिसे कुछ आम नागरिकों ने करीब से देखा. यदि मध्यप्रदेश सरकार और यहां के अधिकांश राजनीतिक दलों ने अपनी आंखों पर पट्टी नहीं बांध रखी होती तो शायद ये देश में पहला उदाहरण होता कि जब एक माननीय को सड़कों पर हथकड़ियां लगाकर घुमाया जा सकता था. इस मामले में जब राज्य की पुलिस से शिकायत की गई तो महज पुलिस एक्ट का उपयोग कहने वाले थानेदार ने विद्वान न्यायाधीश के समान कई दलीलें पेश करते हुए मामले में खात्मे की सिफारिश कर डाली. राज्य के आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो ने भी आनन फानन में आंखें मूंदकर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे जस्टिस रिपुसूदन दयाल को क्लीनचिट दे दी.

भ्रष्टाचार हटाने के लिए तैनात किए गए इन लोकायुक्त महोदय के कारनामों की चर्चा तो तब होती अदालत में चल रहे मुकदमे के साथ साथ जांच एजेंसिंयां उनके कार्यकाल में लिए गए फैसलों की छानबीन भी करतीं. संगठन को प्राप्त जो शिकायतें खारिज कर दीं गईं उनमें कौन की दलीलें दी गईं उन पर गौर किया जाता. उनके कार्यकाल के दौरान बिलों के भुगतान और माननीय के बैंक खातों की छानबीन होती. मजेदार बात है कि करोड़ों रुपयों की अनुपातहीन संपत्तियां रखने वाले जस्टिस रिपुसूदन दयाल के बैंक खातों की जो जानकारी शिकायत कर्ताओं ने जुटाकर जांच एजेंसियों को दी उन पर देश की किसी जांच एजेंसी ने गौर ही नहीं किया. आयकर विभाग के सूचना तंत्र ने न तो माननीय की अचल संपत्तियों की छानबीन की और न ही ये पता किया कि आखिर श्री दयाल के पास इतना पैतृक सोना कहां से आया था जिसे बेच बेचकर उन्होंने लोकायुक्त बनने के बाद करोड़ों रुपयों की नामी और बेनामी दौलत कबाड़ ली.

जस्टिस रिपुसूदन दयाल सिक्किम हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश बनने के पहले दिल्ली की अदालत में जज थे.लेकिन जब सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत दिल्ली के न्याय प्रशासन से उनके बारे में जानकारी मांगी गई तो कोई जवाब नहीं मिला. जब यह मामला केन्द्रीय सूचना आयुक्त के सामने प्रस्तुत किया गया तो दिल्ली न्याय प्रशासन के रजिस्ट्रार ने दो टूक शब्दों में कह दिया कि श्री दयाल के कार्यकाल का रिकार्ड उसके पास उपलब्ध ही नहीं है.

श्री दयाल की स्कूली पढ़ाई कैसी थी और उन्होंने अपने जीवन में कौन कौन से फैसले किए इनके बारे में कोई जानकारी देश के सूचना तंत्र के पास नहीं है. उन पर सिक्किम हाईकोर्ट में अपनी कार को सरकारी कार दर्शाकर उसका ईंधन व्यय लेते रहने और फिर सरकारी कार को बेचकर उसकी रकम अपने खाते में जमा करा लेने का एक मामला भी चला लेकिन अपने ही अधीन जज से इस मामले को अनिर्णीत घोषित करवाकर बच निकले श्री दयाल मध्यप्रदेश में लोकायुक्त बना दिए गए. यहां उन्होंने भ्रष्ट अधिकारियों को जिस अंदाज में बरी किया और उनके आशीर्वाद से अफसरों ने वसूली का जो नंगा नाच किया उसे देखकर कोई भी व्यक्ति कहेगा कि लोकायुक्त व्यवस्था को समाप्त कर देना ही ज्यादा बेहतर है. राज्य के वाणिज्यकर विभाग के एक उपायुक्त ऋषभ कुमार जैन को श्री दयाल के प्रिय अफसर ने पहले तो रिश्वत पहुंचाकर रंगे हाथों गिरफ्तार कर लिया और फिर अपनी हिरासत में उसकी बेइंतिहा पिटाई की गई जिससे उसकी मौत हो गई. इस मामले में भी लोकायुक्त संगठन ने उस अफसर को बचाने के लिए मोटी फीस चुकाई.

