क्या करते हो गुड्डू? कुछ भी तो नहीं... वो क्या है कि हां बोलो रूक क्यों गये। आप बड़ी वो हैं, नाहक मुझे परेशान करती है। अगर किसी ने कभी देख लिया तो मेरी तो नौकरी खतरे में पड़ जाएगी। अच्छा गुड्डू एक बात बता तू, झूठ बिल्कुल मत बोलना।
हां पूछो, तुझे मैं अच्छी लगती हूं या यह नौकरी... जान बुझकर शानों ने अपना साड़ी का पल्लू जमीन पर गिरा दिया, उसके अर्धचन्द्राकर ब्लाउस के कर से उसके खुबसूरत बदन साफ नुमाया हो गए। शानों ने चंद कदम और आगे पढ़ाये उसने गुड्डू का हाथ अपने हाथ में लिया और बोली देखा गुड्डू तुम नासमझ नहीं हो, विवाहित हो, औरत मर्द के संबंधों को जानते हो, पर वो क्या...देखो गुड्डू अगर मेरी बात मानोगे तो तुम्हें कोई कमी नहीं रहेगी। जो तुम चाहोगे तुम्हे मिलेगा, पर अगर तुमने मेरी बात न मानी तो मैं... क्या मैं-मंै लगा रखी हैं। बरसात कर दी। गुड्डू के अन्दर का मर्द जाग गया। उसने तमाम रिश्ते नातों और मर्यादाओं को पीछे छोड़ दिया, दोनों की सांसे तेज हो गई हालात कुछ ऐसे बने कि किचन छोड़ कर दोनों बेडरूम पहुंचे। इस सब के पीछे एकऐसी दास्तां है जो हर पल बारिककियों से बुने गए। हैरत अंगेज दिमाग की शांतिरिया बयान करती है। कहानी को जानने के लिए हम दस साल पहले चलते है। जब शानों की नई-नई शादी हुई थी। देवगढ़ की पीली हवेली देवगढ़ के राजा की हवेली थी, राजा रजवाड़े भले ही खत्म हो गए थे, पर आज भी देवगढ़ के वारिस कुवर दीपेन्द्र बहादुर उसी जितने दौलतमन्द थे, उतने ही खुश मिजाज और रहम दिल भी, किसी भी मजबूर लाचार आदमी को देखते ही उनका दिल भी, किसी भी मजबूर लाचार आदमी को देखते ही उनका दिल पसीज उठता था।
उनके तीन चीनी मिट्टी के कारखाने थे। एक घी बनाने की फैक्टरी थी। पुस्तैनी जमीन थी। आज भी उनका रूतबा राजा महाराजा से कम न था। घर में यूं तो नौकर चाकरों की फौज थी। पर गुड्डू उनका पारिवारिक नौकर था। वह किचन की सारी व्यवस्था सम्भालता था। घर के स्वामी कुंवर दीपेनद्र बहादुर की उम्र 24 साल की हो गई थी। पर उन्होंने शादी नहीं की थी, माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका था। सारी जिम्मेदारी दीपेन्द्र बहादुर बड़ी जिम्मेदारी के साथ निभा रहे थे। कुछ समय बाद दक्षिण भारत में बसे एक परिवार से उनके लिए एक रिश्ता आया, दीपेन्द्र बहादुर ने जाने क्यों शादी के बंधन में बंधना नहीं चाहते थे। कई लड़कियों व परिवारों को वह ना पसंद कर चुके थे। पर जब उन्होंने शानों को देखा तो उनकी आंखें चुंधिया गई। वह बिना पलक झपकायें शानों के अद्वितीय सौंदर्य को निहारते रहे। अपने को इस तरह टकटकी लगाए देखे जाने से शानों शर्मा गई। शानों की यह अदा दीपेन्द्र बहादुर को और भी भा गई। फिर शहनाई बजने में देर नहीं लगी।
शानों ने बहू के रूप में घर में कदम रखा। उसने अपने मृदल स्वभाव से सभी का दिल जीत लिया। बहू के कदम घर में क्या पड़े, व्यापार में चौमुखी बढ़ोत्तरी होने लगी, इसका परिणाम यह हुआ कि अब दीपेन्द्र बहादुर का ज्यादातर समय व्यापारिक गतिविधियों में बीतता था। पर दीपेन्द्र बहादुर अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से भी विमुख नहीं हुए थे। उनकी दो संताने हुई। दोनों स्कूल में पढऩे लगी। दीपेन्द्र बहादूर के शरीर पर अब उम्र बढऩे की झलक दिखने लगी थी, पर रेवा अभी पहले निखरी हुई थी। उसे घर में दीपेन्द्र की अनुपस्थिति काफी खलती थी। बड़े घर की बहू थी, सो इधर-उधर भी आ जा नहीं सकती थी।
