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शादी से पहले सुहागरात मना के सुरक्षा मांगने आ जाने वाले प्रेमियों से क्षमायाचना सहित एक अनुरोध, सेंसर बोर्ड से. ‘खाप’ रिलीज नहीं होनी चाहिए. हो भी जाए तो जाट बहुल इलाकों में प्रदर्शित नहीं होनी चाहिए.मैंने फिल्म देखी नहीं है. मगर फिल्म निर्माताओं की वेबसाईट पे उनका वो दावा मैंने देखा है जिसमें ‘मासूम प्रेमियों’ के खिलाफ पुरातनपंथियों के प्रहारों का उल्लेख करते हुए एक सवाल दागा गया है कि क्या हम उस क्रूरता से जूझने के लिए तैयार हैं. ये फिल्म के उन निर्माता और संवाद लेखकों की हुंकार है जो सब के सब सिन्हा हैं. जाट नहीं हो सकते. मुझे शक है कि खाप का मतलब भी वो समझते होंगे.
ऐसा कहीं पढ़ा, सुना भी नहीं है कि ये फिल्म समाज के ताने बाने तो तोड़ती आज की तरह के गन्धर्व विवाह की समस्या पर किसी चिंतापरक किसी अध्ययन मनन के बाद बनाई गई है. मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा. ‘रामायण’ सीरियल बनाया था रामानंद सागर ने. पूरे शोध कार्य और बुद्धिजीवियों की सलाह के अनुरूप. मगर इसके बावजूद जालंधर से दंगे शुरू हो गए थे और सीरियल को उनकी भावनाओं के अनुरूप ढालना पड़ा था. ‘बोले सो निहाल’ दूसरा उदाहरण है. फिल्म आई. चली. उसका विरोध हुआ. प्रदर्शन हुए. सरकारों से अपीलें हुईं. उन से काम न चला तो अदालत में याचिका भी. विरोध करने वालों का सब्र जवाब दे गया. दिल्ली के एक सिनेमा हाल में बम फटा. फिल्म डिब्बों में बंद कर देनी पड़ी. ‘बोले सो निहाल’ पर सिखों की आपत्ति ये थी कि फिल्म सिखों की भावनाओं को आहत करती है.
रामानंद सागर ने तो ये गलती भी नहीं की थी. उन्होंने तो बस ‘रामायण’ को लव कुश और वाल्मीकि प्रकरण से पहले सीरियल को विश्राम दे दिया था. दलितों को इस पर ऐतराज़ था. सागर को सीरियल दलितों की भावनाओं के अनुरूप बढ़ाना पड़ा. उन ने बढ़ाया भी. माफ़ी भी मांगी. रामानंद सागर ने माफ़ी तब भी मांगी कि जब उनके पूरे सीरियल में तथ्यपरक कोई जरा सी भी चूक कहीं नहीं थी. उनकी पूरी स्क्रिप्ट स्वयं तुलसीदास के त्रुटिहीन ‘मानस’ के बाद भी चिंतकों, मनीषियों, संतों, इतिहासकारों, शोधकर्ताओं स्वयं उन जैसे संवेदनशील मानव के निरंतर चिंतन मनन के आधार पर तैयार हुई थी. तो सवाल ये है कि क्या ये फिल्म ‘खाप’ रामायण जैसे किसी सर्वस्वीकार्य ग्रन्थ पर आधारित है? क्या ये फिल्म बनाने से पहले इस के निर्माताओं ने इस पूरे मामले का ऐतिहासिक, सामाजिक और कानूनी नज़रिए से कोई अध्ययन किया है? क्या उन्हें मालूम भी है कि इस पूरे मुद्दे पर शास्त्र और विधि सम्मत मानदंड क्या हैं? क्या जानते हैं वे कि माननीय हाई कोर्ट में खाप सम्बंधित माले विचाराधीन हैं. अदालत ने सरकार को इस पर नीति बनाने का परामर्श दिया है.
नीति बनी भी है तो वो लागू नहीं हो पा रही.मैं माफ़ी चाहूंगा ये तर्क देने वालों से कि साहित्य इस मायने में समाज का दर्पण है कि जो समाज में हो रहा है वो दिखाने या वैसा ही लिख देने का सबको हक़ है. साहित्य का छात्र रहा होने से अपना ये मानना है कि साहित्य (या सिनेमा) को दर्पण की तरह दिखना नहीं बल्कि दिखाना चाहिए. बताना चाहिए कि जो गलत है वो नहीं होना चाहिए. जो खुद गलतियों के साथ बह जाए, विशुद्ध व्यावसायिक कारणों से, वो साहित्य या सिनेमा संजीदा, सकारात्मक और समाजसेवी नहीं हो सकता. फिल्म का पोस्टर मैंने देखा है. उसमें एक प्रेमी जोड़े को फांसी लगी दिखाई गई है. जिसने भी लगाई हो. खाप ने. उन्होंने खुद ने या किस और ने. दिखाना क्या चाह रहे हैं वे? क्या टकराव?