काले धन और भ्रष्टाचार को लेकर जो आंदोलन देश में चल रहा है उसे देश के कर्णधारों की इच्छाशक्ति को मजबूत बनाए बिना सफल नहीं किया जा सकता. आज देश में केन्द्रीय और राज्य स्तर पर ढेरों जांच एजेंसियां हैं. हजारों जांचकर्ता छोटे से छोटे भ्रष्टाचारों की छानबीन करते रहते हैं इसके बावजूद भ्रष्टाचार का दानव दिन दूनी रात चौगुनी गति से अपना आतंक फैलाता जा रहा है. इन जांच एजेंसियों के बीच कोई आपसी तालमेल नहीं है. हर जांच एजेंसी की मंडली अपना राग अलाप रही है. अदालतों में मुकदमों का अंबार लगा है और अपराधी, सबूतों के अभाव में छूटते जा रहे हैं. जो असरदार हैं उनकी कालर राजदंड की पकड़ से बहुत दूर हैं.

जन लोकपाल बिल में लोकपाल और लोकायुक्त को दंड देने और भ्रष्टाचारियों की संपत्तियां जब्त करने का अधिकार देने की सिफारिश की गई है. यह कहा जा रहा है कि यदि किसी व्यक्ति ने नियम और कानूनों के बेजा इस्तेमाल से बेजा लाभ अर्जित किया है तो उसे भ्रष्टाचार माना जाएगा. आज इसे साबित करना टेढ़ी खीर होता है. बल्कि इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने वाले को ही साबित करना होता है कि भ्रष्टाचार किया गया है. इस दौरान पूरी जांच एजेंसियां खामोश रहती हैं जबकि शिकायतकर्ता इतने सक्षम नहीं होते कि वे तमाम तथ्यों की कड़ी जोड़ सकें.

सरकार जिस लोकपाल बिल को मंजूरी देने पर सहमत होती नजर आ रही है उसके बारे में कहा जा रहा है कि वह भी नखदंत विहीन संगठन ही होगा. जब तक इस कानून के अंतर्गत प्रधानमंत्री और देश के मुख्य न्यायाधिपति को नहीं लाया जाएगा तब तक भ्रष्ट लोगों को सजा दिलाना संभव नहीं होगा. क्योंकि सभी अदालतों और जांच एजेंसियों के बीच अपराधी साबित होने वाले लोगों को इन पदों पर बैठे माननीय अपना आशीर्वाद देकर बचा सकते हैं.वास्तव में यदि देश की विकास प्रक्रिया को गति देना है तो तमाम प्रशासनिक एजेंसियों और जांच एजेंसियों के बीच तालमेल बनाने के लिए सूचना क्रांति का सहारा लेना होगा. कानूनों की भीड़ में जन लोकपाल नाम से एक नया कानून बन भी जाए तो यह नहीं कहा जा सकता कि देश के लोगों को भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन मुहैया कराया जा सकता है. आज जो कानून हैं उनके बीच किसी भ्रष्ट लोकायुक्त को दंडित कराना एक दुष्कर कार्य है. इसलिए ये कैसे कहा जा सकता है कि कभी कोई लोकपाल भ्रष्ट नहीं होगा और होगा तो उसे दंडित कराया जा सकेगा. यदि लोकपाल को सर्वशक्तिमान बना दिया गया तो क्या गारंटी है कि वो किसी वैश्विक ताकत के इशारे पर भारत के निर्वाचित प्रधानमंत्री को भी झमेले में नहीं डालेगा.

बस इसी बात पर जन लोकपाल बिल पिछले तैतालीस सालों से दर दर की ठोकरें खा रहा है. केन्द्र सरकार यदि अन्ना हजारे की टीम के दबाव के आगे झुककर यदि सरकारी लोकपाल बिल भी लागू कर देती है तो देश भ्रष्टाचार मुक्त भले ही न बन पाए पर हालात मौजूदा स्थितियों से थोडा आगे तो बढ़ेंगे ही. कम से कम भ्रष्टाचार इतना मंहगा तो हो ही जाएगा कि उसके आरोप से मुक्त होने के लिए भ्रष्टों को ज्यादा बड़ी रकम खर्च करना पड़ेगी.

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