शानों का मन जब भटका तो उनकी नजर गुड्डू पर जा कर ठहर गई। गुड्डू घर का रसोइयां था, शानों पहले गुड्डू को इशारे करती रही पर गुड्डू जान कर अनजान बना रहा, पर उस दिन...इसके बाद गुड्डू और शानों के बीच वासना का जो घिनौना खेल खेला गया वह शानों और गुड्डू की नजरों में भले ही प्यार था, पर वह पाप था और पाप लाख कोशिश कर लो छुपाए नहीं छुपता, एक दोपहर जब शयन कक्ष में गुड्डू और शानो घिनौना काम कर रहे थे तो दीपेन्द्र बहादुर आ गए, उन्होंने दोनों को जम कर लताड़ा और तुरंत गुड्डू को घर से निकाल दिया और कहा कि उसकी दीपगढ़ कोठी वाली कोठी की देखभाल जा कर करे। शानों कासरा बना बनाया खेल बिगड़ गया, अपना पति जिसके साथ सात फेरे लिए थे, जन्म-जन्मांतर साथ निभाने का वायदा किया था। वही उसे अपना दुश्मन लगने लगा। शानो चाहती थी दीपेन्द्र बहादुर गुड्डू को वापस बुला ले, पर ऐसा हो न सका। दीपेन्द्र बहादुर जानबूझ कर आग पर पांव नहीं रखना चाहते थे। शानो बिना बताये घर के तमाम जेवर व नकदी लेकर गायब हो गई। तो दीपेन्द्र बहादुर के पैरों तले से जमीन खिसक गई।
किसी को बताते तो बदनामी और न बताये तो... उन्होंने शानों को मनाने, समझाने का प्रयास किया, आखिर एक दिन शानो ने कहा आप यही आये, यही बैठकर बात होगी। दीपेन्द्र बहादुर सब कुछ भूलकर बताये गये पते पर पहुंचा, डोर बेल बजाने पर दरवाजा शानों ने खोल दीपेन्द्र को देखते ही वह मुस्कराई उसने अपनी बाहें फैला दी। तो पत्नी का प्यार देखकर दीपेन्द्र पिछली सारी बात भूल गया और शानो क ी बाहों में समा गया तभी एक जोरदार हमला हुआ कमरें में घात लगा कर बैठे गुड्डू ने दीपेन्द्र के सिर पर लोहे की मोटी रॉड से वार किया पल भर में दीपेन्द्र जमीन पर गिर कर बेहोश हो गया, अब गुड्डू और शानो तब तक उसका गला घोटते रहे जब तक वह मर नहीं गया। इसके बाद दोनों ने बगीचे में दीपेन्द्र बहादुर के शव को दफना दिया। पर दीपेन्द्र की गुमशुदगी के बाद पुलिस हरकत में आयी। पुलिस ने जब अपनी पड़ताल की तो सारी बातें सामने आयी शानों और गुड्डू जेल में अब भी सलाखों के पीछे हैं।
हां पूछो, तुझे मैं अच्छी लगती हूं या यह नौकरी... जान बुझकर शानों ने अपना साड़ी का पल्लू जमीन पर गिरा दिया, उसके अर्धचन्द्राकर ब्लाउस के कर से उसके खुबसूरत बदन साफ नुमाया हो गए। शानों ने चंद कदम और आगे पढ़ाये उसने गुड्डू का हाथ अपने हाथ में लिया और बोली देखा गुड्डू तुम नासमझ नहीं हो, विवाहित हो, औरत मर्द के संबंधों को जानते हो, पर वो क्या...देखो गुड्डू अगर मेरी बात मानोगे तो तुम्हें कोई कमी नहीं रहेगी। जो तुम चाहोगे तुम्हे मिलेगा, पर अगर तुमने मेरी बात न मानी तो मैं... क्या मैं-मंै लगा रखी हैं। बरसात कर दी। गुड्डू के अन्दर का मर्द जाग गया। उसने तमाम रिश्ते नातों और मर्यादाओं को पीछे छोड़ दिया, दोनों की सांसे तेज हो गई हालात कुछ ऐसे बने कि किचन छोड़ कर दोनों बेडरूम पहुंचे। इस सब के पीछे एकऐसी दास्तां है जो हर पल बारिककियों से बुने गए। हैरत अंगेज दिमाग की शांतिरिया बयान करती है। कहानी को जानने के लिए हम दस साल पहले चलते है। जब शानों की नई-नई शादी हुई थी। देवगढ़ की पीली हवेली देवगढ़ के राजा की हवेली थी, राजा रजवाड़े भले ही खत्म हो गए थे, पर आज भी देवगढ़ के वारिस कुवर दीपेन्द्र बहादुर उसी जितने दौलतमन्द थे, उतने ही खुश मिजाज और रहम दिल भी, किसी भी मजबूर लाचार आदमी को देखते ही उनका दिल भी, किसी भी मजबूर लाचार आदमी को देखते ही उनका दिल पसीज उठता था।