अगर हाँ तो उसके मूल में जाना होगा. ये साबित करना होगा कि शादी दो परिवारों और उन के संस्कारों का मिलन है या कि घर, परिवार, समाज और उसकी परम्पराओं से भागे किन्हीं दो प्रेमियों का शारीरिक सम्बन्ध. और ये तय भी कौन करेगा? क्या वो फिल्म निर्माता जिनका मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना है! उनके मनोरंजन को मनभंजन की इजाज़त नहीं होनी चाहिए. खासकर तब कि जब उनके सही होने के बावजूद समाज में उपद्रव हो सकने का अंदेशा हो. कह ही रहे हैं जाट कि इस फिल्म को वे चलने नहीं देंगे. समाज में शान्ति किसी के मनोरंजन या मनोरंजन शुल्क के रूप में सरकार की कमाई से कहीं ज्यादा ज़रूरी मानी जानी चाहिए.
ऐसा कहीं पढ़ा, सुना भी नहीं है कि ये फिल्म समाज के ताने बाने तो तोड़ती आज की तरह के गन्धर्व विवाह की समस्या पर किसी चिंतापरक किसी अध्ययन मनन के बाद बनाई गई है. मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा. ‘रामायण’ सीरियल बनाया था रामानंद सागर ने. पूरे शोध कार्य और बुद्धिजीवियों की सलाह के अनुरूप. मगर इसके बावजूद जालंधर से दंगे शुरू हो गए थे और सीरियल को उनकी भावनाओं के अनुरूप ढालना पड़ा था. ‘बोले सो निहाल’ दूसरा उदाहरण है. फिल्म आई. चली. उसका विरोध हुआ. प्रदर्शन हुए. सरकारों से अपीलें हुईं. उन से काम न चला तो अदालत में याचिका भी. विरोध करने वालों का सब्र जवाब दे गया. दिल्ली के एक सिनेमा हाल में बम फटा. फिल्म डिब्बों में बंद कर देनी पड़ी. ‘बोले सो निहाल’ पर सिखों की आपत्ति ये थी कि फिल्म सिखों की भावनाओं को आहत करती है.
रामानंद सागर ने तो ये गलती भी नहीं की थी. उन्होंने तो बस ‘रामायण’ को लव कुश और वाल्मीकि प्रकरण से पहले सीरियल को विश्राम दे दिया था. दलितों को इस पर ऐतराज़ था. सागर को सीरियल दलितों की भावनाओं के अनुरूप बढ़ाना पड़ा. उन ने बढ़ाया भी. माफ़ी भी मांगी. रामानंद सागर ने माफ़ी तब भी मांगी कि जब उनके पूरे सीरियल में तथ्यपरक कोई जरा सी भी चूक कहीं नहीं थी. उनकी पूरी स्क्रिप्ट स्वयं तुलसीदास के त्रुटिहीन ‘मानस’ के बाद भी चिंतकों, मनीषियों, संतों, इतिहासकारों, शोधकर्ताओं स्वयं उन जैसे संवेदनशील मानव के निरंतर चिंतन मनन के आधार पर तैयार हुई थी. तो सवाल ये है कि क्या ये फिल्म ‘खाप’ रामायण जैसे किसी सर्वस्वीकार्य ग्रन्थ पर आधारित है? क्या ये फिल्म बनाने से पहले इस के निर्माताओं ने इस पूरे मामले का ऐतिहासिक, सामाजिक और कानूनी नज़रिए से कोई अध्ययन किया है? क्या उन्हें मालूम भी है कि इस पूरे मुद्दे पर शास्त्र और विधि सम्मत मानदंड क्या हैं? क्या जानते हैं वे कि माननीय हाई कोर्ट में खाप सम्बंधित माले विचाराधीन हैं. अदालत ने सरकार को इस पर नीति बनाने का परामर्श दिया है.
नीति बनी भी है तो वो लागू नहीं हो पा रही.मैं माफ़ी चाहूंगा ये तर्क देने वालों से कि साहित्य इस मायने में समाज का दर्पण है कि जो समाज में हो रहा है वो दिखाने या वैसा ही लिख देने का सबको हक़ है. साहित्य का छात्र रहा होने से अपना ये मानना है कि साहित्य (या सिनेमा) को दर्पण की तरह दिखना नहीं बल्कि दिखाना चाहिए. बताना चाहिए कि जो गलत है वो नहीं होना चाहिए. जो खुद गलतियों के साथ बह जाए, विशुद्ध व्यावसायिक कारणों से, वो साहित्य या सिनेमा संजीदा, सकारात्मक और समाजसेवी नहीं हो सकता. फिल्म का पोस्टर मैंने देखा है. उसमें एक प्रेमी जोड़े को फांसी लगी दिखाई गई है. जिसने भी लगाई हो. खाप ने. उन्होंने खुद ने या किस और ने. दिखाना क्या चाह रहे हैं वे? क्या टकराव?
अगर हाँ तो उसके मूल में जाना होगा. ये साबित करना होगा कि शादी दो परिवारों और उन के संस्कारों का मिलन है या कि घर, परिवार, समाज और उसकी परम्पराओं से भागे किन्हीं दो प्रेमियों का शारीरिक सम्बन्ध. और ये तय भी कौन करेगा? क्या वो फिल्म निर्माता जिनका मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना है! उनके मनोरंजन को मनभंजन की इजाज़त नहीं होनी चाहिए. खासकर तब कि जब उनके सही होने के बावजूद समाज में उपद्रव हो सकने का अंदेशा हो. कह ही रहे हैं जाट कि इस फिल्म को वे चलने नहीं देंगे. समाज में शान्ति किसी के मनोरंजन या मनोरंजन शुल्क के रूप में सरकार की कमाई से कहीं ज्यादा ज़रूरी मानी जानी चाहिए.
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