उनके तीन चीनी मिट्टी के कारखाने थे। एक घी बनाने की फैक्टरी थी। पुस्तैनी जमीन थी। आज भी उनका रूतबा राजा महाराजा से कम न था। घर में यूं तो नौकर चाकरों की फौज थी। पर गुड्डू उनका पारिवारिक नौकर था। वह किचन की सारी व्यवस्था सम्भालता था। घर के स्वामी कुंवर दीपेनद्र बहादुर की उम्र 24 साल की हो गई थी। पर उन्होंने शादी नहीं की थी, माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका था। सारी जिम्मेदारी दीपेन्द्र बहादुर बड़ी जिम्मेदारी के साथ निभा रहे थे। कुछ समय बाद दक्षिण भारत में बसे एक परिवार से उनके लिए एक रिश्ता आया, दीपेन्द्र बहादुर ने जाने क्यों शादी के बंधन में बंधना नहीं चाहते थे। कई लड़कियों व परिवारों को वह ना पसंद कर चुके थे। पर जब उन्होंने शानों को देखा तो उनकी आंखें चुंधिया गई। वह बिना पलक झपकायें शानों के अद्वितीय सौंदर्य को निहारते रहे। अपने को इस तरह टकटकी लगाए देखे जाने से शानों शर्मा गई। शानों की यह अदा दीपेन्द्र बहादुर को और भी भा गई। फिर शहनाई बजने में देर नहीं लगी।
शानों ने बहू के रूप में घर में कदम रखा। उसने अपने मृदल स्वभाव से सभी का दिल जीत लिया। बहू के कदम घर में क्या पड़े, व्यापार में चौमुखी बढ़ोत्तरी होने लगी, इसका परिणाम यह हुआ कि अब दीपेन्द्र बहादुर का ज्यादातर समय व्यापारिक गतिविधियों में बीतता था। पर दीपेन्द्र बहादुर अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से भी विमुख नहीं हुए थे। उनकी दो संताने हुई। दोनों स्कूल में पढऩे लगी। दीपेन्द्र बहादूर के शरीर पर अब उम्र बढऩे की झलक दिखने लगी थी, पर रेवा अभी पहले निखरी हुई थी। उसे घर में दीपेन्द्र की अनुपस्थिति काफी खलती थी। बड़े घर की बहू थी, सो इधर-उधर भी आ जा नहीं सकती थी।
शानों का मन जब भटका तो उनकी नजर गुड्डू पर जा कर ठहर गई। गुड्डू घर का रसोइयां था, शानों पहले गुड्डू को इशारे करती रही पर गुड्डू जान कर अनजान बना रहा, पर उस दिन...इसके बाद गुड्डू और शानों के बीच वासना का जो घिनौना खेल खेला गया वह शानों और गुड्डू की नजरों में भले ही प्यार था, पर वह पाप था और पाप लाख कोशिश कर लो छुपाए नहीं छुपता, एक दोपहर जब शयन कक्ष में गुड्डू और शानो घिनौना काम कर रहे थे तो दीपेन्द्र बहादुर आ गए, उन्होंने दोनों को जम कर लताड़ा और तुरंत गुड्डू को घर से निकाल दिया और कहा कि उसकी दीपगढ़ कोठी वाली कोठी की देखभाल जा कर करे। शानों कासरा बना बनाया खेल बिगड़ गया, अपना पति जिसके साथ सात फेरे लिए थे, जन्म-जन्मांतर साथ निभाने का वायदा किया था। वही उसे अपना दुश्मन लगने लगा। शानो चाहती थी दीपेन्द्र बहादुर गुड्डू को वापस बुला ले, पर ऐसा हो न सका। दीपेन्द्र बहादुर जानबूझ कर आग पर पांव नहीं रखना चाहते थे। शानो बिना बताये घर के तमाम जेवर व नकदी लेकर गायब हो गई। तो दीपेन्द्र बहादुर के पैरों तले से जमीन खिसक गई।
किसी को बताते तो बदनामी और न बताये तो... उन्होंने शानों को मनाने, समझाने का प्रयास किया, आखिर एक दिन शानो ने कहा आप यही आये, यही बैठकर बात होगी। दीपेन्द्र बहादुर सब कुछ भूलकर बताये गये पते पर पहुंचा, डोर बेल बजाने पर दरवाजा शानों ने खोल दीपेन्द्र को देखते ही वह मुस्कराई उसने अपनी बाहें फैला दी। तो पत्नी का प्यार देखकर दीपेन्द्र पिछली सारी बात भूल गया और शानो क ी बाहों में समा गया तभी एक जोरदार हमला हुआ कमरें में घात लगा कर बैठे गुड्डू ने दीपेन्द्र के सिर पर लोहे की मोटी रॉड से वार किया पल भर में दीपेन्द्र जमीन पर गिर कर बेहोश हो गया, अब गुड्डू और शानो तब तक उसका गला घोटते रहे जब तक वह मर नहीं गया। इसके बाद दोनों ने बगीचे में दीपेन्द्र बहादुर के शव को दफना दिया। पर दीपेन्द्र की गुमशुदगी के बाद पुलिस हरकत में आयी। पुलिस ने जब अपनी पड़ताल की तो सारी बातें सामने आयी शानों और गुड्डू जेल में अब भी सलाखों के पीछे हैं।
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